लखनऊ। उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड(यूपीपीसीबी) गंगाघाटी के उन चार प्रदूषण नियंत्रण संस्थाओं में है जिनमें कोई बोर्ड सदस्य तकनीकी योग्यता या वायु गुणवत्ता की विशेषज्ञता वाला नहीं है। यह बात हाल में प्रकाशित एक शोध-आलेख में कही गई है। यह रेखांकित किया गया है कि इसका अनुपालन की निगरानी करने की बोर्ड की क्षमता पर उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है।
गंगा घाटी की दस प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एसपीसीबी) और प्रदूषण नियंत्रण समितियों का परीक्षण सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीपीआर) के नए अध्ययन में किया गया है जिसका शीर्षक ‘भारत के राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों की अवस्था’ है। इस अध्ययन में संस्थानिक संरचना और सक्षमता को जांचा गया है। इसमें पंजाब. हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल राज्य शामिल हैं। अध्ययन-पत्र में बोर्डों की नेतृत्व योग्यता, वैधानिक दायित्व का निर्वाह करने की क्षमता पर गौर किया गया है और संरचना पर खास ध्यान दिया गया है।
यूपीपीसीबी की स्थापना 1975 में वाटर एक्ट 1974 के अंतर्गत की गई। यह अपने मुख्यालय और 25 क्षेत्रीय कार्यालयों के सहयोग से उत्तर प्रदेश में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने का जिम्मेवार है। #यूपीपीसीबी के दस सदस्यों में पांच राज्य सरकार की एजेंसियों से आते हैं, एक स्थानीय प्राधिकार से, एक उद्योग/अधिसंरचना क्षेत्र से और एक राज्य निगम से आते हैं। इन दस सदस्यों में दो राजनीतिक प्रतिनिधि भी हैं।
वाटर एक्ट 1974 और एयर एक्ट 1981 के अंतर्गत गठित बोर्ड की अधिकतम सदस्य संख्या 15 है जिसमें अध्यक्ष व सदस्य सचिव शामिल नहीं हैं। वैधानिक प्रावधान है कि बोर्ड के कम से कम दो सदस्य ऐसे हों जिन्हें वायु गुणवत्ता प्रबंधन का ज्ञान और अनुभव हो, यह प्रावधान यूपीपीसीबी से नदारत है जैसाकि विश्लेषण से पता चलता है।
सीपीआर का निष्कर्ष उन जानकारियों और आंकड़ों पर आधारित है जो सूचना के अधिकार कानून 2005 (आरटीआई) के अंतर्गत अगस्त और सितंबर 2021 में मिली थी। साथ ही बोर्ड के वरिष्ठ सदस्यों के साथ संक्षिप्त बातचीत में प्रकट उनके विचारों और मिली जानकारियों को भी इसमें शामिल किया गया है। सीपीआर के फेलो भार्गव कृष्णा कहते हैं कि “यूपीपीसीबी उन चार बोर्डों में से एक है जिसका अध्ययन किया गया, इन बोर्डों में तकनीकी विशेषज्ञता वाला कोई सदस्य नहीं है। एयर एक्ट के अनुसार दो सदस्यों को वायु गुणवत्ता विशेषज्ञ होना चाहिए।”
प्रमुख निष्कर्षों में यह है कि यूपीपीसीबी के लगभग 40 प्रतिशत पद खाली हैं और लगभग 42 प्रतिशत पर्यावरणीय अभियंता और वैज्ञानिकों के पद खाली हैं। वरिष्ट शोध सहयोगी अरुणेश कारकुन ने कहा कि गंगाघाटी के उन नौ बोर्ड-समितियों में यूपीपीसीबी में स्वीकृत पद सबसे अधिक हैं। इन पदों में 67 प्रतिशत गैर-तकनीकी हैं जिसका अर्थ पर्यावरणीय अभियंता व वैज्ञानिकों के अलावा सभी पद है। उन्होंने यह भी कहा कि “जितने पर्यावरणीय अभियंता कार्यरत हैं उनके पास प्रत्येक सहमति-आवेदन की छानबीन करने और समीक्षा करने के लिए एक दिन से भी कम समय उपलब्ध होता है। अन्य बोर्डों की तुलना में यह काफी कम है।”
इसबीच, आलेखों में रेखांकित किया गया है कि बोर्ड के सर्वोच्च स्तरों पर अक्सर तबादला होने से किसी भी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के लिए दीर्घकालीन योजनाओं के बारे में सोचना और कार्यान्वित करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का नेतृत्व कामकाज पर पूरा ध्यान नहीं दे पाता। अध्ययन आलेखों की इस श्रृंखला में देखा गया है कि अध्यक्षों का कार्यकाल बहुत कम रहा और सदस्य सचिव के कार्यकाल में काफी विविधता रही। यूपीपीसीबी में पिछले पांच में से तीन बार कार्यकाल तीन महीने से कम, सबसे कम पंद्रह दिन का रहा।
सीपीआर की फेलो शिबानी घोष ने कहा कि “यूपीपीसीबी अभी तक (10 दिसंबर 2021) अपने अध्यक्ष और सदस्य सचिव की नियुक्ति-नियमावली जारी नहीं कर सका है। कोई व्यक्ति जो कभी सरकारी सेवा में नहीं रहा, यूपीपीसीबी के अध्यक्ष पद के लिए आवेदन नहीं कर सकता। यूपीपीसीबी केवल सरकारी सेवा के लोगों को ही सदस्य-सचिव पद के लिए आवेदन करने की अनुमति देता है।” राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों और केंद्रशासित प्रदेशों में उनके समतुल्य समितियों को वायु प्रदूषण को रोकने में कई महत्वपूर्ण भूमिका निभाना होता है। हालांकि वे इस कार्यभार को कारगर ढंग से निभाने में असफल रहने की वजह से अक्सर आलोचना की शिकार होती हैं। उनके पास संसाधनों और सक्षमता का अभाव है।