भारतीय राजनीति में दो लोकप्रिय शायरी बहुत बोली और सुनी जाती है जिनमें पहली है, “चमन को सींचने में कुछ पतियाँ झड़ गई होगी, यही इलज़ाम है मुझ पर बेवफाई का, रौंदा है जिसने चमन को अपनी हाथों से, वही दावा करते हैं चमन की रहनुमाई का” और दूसरा कवि इक़बाल का है…“युनानों-मिस्रों-रोमां सब मिट गए जहाँ से, अब तक मगर है बाकी नामो निशां हमारा, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरें जमां हमारा” ऊपर के चारो पंक्तियों के हर शब्द लालू प्रसाद यादव पर सटीक बैठती है. उन्होंने चमन को सींचा है फिर भी बेवफ़ाई उनके दामन का हिस्सा बना दिया गया है और ये बेवफ़ाई का इल्जाम वो लोग लगा रहे हैं जिन्होंने सदियों से इस चमन को रौंदने के अलावा कुछ किया हीं नहीं है।
सैकड़ों लोग आये इन्हें बदनाम किया और चले भी गए लेकिन लालू यादव की हस्ती को नहीं मिटा पाए. देश के दो बड़े राजनीतिक दल, कई छोटे छोटे क्षेत्रीय दल और विश्व की सबसे बड़ी संगठन के साथ साथ सरकारी संस्थाएं, प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था ने इनकी राजनीतिक हस्ती मिटाने के लिए सारी मर्यादाएं तोड़ दिया और उन्हें अंततः संसद से बाहर करवा दिया।
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बावजूद उनकी छाप शोषित वंचित जनता के दिल में आज भी कायम है. बिहार और झारखण्ड सहित देश के अधिकांश हिस्सों के शोषित वंचित वर्ग (जिन्हें अब बहुजन वर्ग भी कहा जाता है) के दिलों पर राज करने वाले एवं सामाजिक न्याय के मसीहा के नाम से लोकप्रिय लालू यादव को शासक वर्ग और राजनीतिक प्रतिद्वंदी द्वारा राजनीतिक गाली देना एक राजनीतिक फैशन और उससे भी बढ़कर एक राजनीतिक मज़बूरी बन गया है।
बिहार में इनका नाम लिए बिना तो कोई नेता बन हीं नहीं सकता है. छात्र जीवन से इनके साथ रहे कुछ भाजपा नेता आज भी इनके नाम पर हीं राजनीतिक सांस ले रहे हैं अन्यथा कब का उनकी राजनीतिक मृत्यु हो जाती।
एंजल ने कहा था की ‘ झूठ के डफली बजाकर अपने प्रतिद्वंदी को इतना बदनाम कर दो कि वो तुम्हारी की हुई बुराई का ही जवाब देते रह जाये और तुम उसका राजनीतिक फतह कर लो’. भारतीय राजनीती में लालू यादव के साथ उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी ने यही किया और आज वंचित वर्गों के मसीहा एवं समाजवादी सामाजिक न्याय के अजेय योद्धा लालू यादव राजनीति में एक जातिवादी नेता के नाम से शासक वर्गों द्वारा पुकारे जाते है. अपने छात्र जीवन में मैं 1995 में पटना साईंन्स कॉलेज के सामने एक मकान में कुछ दिन के लिए रहने गया था. दिसम्बर 1995 की कड़कती ठण्ड में तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद एक रात जाग कर कॉलेज के सामने रोड पर पड़ी गन्दगी का टीला साफ करवाया था. उस रात पटना साइंस कॉलेज से लेकर कुनकुन सिंह लेन तक के निवासी पूरी रात जाग कर यह नजारा देखा था।
तब मैंने सोचा भी नहीं था की एक सामाजिक न्याय के सारथी को षड्यंत्र कर राजनीतिक वनवास पर भेज दिया जायेगा. लेकिन इस देश की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि जिसने भी दलित, पिछड़े, आदिवासी, पसमांदा वर्ग की राजनीतिक और संवैधानिक लड़ाई लड़ा है उसे भद्दी भद्दी गालियां दी गयी है, जाने ली गयी है, बदनाम किया गया है. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर को आरक्षण के नाम पर कौन सी गाली नहीं दी गयी, बाबू जगदेव प्रसाद कुशवाहा की जान ली गयी, बाबू सोनेलाल पटेल को मारा गया, प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह को पिछड़ा वर्ग आरक्षण लागू करने पर तरह तरह की गालियां दी गयी. आज उत्तर प्रदेश में डॉ आज़म खान और उनके परिवार के साथ क्या हो रहा है सभी जानते हैं. वर्तमान बिहार के उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव, उनकी बहन डॉ मीसा भारती और कई परिवार वालों को राजनीति में आने से पहले हीं षड्यंत्रों में घेर लिया।
