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सर पर 2022 का चुनाव और दूर होते दिग्गजों ने बढ़ाई मायावती की मुश्किलें, आसान नहीं है सत्ता में वापसी की राह

   दया शंकर चौधरी

लखनऊ। तेरी दुनिया से दूर, चले होके मजबूर, हमें याद रखना…। यह फिल्मी गीत बहुजन समाज पार्टी पर इन दिनों सटीक बैठता हुआ दीख रहा है। दो दशक में उत्तर प्रदेश में बसपा ही एक ऐसी पार्टी है जिसने सर्वाधिक अपने दिग्गज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया या वो खुद छोड़कर चले गए। दिग्गजों के अलग होने का नतीजा रहा कि बसपा का काडर छिन्न भिन्न होता दिखने लगा। वोटों का समीकरण और सोशल इंजीनियरिंग की सियासी जमीन भी दरकी है। वर्ष 2022 में सत्ता में वापसी का ख्वाब धुंधलाता दिख रहा है। वहीं जिला पंचायत अध्यक्ष व ब्लाक प्रमुख जैसे चुनावों में भी स्थानीय स्तर पर प्रबंधन की कड़ियां बिखरने का लाभ अन्य दलों को मिलने की उम्मीद जगी है।

संस्थापक कांशीराम के साथ बसपा की जड़ें मजबूत करने को संघर्ष करने वाले एक एक कर दूर होते चले गए। पूर्व मंत्री मसूद अहमद, आरके चौधरी, जगबीर सिंह, जंगबहादुर पटेल, बरखूराम वर्मा, दीनानाथ भाष्कर, स्वामी प्रसाद मौर्य, इंद्रजीत सरोज, ब्रजेश पाठक, नसीमुद्दीन सिद्दीकी व रामवीर उपाध्याय से लेकर लालजी वर्मा और रामअचल राजभर तक लंबी सूची है। ताजा मामला मंगलवार (15 जून) का है जब बहुजन समाज पार्टी के नौ बागी विधायकों ने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से मुलाकात की, जिससे सूबे में सियासी पारा अचानक बढ़ गया है। ये सभी विधायक मंगलवार को अचानक लखनऊ स्थित सपा मुख्यालय पहुंचे, और पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव से लंबी मुलाकात की। इन विधायकों के समाजवादी पार्टी के दफ्तर पहुंचने पर अटकलें लगाई जा रही हैं कि ये सभी अगले विधानसभा चुनाव के लिए समाजवादी पार्टी में अपना भविष्य तलाश रहे हैं, और जल्द ही अखिलेश यादव की पार्टी में शामिल होंगे।

बसपा के बागी शीघ्र ही थाम सकते हैं सपा का दामन: अखिलेश से मिलने वाले बसपा के बागियों में असलम राइनी (भिनगा-श्रावस्ती), असलम अली चौधरी (ढोलाना-हापुड़), मुज़्तबा सिद्दीकी (प्रतापपुर-प्रयागराज), हाकिम लाल बिंद (हांडिया-प्रयागराज), हरगोविंद भार्गव (सिधौली-सीतापुर), सुषमा पटेल (मुंगरा बादशाहपुर), वंदना सिंह (सगड़ी-आज़मगढ़), रामवीर उपाध्याय (सादाबाद) तथा अनिल सिंह (उन्नाव) शामिल हैं। गौरतलब है 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा के 19 विधायक जीते थे, लेकिन बाद में अंबेडकरनगर नगर सीट पर हुए उपचुनाव में बसपा अपनी यह सीट हार गई थी।इसके कुछ वक्त बाद रामवीर उपाध्याय और अनिल सिंह को पार्टी अध्यक्ष मायावती ने पार्टी-विरोधी गतिविधियों के आरोप में पार्टी से निष्कासित कर दिया था। फिर पिछले साल हुए राज्यसभा चुनाव के दौरान बसपा के सात विधायकों ने पार्टी प्रत्याशी के समर्थन में प्रस्तावक होने से इनकार करते हुए दावा किया था कि उनके दस्तखत फर्ज़ी हैं, और वे समाजवादी पार्टी प्रत्याशी के समर्थक और प्रस्तावक बन गए, जिसके परिणामस्वरूप मायावती ने उन्हें भी पार्टी से निकाल दिया।

इसके बाद पिछले ही हफ्ते मायावती ने पार्टी के वरिष्ठतम विधायकों में से एक रामअचल राजभर और पार्टी विधायक दल के नेता लालजी वर्मा को पार्टी-विरोधी गतिविधियों के आरोप में पार्टी से निकाल दिया था। लालजी वर्मा वर्ष 1991 से बहुजन समाज पार्टी से जुड़े हैं, और रामअचल राजभर मायावती के चारों कार्यकालों के दौरान मंत्री भी रहे हैं। तमाम बड़े व मिशन से जुड़े पुराने नेताओं के छिटकने को दुर्भाग्यपूर्ण बताते हुए एक कोआर्डिनेटर की चिंता है कि नेतृत्व को अवधारणा बदलनी होगी कि वोट मायावती के नाम पर मिलता है, किसी अन्य की भूमिका अधिक नहीं होती। उनका कहना है कि ऐसा अब बदले हालात में आसान नहीं है। दलित वोटों में भाजपा ने बड़ी सेंध लगा दी है। भीम आर्मी जैसे संगठन भी कड़ी चुनौती दे रहे हैं।

