देश में अदालती प्रक्रिया वैसे तो अक्सर ही अपनी लेटलतीफी के लिए जानी जाती है, लेकिन भूषण स्टील के मामले ने तो एक तरह से इतिहास ही बना डाला है। कंपनी की कथित गड़बड़ियों की जांच कर रहे सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस (एसएफआईओ) ने इस मामले में 284 लोगों और इकाइयों को आरोपी बनाते हुए 70 हजार पन्नों की चार्जशीट दाखिल की है। इससे पहले 12 मार्च 1993 को मुंबई में हुए 12 बम धमाकों को लेकर मुंबई पुलिस ने 10 हजार से ज्यादा पन्ने की चार्जशीट पेश की थी।
इस बड़ी अदालती कार्रवाई पर बात करते हुए कानूनी विशेषज्ञों ने कहा कि इस विशाल चार्जशीट को देखते हुए अदालत को सभी आरोपियों की अटेंडेंस दर्ज करने में (हर आरोपी पर एक मिनट) ही 4 घंटे 45 मिनट लग सकते हैं और सुनवाई ऐसी अदालत में करनी पड़ सकती है जहां आरोपी और उनके वकील मिलाकर करीब 600 लोग (एक आरोपी पर एक वकील मानते हुए, कभी-कभी एक ही वकील कई आरोपियों के मामले देखते हैं) आ सकते हों। साथ ही, जज को 70 हजार पन्ने में दर्ज सबूतों पर नजर दौड़ानी पड़ सकती है।
किसी भी क्रिमिनल केस में चार्जशीट फाइल होने और उसका संज्ञान लिए जाने के बाद आरोप तय करने के साथ सुनवाई की शुरुआत होती है। हालांकि उससे पहले कोर्ट को अपने सामने लंबित दूसरी याचिकाओं का निपटारा करना होता है, जिनमें आरोपियों के बेल या डिस्चार्ज ऐप्लिकेशंस हो सकते हैं। आर्थिक अपराध के मामलों में यह भी तय करना होता है कि किन प्रॉपर्टीज को अटैच किया जाना है।
भूषण स्टील मामले में कुछ आरोपियों की पैरवी कर रहे सीनियर वकील विजय अग्रवाल ने कहा, ‘एजेंसी ने इतने ज्यादा आरोपियों के नाम डाले हैं कि हो सकता है कि मौजूदा वकीलों और आरोपियों के जीवन काल में सुनवाई पूरी न हो पाए।’ उन्होंने कहा, ‘200 से ज्यादा तो आरोपी ही हैं। ऐसे में सुनवाई कोर्ट रूम में नहीं हो सकती। कोई दूसरी जगह देखनी होगी। सीआरपीसी के सेक्शन 207 के अनुसार हर आरोपी को चार्जशीट की हार्ड कॉपी देनी होती है। ऐसे में एजेंसी को दो करोड़ से ज्यादा पेज प्रिंट कराने होंगे।’
बड़ी संख्या में आरोपियों के खिलाफ चार्जशीट पेश करने का एसएफआईओ का निर्णय सुप्रीम कोर्ट की इन गाइडलाइंस पर आधारित है कि कथित अपराध में शामिल सभी लोगों पर आरोप लगाए जाएं। इसके बाद कोर्ट तय करता है कि किनके खिलाफ सुनवाई होगी। IL&FS केस में एसफआईओ का पक्ष देख रहे सीनियर वकील हितेन वेनागांवकर ने कहा, ‘क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में आरोपियों के बजाय कोर्ट के सामने पेश होने वाले गवाहों के आधार पर सुनवाई होती है। गवाहों की संख्या ज्यादा न हो तो सुनवाई में ज्यादा समय नहीं लगता है