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लालू प्रसाद 10 मार्च, 1990 को बिहार के मुख्यमंत्री बने. उनके शपथ लेने से पहले बिहार में शोषित वंचित वर्ग की सामाजिक स्थिति बद से बदत्तर थी. ये सभी वर्ग सामंतवादियों के कहर को झेल रहा था. यहाँ तक कि सबसे उच्च स्वयं घोषित जाति में भी उन्हीं के गरीब वर्ग अपने हीं उच्च वर्ग से सामाजिक तिरस्कार झेल रहे थे जिनकी स्थिति शुद्र और अछूत कही जाने वाली जातियों से अलग नहीं थी और आज भी नहीं है. हालात ये था कि जातीय क्रम में जितना ज्यादा निचे उतना अधिक शोषण. इसीलिए लालू यादव अक्सर कहते थे कि “मैंने तवा पर जल रही रोटी को पलट दिया, लोग इसी को मेरा गुनाह समझ बैठे”. जहाँ कहीं भी पशुपालक समाज (अधिकांश यादव, कुर्मी, कोयरी, कुशवाहा, पासवान वर्ग) अल्पसंख्यक में थे जहां इनकी संख्या कम थी, सामंतों ने उनको दबा कर रखा था।
उन्हें गाय-भैंस पालने का तो अधिकार था लेकिन दूध-दही खाने का नहीं. जब चाहे दबंग लोग आते थे, उनके घर से दूध-दही बिना कुछ बोले, बिना ख़रीदे, बिना मांगे उठा ले जाते थे. साथ में धमकी भी दे आते थे की फलां दिन उनके घर में शादी-व्याह, पूजा आदि है, उस दिन उनके घर में दूध-दही, गोबर आदि पहुंच जाना चाहिए. ये लोग तो कंश को भी पीछे छोड़ दिए थे. कंश तो कर के रूप में दूध, दही, घी मंगवाता था, ये तो छीन कर ले जाते थे और जो शरीर से हट्ठे कट्ठे होते थे उनसे ‘बराहिल गिरी’ करवाते थे. बेगारी करवाना तो उनका शौक था. किसान मजदूरों द्वारापाली हुई बकरा-बकरी पसंद आ जाये तो सामंतवादी लोग उनके गले में काली पट्टी बांध देते थे ताकि लोग ये समझ जाये कि अब यह किसी बाबु साहब का हो चूका है. यह लगभग हर वर्ग दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों के साथ हुआ।
लालू यादव ने ऐसे सदियों से दबाएं लोगों को जुल्म के खिलाफ बोलने को जुबान और लड़ने के लिए संवैधानिक प्रशासनिक ताकत दिया. यही जुबानी ताकत हथियार का रूप धारण किया, जब सामंतवादियों ने उनपर जबरदस्ती शोषण को थोपना चाहा. बिहार में पासी समाज के लोग ताड़ के पेड़ से ताड़ी निकालकर बेचते है और अपने परिवार का भरण-पोषण करते है, जो स्वयं अपना और अपने परिवार को दो जून की रोटी देने में सक्षम नहीं थे, उन पर भी 1990 तक सरकार टैक्स लगा रखा था जिसकी वसूली प्रशासन कम फर्जी पुलिस और सामंतवादी दबंग ज्यादा किया करते थे।
कई बार ऐसा हुआ है की इन्सान ताड़ पे चढ़ा होता था और उनसे टैक्स के बहाने प्रताड़ित करने वाले लोग पहुँच जाते थे. वो बेचारे डर के मारे ताड़ के ऊपर से ही कूद पड़ते थे और अपना जान तक गवां बैठते थे. उनके टैक्स को माफ़ मुख्यमंत्री रहते हुए लालू जी ने यह नारा ‘आल ट्री, टैक्स फ्री’ देकर किया, तो उन्हें राहत मिली. हालाँकि शराब बंदी के नाम पर आज फिर से उन्हें ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता था लेकिन उनके और तब के विपक्ष के नेता तेजस्वी प्रसाद यादव के विरोध करने पर ताड़ी को शराब बंदी से मुक्त रखा गया।
1990 तक मछली मारने वालों (मल्लाह) को भी टैक्स देना पड़ता था. जो नदी, तालाब आदि में मछली पकड़कर तथा लोगों को बाढ़ के समय नाव से नदी पार करवाकर अपना जीवन निर्वाह किया करते थे. ये मछली पकड़कर अपने परिवार का पेट भी ठीक से नहीं पाल पाते थे और सामंतवादी राज्य सरकार व दबंग लोग इनसे टैक्स के नाम पर रंगदारी लिया करते थे. सामंतवादी लोग इनसे जबरन नदी और तालाब में मछली पकड़ने को लाते थे और नहीं आने पर इनकी पिटाई करते थे. इन्हें इस कर और सामन्ती आतंक से छुटकारा लालू यादव ने दिलवाया।
