संकीर्ण दायरे
नकार दो न, उस शोर को
जो जबरन टकराता है
कानों की अंदरूनी सतह
पर जाकर…क्यूं सुनते हो
बेवजह बेबुनियाद,दलीलों को?
तोड़ दो न ये दायरे दखलंदाजी के
आख़िर कब तक कैद रहोगे..
दड़बे नुमा… खोखले विचारों
के अंधेरे खंडहर में, घुटे और
सहमें हुए, गुजारिश है वक्त की
बदल डालो अब ये सोच
तोड़ दो संकीर्ण परिधियां
लेने दो विस्तृत आकार
सकारात्मक उर्जाओं को
खोल डालों कुरीतियों की
बंद खिड़कियां और आने
दो प्रेरक हवाएं, कुंठाओं पर
मरहम का काम करेंगी वो!निधि भार्गव मानवी
गीता कालोनी, ईस्ट दिल्ली
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