दलित-मुस्लिम समीकरण आसान नहीं: बसपा से दूर होने वालों में ज्यादातर पिछड़े वर्ग के नेता हैं। राममंदिर आंदोलन के बाद अन्य पिछड़े वर्ग के वोटरों की पसंद बसपा बनने लगी थी। इनके साथ ब्राह्मणों की हिस्सेदारी बढ़ने से ही वर्ष 2007 में बसपा बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब रही थी। बाद में पिछड़ा वर्ग वोट बैंक छिटक कर वर्ष 2014 में मोदी के रंग में रंग गया। उधर मुस्लिमों की पहली पसंद समाजवादी पार्टी बनी तो बसपा का दलित-मुस्लिम समीकरण दो चुनावों में लगतार फेल हो रहा है। दलित चिंतकों का कहना है कि बसपा की नीतियां मिशन से भटककर पैसे व परिवार के इर्द-गिर्द ही सिमटती जा रही है, जिसके चलते दलित-मुस्लिम जैसा प्रभावी वोटों का गणित भी कारगर नहीं होगा।

बना सकते हैं नई पार्टी: विधानसभा चुनाव के नजदीक आते ही यूपी में सियासी चालें तेज हो गई हैं। बसपा बड़ी टूट की कगार पर पहुंच गई है। बागी विधायकों ने नई पार्टी बनाने की तैयारी कर ली है। बसपा के 11 विधायकों ने नई पार्टी बनाने की तैयारी शुरू कर दी है। बसपा के बागी विधायक असलम राइनी की माने तो बसपा से निष्कासित लालजी वर्मा नई पार्टी के नेता होंगे। नई पार्टी बनाने के लिए 12 विधायकों की जरूरत है। अभी 11 विधायक एकसाथ हैं एक और विधायक का साथ मिलते ही नई पार्टी का गठन कर दिया जाएगा। स्वाभाविक है, इस नए दल का गठन होते ही अन्य बड़े दलों में टूटन मच जाएगी।

पंचायत चुनाव बाद बदल सकती है नीति: उधर, बसपा में एक खेमे का मानना है कि मायावती द्वारा निष्कासन जैसे कड़े फैसले वर्तमान की परिस्थितियों को देखकर लिए जा रहे हैं। गत लोकसभा चुनाव में सपा से गठबंधन करने का दुष्परिणाम रहा कि बसपा के बागियों को एक और ठिकाना मिल गया। गत राज्यसभा चुनाव में बड़े स्तर पर दलबदल कराकर सपा ने मायावती को और शंकालु बना दिया है। किसी नेता द्वारा बसपा छोड़ने की सुगबुगाहट होते ही निष्कासन की कार्रवाई कर दी जा रही है। सूत्रों का कहना है कि पंचायत चुनाव के बाद घर वापसी जैसा अभियान छेड़कर पुराने नेताओं को जोड़ा जाएगा। उनका कहना है कि बसपा से अलग हुए नेताओं की अन्य दलों में भी पटरी अधिक दिनों तक नहीं जम पाएगी।

दलितों की ‘आवाज’ ने दिलाया बसपा को सत्ता का ताज: बताते चलें कि बहुजन समाज (दलितों) की राजनीति में यकीन रखने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना करिश्माई नेता कांशीराम ने 14 अप्रैल 1984 को की थी। इस पार्टी का चुनाव चिह्न हाथी और इसका मुख्य रूप से जनाधार उत्तर प्रदेश में है। इसकी वर्तमान मुखिया मायावती चार बार यूपी की मुख्‍यमंत्री रह चुकी हैं।उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान और पंजाब में भी बसपा का मामूली जनाधार है। बसपा की स्थापना से पहले कांशीराम ने दबे–कुचले लोगों का हाल जानने के लिए पूरे भारत की यात्रा की थी और फिर 1978 में ‘बामसेफ’ और फिर डीएस-4 नामक संगठन बनाया। अंत में उन्होंने बसपा नाम से राजनीतिक पार्टी बनाई, जिसके पहले अध्यक्ष स्वयं कांशीराम बने।

सवर्ण समाज के विरोध को आधार बनाकर जन्मी बसपा ने बाद में सवर्ण समाज में भी पैठ बनाई है। मुस्लिमों को भी जोड़ा। वर्तमान में इसकी मुखिया सुश्री मायावती चार बार यूपी की मुख्‍यमंत्री रहीं। 1995, 1997, 2002 में वे अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाईं, जबकि चौथी बार 2007 से 2012 तक उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया। बसपा की 13वीं लोकसभा में 14, चौदहवीं लोकसभा में 17, जबकि 15वीं लोकसभा में 21 सदस्य थे। हालांकि 2014 में हुए 16वीं लोकसभा के चुनाव में उनकी पार्टी यूपी में खाता भी नहीं खोल पाई। अगले लोकसभा चुनाव यानि 2019 के लिए बसपा ने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से गठबंधन किया था। आमतौर पर दलितों की राजनीति करने वाली मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनाव में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का सहारा लिया। इसके तहत उन्होंने सतीश मिश्रा को पार्टी में अहम भूमिका दी और टिकट वितरण में भी सवर्णों (ब्राह्मण, राजपूति आदि) को भी स्थान दिया। इसके चलते बसपा को दलित वोटों के साथ सवर्ण वोट भी मिले और वह पूरे बहुमत के साथ सत्ता में आई।

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