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गरीब कुम्हारों को प्रत्येक आवा पर का टैक्स देना पड़ता था और शायद परिश्रम के अलावा उस एक आवे पे उतनी आमदनी भी उन्हें नहीं होती होगी. जो गरीब-कुम्भार पांच-छः दिन दिन-दिन भर मेहनत करके एक आवे को लगाता था उनसे शायद उनके परिवार का भी भरण-पोषण नहीं हो पाता होगा, उनसे सामंतवादी लोग और सरकार व उनके दबंग गुंडे टैक्स वसूली के नाम पर रंगदारी वसूला करते थे. इन्हें इस कर और जुल्म जुल्म से आज़ादी लालू जी ने हीं दिलाई. आदिवासी जनजातियां जंगल से लकड़ी काट कर अपना चूल्हा और जीवन चलाते थे इस पर भी उन्हें परेशान किया जाता था. जिस जंगल की रखवाली आदिवासी सदियों से करते आये हैं उन्हें उनकी लकड़ी नसीब नहीं हो, ये क्या जुल्म था. यह प्रचलन झारखण्ड में था, जो तब बिहार का हिस्सा था. यही स्थिति अन्य दलित जातियों चमार, हाड़ी, डोम, आदि की भी थी।
1990 तक किसी भी गरीब, किसान, मजदुर शोषित वर्ग को इतनी हिम्मत नहीं थी की वो किसी पुलिस वाले से बात कर सके. उसे अपने दर्द को बता सके. लोगो द्वारा दिए गए जख्म को उन्हें बता सके. पुलिस वाले जब चाहे किसी को भी किसी भी मामले में थाने में बंद कर देते थे. तब मात्र दो से तीन सामंतवादी जातियों का बिहार था, उसी का कानून था, उसी का पुलिस था, और उसी की हुकूमत थी. जब भी किसी दो समूह में मारपीट होता था, पुलिस वाले शोषित वंचित वर्ग को हीं पिटते थे और नामजद करते थे. जुल्म कोई भी करे, सजा का हक़दार तो वंचित वर्ग हीं थे. आज यही स्थिति उत्तर प्रदेश की है. तब एक सामंत जमींदार हुआ करता था जिनके खेत की सीमा से जो भी गरीब की बेटी-बहुए दुल्हन बन कर जाती थी, उसे वहां के जमींदार अपने यहाँ कम से कम तीन दिन रहने के लिए मजबूर करते थे और रखते भी थे।
जो खत्म तब हुआ जब लालू यादव सत्ता में आये. यह जानकारी पहले तो सिर्फ यहां वहां से सुनता आया था लेकिन जब इस क्षेत्र के आस पास रहा तो एक प्रतिष्ठित अधिवक्ता ने पूरी जानकारी दिया. यहां बसों में जब शोषित वंचित वर्ग के लोग बैठते थे तो सामन्ती लोग उसे जबरन सीट से उठा देते थे, उनके कपड़े पर पान गुटका फेक देते थे. कपड़े पर थूकने वाली घटनाएं तो शिक्षण संस्थानों और सरकारी संस्थानों में आम बात थी, ऐसा क्षेत्रीय लोगों का कहना है. ऐसी पापी हरकतों की समाप्ति भी 1990 के बाद हीं हुआ जब शोषितों ने इसके खिलाफ कार्यवाई करना शुरू किया. कोई भी शोषित वंचित वर्ग का बेटा, बेटी सरकारी दफ्तर में जाने से डरता था।
कहीं पर भी वो सर उठा कर नहीं बोल सकता था. सामंतवादी लोग उन्हें जबरदस्ती उनके घर से निकालकर अपने खेतों में बंधुआ मजदुर की तरह काम कराते थे, जिसको भारतीय सविधान ने आजादी के समय ही प्रतिबंधित किया था, लेकिन फिर भी सामंतवादी लोग उनका पालन नहीं करते थे. इन बुराईयों को भी लालू यादव ने समाप्त कराया. किसान पशुपालक का बेटा बेटी पढ़ सके, इसके लिए लालू जी ने ‘चरवाहा विद्यालय’ खुलवाया. उनके बच्चों को प्रलोभन देने के लिए कि वो पढ़े, उन्हें रोज एक रुपया देने का काम किया।
विरोधियों ने ‘चरवाहा विद्यालय’ को मजाक बना कर खूब खिल्ली उड़ाई, लालू जी के चरवाहा विद्यालय की चर्चा विदेशों में खूब हुयी, लोग इसका अध्ययन करने बिहार आये, विदेशों में खूब सराहना हुआ, लेकिन सामंती सोच वाले नेताओं और मीडिया अख़बार ने उनका मजाक उड़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा और क्यों न मजाक उड़ाए, आखिर मजदूरों किसानों चरवाहों का बेटा बेटी पढ़ने लगेगा तो फिर उनके खेतों में काम कौन करता? लेकिन उनका नारा ‘भैंस चराने वालों, भेड़ चराने वालों, सूअर चराने वालों, बकरी चराने वालो, घोंघा चुनने वालों, मछली मारने वालो, चमड़ा बीनने वालो, पढ़ना लिखना सीखो’ निरंतर काम करता रहा।
