कुंए तो गुजरे ज़माने की बात हो गए।भीषण गर्मी के कारण कुंए तो क्या, गहरे से गहरे आधुनिक ट्यूबवेल भी नाकारा होते जा रहे हैं। इसका कारण बताने की आवश्यकता नहीं। भूगर्भ में जमा पानी को हमने खींचकर लगभग समाप्त कर दिया। हां, आजादी के बाद पिछले सात दशक में चार हजार से ज्यादा बांध जरूर बनाए गए हैं। ऐसा जल प्रबंधन सोचा था कि बारिश के ज्यादा से ज्यादा पानी को जलाशयों में रोककर रखेंगे। यह पानी बारिश के बाद आठ महीनों तक सिंचाई, पीने, नहाने धोने व उद्योगों में कार्य आया करेगा।
यह शोध का विषय है कि पिछले तीन दशक से जल प्रबंधन के लिए वर्षा के पानी को रोककर रखने के लिए देश में क्या हो रहा है? सरसरी तौर पर देखें तो साफ दिखता है कि इस मुद्दे में कुछ नहीं हो पा रहा है। जल प्रबंधन का कार्य कम होने के आर्थिक व राजनीतिक कारण हो सकते हैं, लेकिन आज वक्त का ऐलान है कि देश में पानी की कमी देश की अर्थव्यवस्था वपॉलिटिक्स पर ही संकट बनकर खड़ी है।
क्या है हमारी असली स्थिति?
पानी की कमी के ये मोटे-मोटे तर्क हैं, लेकिन जब देश में प्रकृति से उपलब्ध पानी की मात्रा को देखते हैं तो पाते हैं कि 136 करोड़ की आबादी के लिए पानी की आवश्यकता पर किसी बहस की गुंजाइश नहीं बचती। बताते चलें कि प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष दो हजार घनमीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है। हद ये है कि इस अंतरराष्टीय पैमाने को वर्ष दर वर्ष हम बदलते जा रहे हैं, क्योंकि कुदरत से उपलब्ध पानी आबादी के लिहाज से बहुत कम पड़ने लगा है। एक अनुमान है कि इस समय प्रतिव्यक्ति एक हजार घनमीटर सालाना भी बड़ी कठिन से मुहैया है।
क्या है पानी का हिसाब-किताब?
देश का कुल क्षेत्रफल 32 करोड़ हेक्टेयर है। देश में सालाना औसतन 118 सेंटीमीटर पानी गिरता है। इसे गुणा करके हिसाब बैठता है कि देश को कुदरत से सालाना 4000 अरब घनमीटर पानी मिलता है, लेकिन मानसून के चार महीनों में इतनी बारिश होती है कि उस सारे पानी को हम रोककर नहीं रख पाते। यह पानी उफनती नदियों से बाढ़ के रूप में तबाही मचाता हुआ समुद्र में वापस चला जाता है। कुछ पानी जमीन सोख लेती है। हालांकि, जमीन का पानी सोखना वरदान है क्योंकि उससे भूजल भंडार फिर से भरता है। ये अलग बात है कि वर्ष दर वर्ष भूजल भंडार से हम पानी ज्यादा खींच रहे हैं व बारिश से भूजल का पुनर्भरण कम हो रहा है।
इसीलिए कुओं व ट्यूबवेल का जलस्तर नीचे उतरता चला जा रहा है। बहरहाल ये निकट भविष्य में अलग से एक बड़ी चिंता की बात है, लेकिन वर्तमान में अपनी आखों के सामने ही हर वर्षबारिश का ज्यादातर पानी बाढ़ की तबाही मचाता हुआ समुद्र में जा रहा हो व हम बाकी आठ महीने पानी की कमी से जूझते हों तो इससे ज्यादा बड़े आश्चर्य की क्या बात होगी? देश के मौजूदा जलविज्ञानी व जल प्रबंधक भी देखते होंगे कि बारिश में हर वर्ष हम बाढ़ झेलने लगे हैं व उसी वर्ष सूखे को भुगतने लगे हैं।
बारिश का कितना पानी यूं ही बह जाता है?
दरअसल, आंकड़े जमा करने के कार्य में हम कुछ ज्यादा ही गरीब हैं। अगर ये आंकड़े जमा करने भी लगें तो पानी को लेकर अंतरराज्यीय झगड़े हमें इन्हें सार्वजनिक करने से रोकते हैं। मसलन यमुना के पानी के बंटवारे को लेकर हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान व हिमाचल के बीच इतना कहासुनी है कि यमुना में पानी के बहाव के आंकड़े वर्गीकृत श्रेणी यानी सीक्रेट हैं। यही आलम दूसरे अंतरराज्यीय विवादों का है। बहरहाल, जब आंकड़े ही न हों तो क्या योजना बनेगी, क्या प्रबंधन होगा व क्या सुझाव बनेंगे?
एक मोटा हिसाब है कि देश में वर्षा से मिले 4000 अरब घनमीटर पानी में से हम सिर्फ 300 अरब घन मीटर पानी अपने बांधों में रोककर रख पाते हैं। वहीं, गैर सरकारी अनुमान है कि हम कम से कम 600 अरब घनमीटर पानी सरलता से छोटे-बड़े जलाशयों मे रोक सकते हैं। यानी ज्यादा जलाशय बनाकर हम अपनी जल भंडारण क्षमता दोगुनी तक ले जा सकते हैं। उस मात्रा में जमा पानी से गर्मियों में सूख जाने वाली नदियों में थोड़ी बहुत अविरल धारा भी बनी रह सकती है। साथ ही उस भयावह जलसंकट से भी निपटा जा सकता है जैसा इस समय देश में है।
तो फिर हम करते क्यों नहीं?
सिंचाई व बांध परियोजनाओं के लिए पैसों की आवश्यकता होती है। याद पड़ता है कि 1988 में देश में जल प्रबंधन की जितनी परियोजनाएं मंजूरी पाकर प्रारम्भ नहीं हो सकी थीं या लंबित पड़ी थीं उनके लिए 60 हजार करोड़ रुपये की आवश्यकता थी। यह 31 वर्ष पहले की बात है। आज 2019 में क्या स्थिति है यह तो सरलता से पता नहीं चलता, लेकिन उस पुरानी स्थिति को अगर आज के खर्चे के हिसाब से देखें तो उतने ही कार्य के लिए कम से कम तीन लाख करोड़ रुपये की आवश्यकता पड़ेगी
पानी ज़िंदगी की पहली शर्त है। किसी ग्रह पर ज़िंदगी की खोज करने वाले सबसे पहले यही देखते हैं कि वहां पानी होने कि सम्भावना है या नहीं। अगर पानी वाकई ज़िंदगी का पर्याय है तो अपनी मानव संपन्न पृथ्वी पर पानी के बंदोवस्त पर खर्च की बात करने से ज्यादा बेतुकी बात व कोई नहीं हो सकती। अगर पानी ज़िंदगी की पहली शर्त है तो दूसरे किसी भी मद से रकम काटकर सबसे पहले पानी के पुख्ता बंदोवस्त पर लगना चाहिए। भले ही इस कार्य के होने में पांच वर्ष लग जाएं या पांच दशक। चाहे जीडीपी बढ़ती न दिखाई दे व भले ही दूसरे मामलों में पिछड़ भी जाएं।