अगर वायु प्रदूषण को कम करके कोरोना महामारी के दौरान लगे लॉकडाउन के स्तर पर लाया जा सके तो इससे हिमालय के ग्लेशियरों को पिघलने से बचाया जा सकता है। इन ग्लेशियरों के इस सदी के अंत में खत्म होने का खतरा है।
शोधकर्ताओं के एक अंतरराष्ट्रीय दल ने यह दावा किया है। इस टीम में भारतीय, जर्मनी और ब्रिटेन के वैज्ञानिक हैं। शोधकर्ताओं के दल को अध्ययन में पता चला है कि साल 2020 में जब कोरोना महामारी के दौरान लॉकडाउन लगा हुआ था तो उस वक्त हवा साफ थी और तब हिमालय के ग्लेशियर भी कम पिघले थे।
इस वजह से कम हुआ था प्रदूषण
कोरोना लॉकडाउन के दौरान लोग घरों के भीतर रहे, जिसके चलते यात्री परिवहन कम हुआ। साथ ही उद्योगों से कार्बन उत्सर्जन और ऊर्जा का उपभोग भी कम हुआ। इसके चलते वायु प्रदूषण कम हुआ और ग्रीनहाउस गैसों में भी कमी हुई। सैटेलाइट तस्वीरों से पता चला कि लॉकडाउन के दौरान पहाड़ों पर जमी बर्फ साफ रही।
कम पिघली बर्फ
अध्ययन में पता चला है कि कोरोना लॉकडाउन के दौरान ग्लेशियर से हर दिन 0.5-1.5 मिमी कम बर्फ पिघली। बता दें कि हिमालय के ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने और बर्फ कम होने से एशिया में अरबों लोगों के लिए पानी का संकट पैदा होने का खतरा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर वायु प्रदूषण कम होकर कोरोना लॉकडाउन के स्तर पर आ जाता है तो उससे ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार आधी हो सकती है।
अक्षय ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता बढ़ानी जरूरी
साइंस जर्नल एटमोस्फेरिक केमिस्ट्री एंड फिजिक्स में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, अक्षय ऊर्जा के स्त्रोतों पर निर्भरता को बढ़ाकर और परिवहन में कम कार्बन उत्सर्जन करके अहम सकारात्मक बदलाव लाए जा सकते हैं। हिंदूकुश हिमालय और तिब्बत के पहाड़ पोल्स के अलावा मध्य एशिया में सबसे ज्यादा स्नो कवर वाले क्षेत्र हैं।
इस स्नो कवर से ही पानी पिघलकर भारत और चीन की नदियों में बहता है, जिससे खेती, बिजली बनती है और इन देशों की अर्थव्यवस्था चलती है। जिस रफ्तार से अभी ग्लेशियर पिघल रहे हैं, उस रफ्तार से 21वीं सदी के अंत तक सारे ग्लेशियर पिघलने का खतरा है।