लालू यादव के इस नारे ने बिहार के गांव-गांव में सोये लोगों को जगाया. तब मैं 8 वीं वर्ग में पुटकी मध्य विद्यालय, धनबाद, अब झारखण्ड, में पढ़ता था. मेरे खटाल में करीब आठ से दस लोगों का टीम लोगों को जागृत करने और लालू yadav के सपने को साकार करने के लिए आये थे जिसका नेतृत्व राजू यादव कर रहे थे. बाद में इन्हें मुगलसराय (अब दिन दयाल उपाध्याय) रेलवे स्टेशन पर सामन्ती गुंडों ने गोली मार दिया था. तब इनकी पत्नि आबो देवी जी झरिया से चुनाव जीत कर विधायक और मंत्री बनी थी. राजू यादव मुझसे बहुत बात किये थे क्योंकि तब मैं हीं एक था खटाल में जो पढ़ता था. उन्होंने मुझसे लालू यादव के बारे में बता कर बहुत पढाई करने को बोले थे. इसीलिए मैं अक्सर सार्वजनिक जीवन में स्वीकार करता हूँ कि मैं लालू प्रसाद यादव के समाजवादी सामाजिक क्रांति की उपज हूँ।
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मुझे अक्टूबर नवम्बर 1995 में बहुत ख़ुशी मिली थी जब एक दिन शाम के वक्त लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री रहते हुए गाँधी मैदान के चारो तरफ टहल रहे थे और मैं उनके साथ साथकरीब आधा किलोमीटर पैदल चला था. लोहे की रेलिंग के एक तरफ लालू जी पैदल चल रहे थे और दूसरी तरफ मैं उनके साथ साथ चल रहा था. बॉडीगार्ड मुझे रोकना चाहा तो उन्होंने बोला कि बच्चा है चलने दो. वहीं रिक्सावाले बार बार ‘लालू यादव जिंदाबाद’ का नारा लगा रहे थे. तब मुझे अहसास हुआ था कि लालू यादव एक जिंदादिल इन्सान हैं जिन्हें एक राज्य का मुख्यमंत्री होने का कोई घमंड हीं नहीं है. क्या कोई दूसरा मुख्यमंत्री ऐसा होगा जो अपने साथ दलितों के बच्चों को नहाने के लिए पानी का टैंकर और बाल काटने के लिए कैंची लेकर चलते हों. आज भी कई लोग मिल जायेंगे जो कहते हैं कि मुख्यमंत्री लालू यादव मेरा सर का बाल काटे थे और नहाये भी थे. जिस इन्सान को सामंतों ने इन्सान का दर्जा भी नहीं दिया था लालू जी उसे अपने हाथ से नहाते थे, बाल काटते थे, और साथ में खेलते थे।
1990 में सत्ता में आने के बाद लालू जी ने लगभग हर दलित, पिछड़े, आदिवासियों, पसमांदा वर्ग की जाति से विधायक और सांसद बनाया. बिहार का कुछ क्षेत्र दंगों के लिए मशहूर था. उनके राज्य में एक भी दंगा नहीं हुआ. लालू जी ने अडवाणी जी का दंगा भड़काने वाला रथ रोका और एक भीड़ की संबोधित करते हुए कहा था कि ‘…देश हित में जब इन्सान हीं नहीं रहेगा तो मंदिर में घंटी कौन बजाएगा, मस्जिद में इबादत कौन करेगा… अगर मेरे राज में दंगा फ़ैलाने का नाम लिया तो फिर मेरा राज रहे या चला जाय, हम उनसे कोई समझौता करने वाले नहीं है …’ उस समयन जाने कितना खून खराबा होता. इसी गिरफ़्तारी का बदला उनसे उन्हें चारा घोटाला में फंसाकर लिया गया. अगर तथ्य परक श्रोतों को पढ़ा जाय जैसे “परसूट ऑफ़ लॉ एंड आर्डर द्वारा एपी दुरई, द केस (दैट वाज नॉट) अगेंस्ट लालू यादव द्वारा अजित शाही” आदि तो पता चलता है कि किस तरह उन्हें राजनितिक रंजिश में इस केस में फसाया गया है।
बिहार में 1990 तक दो से तीन जातियों का हीं बर्चस्व रहा है. इन्होने ही आजादी के पहले से लेकर आजादी के बाद तक हर जगह पे अपनी सत्ता कायम रखा. हालांकि पहले भी कुछ दलित, पिछड़े वर्ग के मुख्यमंत्री हुए लेकिन स्व. कर्पूरी ठाकुर जी के अलावा किसी ने कुछ खास सामाजिक परिवर्तन नहीं किया क्योंकि सम्पूर्ण सत्ता उनके हाथों में नहीं था. जब लालू जी सत्ता में आये तो उन्होंने गरीब दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, पसमांदा वर्गों के मन से यह भय दूर करने की कोशिश की ये लोग हमेशा आपके ऊपर जुल्म नहीं कर सकते. विदेशों से कई शोधकर्ता बिहार सिर्फ यह अध्ययन करने आये थे की आखिर कैसे एक गरीब किसान यादव का बेटा कांग्रेस के विरोध के बावजूद वहां का मुख्यमंत्री बना।
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इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है की तब बिहार की स्थिति क्या रही होगी. जिस तरह से आजादी की लड़ाई में आम जनता को यह समझाने की कोशिश की गयी थी कि अंग्रेज कुछ भी नहीं है आप जिस दिन चाहे इसे उखाड़ कर फेक सकते है. उसी तरह ये दबंग जातियों की दबंगई भी स्थायी नहीं है. बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर ने सभी वर्गों के लिए संविधान में बराबर का अधिकार दिया है. अब राजा रानी के पेट से नहीं बल्कि आपके वोट से पैदा होता है इसीलिए वोट अपने रहनुमाओं को दो, जो आपके अधिकार की बात करे, आपके शोषण को बंद करवाए, आपको सम्मान से भरी जिंदगी दे, आदि।
