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प्रवासी मजदूरों की चिंता के बजाय राजनीतिक जंग जारी, तलाशने होंगे नए अवसर!

आखिर कैसा है यह अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस दोस्तों कोविड -19 से उपजी वैश्विक महामारी कोरोना वायरस के कारण देश के अलग-अलग राज्यो से जिस प्रकार प्रवासी मजदूरों का पलायन हुआ और फिर उन्हें बीच में ही रोका गया, बहुत से मजदूर हजारों किलोमीटर 7 से 8 दिन तक का सफर पैदल ही चल कर पूरा किए।

कोरोना वायरस का प्रसार रोकने के लिए जारी लॉक डाउन के बावजूद प्रवासी मजदूरों का हजारों किलोमीटर का सफर तय करके अपने गृह राज्य लौटने का सिलसिला अभी भी जारी है। बुधवार को मुंबई-नासिक हाईवे पर एक मजदूर अपने कंधे पर बुजुर्ग पिता को बैठाकर जाता दिखा जोकि हृदय को दुखा देने वाली तस्वीर है। जिस शहर को बनाने के लिए मजदूर अपना पूरा जीवन खपा देते हैं आखिर उसके साथ वह शहर क्यों नहीं खड़ा होता, आखिर क्यों मजबूर होकर मजदूर को अपने गृह राज्य के तरफ लौटना पड़ रहा है? सच्चाई यही है कि अगर मजदूर अपने घर नहीं लौट आएंगे तो भूखे मर जाएंगे। इसके पीछे उनके पास काम ना होने के चलते अरथीतक तंगी मुख्य वजह है। ऐसे में उसके पास अपना और परिवार का पेट भरना दिक्कत की बात बाण गया है।

प्रवासी मजदूरों की खाली सड़कों पर पैदल चलते तस्वीरें देखकर बहुत दर्द हुआ पहले से ही कई चुनौतियों को झेलने वाले गरीब मजदूर इस लॉक डाउन की सबसे अधिक मार झेल रहे हैं। भारत में करीब 12 करोड़ प्रवासी मजदूर हैं, जिनमें से अधिकतर रोज कुआं खोदकर रोज पानी पीते हैं। रोज दिहाड़ी करके ये मजदूर अपना पेट पालते हैं और अपने परिवार को संभालते हैं, साथ ही गांव में भी पैसे भेजते हैं। लेकिन दुखद कि हमारे जिम्मेदार नेता भी इन मजदूरों की चिंता और जरुरी उपाय करने के बजाय इस मामले को राजनीतिक जामा पहनाने में जुटे हुए हैं।

पहली बार मजदूर दिवस 1 मई 1886 को मनाया गया। हुआ यूँ कि अमेरिका के मजदूर संघों ने निश्चय किया कि 8 घंटे से ज्यादा काम नहीं करेंगे और अपनी इस मांग हड़ताल कर दिए। इस दौरान शिकागो की हेमाकिर्ट में बम ब्लास्ट हुआ, इस पर पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी, जिससे कई मजदूरों की मौत हो गई। इसके बाद 1889 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में ऐलान किया गया कि नरसंहार में मारे गए निर्दोष लोगों की याद में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा।

किसी देश की तरक्की उस देश के कामगारों और किसानों पर निर्भर करती है। उद्योगपति, मालिक या प्रबंधक मजदूरों को समझने की बजाय अपने आपको ट्रस्टी समझने लगे हैं। इस वैश्विक महामारी में हमें अपने देश के कर्मठ मजदूर किसानों के लिए पहल करने की जरूरत है। जिस शहर को मजदूरों ने बनाया और किसानों उन्हें अन्न दिया आज वही शहरवासी उनके साथ खड़ा नहीं दिख रहा है। समय आ गया है जब व्यापक स्तर पर मंथन कर गांव को समृद्ध बनाना होगा, ताकि वहां रोजगार के नए अवसर उत्पन्न हो सकें और फिर किसी गरीब को रोजगार की तलाश में दर दर की ठोकरें खाने के लिए घर से दूर न जाना पड़े।

रिपोर्ट-विक्रम चौरसिया
रिपोर्ट-विक्रम चौरसिया

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