कुछ वर्ष पहले मेरा पदस्थापन मिथिलांचल के एक ग्रामीण इलाके में हुआ. ब्राह्मण बहुल क्षेत्र में मेरी यह पहली उपस्थिति थी. एक सजग नागरिक के रूप में किसी वर्ग के जातीय अहम् और पक्षपात का यह मेरा बिहार में पहला अनुभव था. सामाजिक स्तर पर यहाँ के ब्राह्मण दो मुख्य खेमे में बंटे हुए हैं, श्वेत और अन्य. एक श्वेत क्लर्क अपने जातीय अहम् में खोकर और मुझे हतोत्साहित करने के लिए बड़े ताव से बता रहा था कि पहले तो हमलोग अश्वेत ब्राह्मणों को भी अपने साथ बैठने नहीं देते थे फिर दलित, पिछड़ा क्या है. मैं यहाँ के जातीय तानों और पक्षपात से इतना हतोत्साहित हो चूका था कि तीन से चार महीने रहने के बाद मेरा ब्लड प्रेशर बहुत उच्च हो चूका था. इसका सामाजिक अर्थ तो इतना जरुर निकलता है कि लालू जी ने ब्राह्मणों में भी एकता और समरूपता ले आये, कारण चाहे वोट बैंक की राजनीति हीं क्यों न हो, वंचित ब्राह्मण को उनके समाज ने अपने साथ बिठाया तो सही. स्वयं कुछ मैथिल सहकर्मियों ने इस बात को कुबूल भी किया कि लालू जी के कारण हीं हमें अपने जाति में उचित सम्मान मिला।
अश्वेत ब्राह्मणों में एक चंडाल वर्ग भी होता है जिसका सामाजिक स्तर दलित वर्ग के सबसे निचले पायदान पर आने वाले जाति जैसा है जिसे कभी अछूत माना जाता था. यहाँ बसे ब्राह्मणों के सामाजिक स्तर देखने समझने से तो यही मालूम होता है कि यह समाज स्वयं कई स्तर में बंटा हुआ है और उनमें हर स्तर पर उतना हीं भेदभाव है जितना हिन्दुओं के चार वर्णों में आने वाले लगभग 6742 जातियों के बिच है. इन जैसों को फायदा पहुंचाने के लिए हीं समाजवादी नेताओं ने आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण की वकालत की थी जिसमें लालू जी अग्रणी थे. अफ़सोस इन जैसों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल रहा है और अमीर सवर्ण इसका फायदा उठा रहे हैं. लालू जी की गरीब गुरबों के लिए किये गए सामाजिक क्रांति ने इन्हें भी एक कर दिया।
सवर्ण जाति के अराजनीतिक, संवेदनशील, मध्यम और गरीब तबका लालू जी के सामाजिक कार्यों की सराहना कर रहे थे. अमीर सवर्ण नेताओं को लगा कि कहीं गरीब सवर्णों का वोट लालू यादव के तरफ न खिसक जाये तो राजनीतिक प्रतिद्वंदियों होने के कारण उनके ऊपर “भूरा बाल साफ करो” का नारा देने का आरोप लगाया और इसमें प्रमुख भूमिका सामंती पैसों से चलने और प्रकाशित होने वाले अखबार वालों ने बिना किसी प्रमाण के निभाया और खूब खबरें छापी. लालू यादव खंडन करते रहे कि कोई प्रमाण हो तो बताओ और अख़बार मीडिया अपना राग अलापता रहा, वही झूठी राग जिसकी चर्चा एंजल करते हैं. लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है की जिस समय इस नारा का आरोप उनपर लगा था उस समय भी इनके विभाग में कई मंत्री इन्ही सवर्ण जातियों से थे।
मेरे कार्यस्थल के क्षेत्र में एक छोटा सा बाजार है. वहां मैं एक अति पिछड़े वर्ग से आने वाले सहकर्मी के साथ घुमने गया तो उसने बताया कि 1990 से पहले हमलोग या फिर दलित लोग इस सड़क पर खुला घूम नहीं पाते थे और अब लालू यादव की कृपा देखिये कि हमलोग सड़क के किनारे यहाँ सब्जी, फल, आदि बेचते हैं. मैंने कई सब्जी बेचने वाली महिलाओं, फल बेचने वाले लोगों और कुछ पिछड़े वर्ग से आने वाले दुकानदारों से जान पहचान बढ़ाया और वहां का भूत और वर्तमान हालात पर जानकारी लिया. सभी ने एक हीं बात बोला कि हमारे दिल में जितना सम्मान लालू जी के लिए है उतना भगवान के लिए भी नहीं है. जबकि अन्य सामन्ती सोच वालों ने उन्हें गाली देने में कोई कसर नहीं छोड़ा और ऐसा लगा कि लालू यादव के स्वजातीय होने के कारण कुछ कसर तो मेरे ऊपर भी निकाला गया।
अपने राजनीतिक जीवन में लालू यादव कभी भी यह नहीं चाहे कि जमीनी स्तर पर कोई जातिगत झगड़ा हो जबकि कई राज्यों में इनके समकालीन राजनेताओं ने धर्म और जाति के नाम पर अंधाधुंध फेक एनकाउंटर और दंगा करवाया. उनका मात्र यही सोच रहा होगा कि शोषित वंचित वर्ग के दिमाग से सामंत जातियों का खौफ समाप्त हो और वो लोकतान्त्रिक भारत में एक नागरिक के अधिकार का उपयोग कर सके. उनके इसी राजनीती को लोग जातिगत राजनीति का नाम देते है. अगर इस जातिगत राजनीति से शोषित वर्गों का भला हुआ है तो शायद वह सही साबित हुए. प्रो योगेन्द्र यादव, प्रो रतन लाल, प्रो लक्षमण यादव, प्रो सूरज मंडल (यादव), डॉ जयंत जिज्ञासु, डॉ प्रियंका कुमारी कुशवाहा जैसे राजनीतिक विद्वानों ने उनके राजनीती को दलित, पिछड़े, आदिवासियों, पसमांदा वर्ग के विकास का एक प्रमुख साधन माना है।
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आज विभिन्न शोषित वंचित जाति के लोग अलग अलग गुटों में होकर अपने अंदर राजनीतिक समझ विकसित कर ली है तो यह लालू जी की सामाजिक राजनीतिक क्रांति की सबसे बड़ी जीत है और यह भारतीय लोकतंत्र के विकास में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है. हालाँकि इस वर्गीय राजनीति ने फिर से शासक वर्गों को मजबूत कर दिया है. गैर यादव, कुर्मी, कोयरी, कुशवाहा पिछड़ी जातियां और मजबूत दलित वर्ग पासवान, जाटव आदि के नेताओं को मोहरा बनाकर कांग्रेस, भाजपा और संघ ने समाजवादी आन्दोलन को रोक दिया है और इसे सामाजिक न्याय विरोधी राजनीति का पहरुआ बना रखा है, जिससे सामाजिक न्याय की रफ़्तार रुक सी गयी है और शोषित वर्ग दुबारा सामंतवादी पूंजीवाद के द्वार पर खड़ा है जो उन्हें फिर से सैकड़ों साल पीछे ले जायेगा और इसके लिए लोकसभा चुनाव 2024 एक नाजुक मोड़ है।
हालांकि जातीय जनगणना करवा कर और आरक्षण की सीमा बढ़ा कर बिहार की वर्तमान राजनीति ने एक नया अध्याय जोड़ा है और इसके लिए वर्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार और उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी प्रसाद यादव दोनों हीं धन्यवाद और बधाई के पात्र है. अब उम्मीद हीं नहीं बल्कि पूर्ण विस्वास हो चूका है कि बिहार की राजनीति सामाजिक न्याय से एक कदम आगे बढ़कर आर्थिक न्याय की ओर चल पड़ा है।
बेशक 1990 के बाद बिहार में यादव भी एक जागरूक राजनीतिक चेतना के साथ उभरा है लेकिन इनके साथ कुर्मी, कोयरी, कुशवाहा, पासवान, मुसहर, मल्लाह, खटिक, नाई आदि जातियां भी अपना मजबूत पहचान बनाया है. हम मान सकते है की 1990 से पहले बिहार में दो तीन राजनीतिक रूप से दबंग जातियां थी तो अब कई जातियां है. लेकिन इनको भी शिकस्त देने के लिए अब बिभिन्न जातियां गोलबंद होने शुरू हुए है जो लोकतंत्र के लिए एक शुभ संकेत है. क्योंकि इसी तरह से अनेक जातियां अपने आप को राजनीति में परिपक्व करते रहेंगे और एक दिन ऐसा भी आएगा, जब हर एक जाति अपने आपको किसी से कम नहीं समझेंगे और फिर उनमें एक सामाजिक समरसता के सिधांत का जन्म होगा।
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लेकिन अफ़सोस है कि अभी इनकी राजनीति यादव विरोधी ज्यादा है और संवैधानिक अधिकार के लिए कम. अगर ऐसा नहीं होता तो उत्तर प्रदेश में 690000 शिक्षकों की भर्ती में और अन्य भर्तियों में भी आरक्षण की लुट बड़े स्तर पर हुयी लेकिन सत्तासीन दलित, पिछड़े वर्ग के फर्जी रीढविहीन मंत्री, विधायक, सांसद शांत बैठे हैं. शिक्षकों की भर्ती में करीब 8000 आरक्षित शिक्षक ऐसे हैं जिन्हें नियुक्ति पत्र देना था लेकिन आज तक नहीं दिया गया है और वो छात्र पिछले 570 दिनों से धरने और भूख हड़ताल पर बैठे हुए हैं लेकिन आरक्षित वर्ग के मोहरा बने दलित, पिछड़े वर्ग के नेता मंत्री बन मलाई खा रहे हैं.
अक्सर लालू यादव के ऊपर इल्जाम लगाया जाता है कि उनके राज में अपराध बहुत ज्यादा होता था. हिंदी में एक कहावत है कि ‘लोहा लोहे को काटता है’ और फ़िल्मी अंदाज में बोले तो ‘आज वक्त तुम्हारा है जितना सितम ढाना है ढा लो, कल मेरा भी वक्त आएगा’ को केंद्र बिंदु में लाना जरुरी हो जाता है. 1990 तक शोषित वंचित वर्गों पर जो जुल्म होता था, उनमें अधिकांश केस थाने में दर्ज हीं नहीं किया जाता था, क्योंकि शोषितों वंचितों को सुनने वाला कोई नहीं था. अब उनकी शिकायत थाने में दर्ज हो रही थी तो ग्राफ बढ़ना लाज़िमी था. कहीं कहीं छिटपुट पुराने रंजिश के कारण और उनके ऊपर हो रहे जुल्म को जवाब देने के लिए उन्हें उसी की भाषा में जबाव जरुर दिया गया होगा. शायद यही एक कारण रहा की लालू जी के सत्ता में आते ही शोषित वंचित वर्ग के कुछ तबके के लोगो ने हाथ में हथियार उठाया होगा और कुछ अपराध भी किये होंगे, जो मनुष्य का स्वाभाविक गुण होता है कि अगर आपको किसी ने परेशान किया है आपके पूर्वजों पे जुल्म किया है तो जब भी आप के हाथ में ताकत आएगी, आप बदला लेंगे और ऐसा तो हर एक गाँव में होता आया है कि किसी ने आपके पूर्वजों से जमीन को कब्ज़ा किया था तो जब आप के हाथ में ताकत आती है आप जमीन वापस छिनते हैं।
आजादी के दौरान भी भारतीयों ने कुछ अंग्रेजों को मारा था क्यों? क्योंकि उन्होंने या उनके पूर्वज ने उनके पूर्वजों को मारा था उनके पूर्वजों पे जुल्म किये थे. महात्मा गाँधी ने 1942 में क्यों नारा दिया था, “करो या मरो”, जबकि गांधीजी तो हमेशा अहिंसा की बात किया करते थे. क्यों 1857 में सैनिकों ने क्रांति की शुरुआत की थी? भगत सिह का पंजाब में अंग्रेजों ने क्या लिया था? महात्मा गाँधी, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरु, लाला लाजपत रॉय, सुभाष चंद्र बोस आदि का अंग्रेजो ने क्या लिया था. बस उनका स्वाभिमान हीं तो था जो उन्हें मर-मिटने को विवश किया।
जो लोग लालू यादव पर तोहमत लगाते है कि उन्होंने गरीबों को स्वर तो दिया, स्वर्ग नहीं दिया, रोजगार नहीं दिया, विकास नहीं किया. उनके लिए सिर्फ इतना कहना है कि इनके कार्यकाल 1990-1997 में जीडीपी पहले के सरकारों से बेहतर थी. जब इन्होने पद संभाला तो बिहार का खजाना सिर्फ खाली नहीं था बल्कि सरकार के ऊपर कर्ज भी था. लोग कहते हैं कि गाँधी मैदान और रेलवे स्टेशन गिरवीं था जिसे इन्होने छुड़ाया. बाकि विस्तृत जानकारी के लिए जयंत जिज्ञासु द्वारा लिखी गयी ‘द किंग मेकर लालू प्रसाद यादव’, नलिन वर्मा द्वारा लिखी गयी ‘गोपालगंज से रायसीना’ और अरुण नारायण द्वारा लिखी गयी ‘सदन में लालू प्रसाद यादव’ पढ़ा जा सकता है।
अगर उन्होंने विकास नहीं किया था तो फिर उनके सामाजिक, आर्थिक नीतियों पर किये जा रहे कार्य को देखकर विश्व बैंक ने 1992 के दशक में उनकी आर्थिक नीति की सराहना क्यों की थी? लालू-राबड़ी के शासन में सम्पूर्ण विकास नहीं होने के राजनीतिक कारण भी है. उन पन्द्रह सालों में केंद्र में कभी भी ऐसी सरकार नहीं बनी, जो लालू जी को पसंद करता हो. उन 15 सालों में या तो कांग्रेस का शासन रहा, या भाजपा का या फिर मिलीजुली सरकार. लालू-राबड़ी को न तो कांग्रेस ने चाहा और न भाजपा ने. तब के अविभाजित बिहार में जो भी प्राकृतिक संसाधन थे, उनपर केंद्र का दबदबा रहा है, चाहे वो कोयला हो, अभ्रक हो, लोह-अयस्क हो, या फिर अन्य. इन संसाधनों की कमाई केंद्र सरकार के पास जाती थी न की बिहार सरकार को. आज तक बिहार को कभी भी निवेश का केंद्र नहीं बनने दिया गया. केंद्र सरकार हमेशा बिहार के साथ पक्षपाती व्यव्हार किया है. भारत में 1991 में उदारीकरण की नीति शुरू हुआ. विदेशी कंपनियां आई और अपना रोजगार केंद्र दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, पंजाब, बंगलोर, आदि शहरों में लगाये लेकिन बिहार में नहीं।
फिर निशाने पर सिर्फ लालू प्रसाद हीं क्यों? क्योंकि उन्होंने सामंतशाही राजनीति को ललकार कर उनकी सत्ता को चुनौती दिया और उसे राजनीति में हाशिए पर लाकर खड़ा किया तथा सदियों से दबाए गए लोगों को लालू यादव ने शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए जागृत किया. बस यही वंचित वर्ग के हिम्मत को सामंती सोचवाले नौकरशाह और नेताओं को बर्दास्त नहीं होता है. बिहार की राजनीती पर 1990 तक मात्र तीन जातियों का वर्चस्व रहा है और सिर्फ राजनीती ही नहीं बल्कि मिडिया पर भी इन्ही तीनों का दबदबा रहा है. उनके हाथ से सत्ता एकाएक निकली, वो भी तब जब उन्हें लालू जी खुलेआम चुनौती दे रहे थे. स्वाभाविक था की वो इनका बदला लेते और मिडिया ने भी यही किया. सामंतवादी नेताओं के साथ-साथ वो भी तो सत्ता सुख भोग रहे थे. अतः उन्होंने भी लालू जी को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कभी लालू यादव की सामाजिक देन का विश्लेषण कीजिये तो पाएंगे वो एक ऐसे इन्सान है जो सही मायने में गाँधी जी के ग्राम-स्वराज की समझ रखते है. जिसका प्रमाण वो रेलमंत्री रहते हुए दे चुके है. रेलमंत्री बनते ही उन्होंने कुल्हड़ की चाय शुरू की, वर्षों से अपने सर पे बोझ ढोनेवाले कुलियों को सरकारी नौकरी दी, कोका-कोला के जगह पर दूध-दही कोला शुरू करने की बात कही, दूर-दूर दूध-दही और सब्जी बेचने वालों के लिए स्पेशल बोगी चलवाया, गरीबों के लिए ए सी वाली गरीब रथ ट्रेन चलवाया, रेलवे की कमाई को गरीबों में बाटने के लिए रिजर्वेशन की अनेक शहरों में काउंटर खुलवाए, जिससे यात्रियों को सुविधा भी मिली और बेरोजगारों को काम. उन्होंने यात्री किराया भी नहीं बढ़ाया, रेलवे को फायदा भी दिया और रोजगार भी बढ़ाया. तो क्या लालू जी ने अपने पांच साल के दौरान नागरिकों के हर एक वर्ग को फायदा नहीं पहुचाया? क्या लालू यादव ने उन पांच साल में समाज का इतना भला नहीं किया, जितना की एक नेता से समाज का हर वर्ग चाहता है? मैं पिछले कुछ वर्ष से जातीय कुंठा से ग्रसित लोगों के बिच में नौकरी कर रहा हूँ. जब मुझ जैसे सरकारी सहायक प्रोफेसर को इस तरह जातीय नफ़रत भरी नज़रों से देखते हैं, पक्षपाती वर्ताव करते हैं, किसी अजनबी सा व्यव्हार करते हैं, बात बात पर हतोत्साहित करते हैं तो फिर 1990 से पहले क्या होता होगा, जिसने झेला होगा, वही दर्द जानता होगा. उनके आशा के विरुद्ध जवाब मैं भी देता हूँ।
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बस यह टिस शासक वर्गों को है कि ये शोषित लोग आवाज क्यों उठाते हैं? अतः यह कहना गलत नहीं बल्कि यथार्थ है कि लालू प्रसाद यादव ने शोषित वंचित वर्ग के साथ साथ गरीब सवर्णों को भी लोकतंत्र का मालिक होने का अहसास करवाया और लोकतंत्र में अधिकार लेने के लिए संवैधानिक तरीके से आवाज उठाने का हिम्मत दिया. उन्होंने प्रशासन को भी यह अहसाह करवाया कि वो जनता का मालिक नहीं है बल्कि जनता उसका मालिक है।