मेरी मां ने इतना ही बोला कि ये कोई प्यार-व्यार नहीं है। शरीर की भूख है। चार दिन में जब भूत उतर जाएगा, तब रोएगी। मुझे उनकी मर्डर के आइडियाज जितने डरावने लगे, उससे कम डरावनी नहीं लगी थी मां की बात। 20 वर्ष उमर थी मेरी। 20 वर्ष में वो वस्तु मुझे भी सताने तो लगी थी, जिसे मैं कविताओं में प्रेम लिख रही थी व जिसे मां ने शरीर की भूख बोलाथा। मुझे लगा कि शरीर की भूख भी है तो इसमें बुरा क्या है, गलत क्या है। मुझे सिर्फ लगा, मैंने बोला नहीं। 19 वर्ष पहले इलाहाबाद के उस मुहल्ले में कोई लड़की न प्रेम बोलती थी, न सेक्स।
मैंने एक दिन वो मोहल्ला छोड़ दिया व वो शहर भी। वक्त के साथ धीरे-धीरे जिंदगी फैली भी व सिमटी भी। मेरी इस नयी संसार में किसी के पास किसी लड़की की मर्डर करने के ऐसे क्रिएटिव आइडियाज नहीं थे। इस नयी संसार में आकर मैंने जाना कि प्रेम के, संभोग के बारे में बात करने में शर्म कैसी। शरीर की भूख तो देह की अग्नि है न। कितना तो सुंदर शब्द है।उस सुंदर शब्द के मैंने 10 व पर्यायवाची सीखे व 20 उपायों से उसे कहा, “देह में कितनी आग है। ” मेरी ये नयी संसार बेहतर थी। इस संसार में कोई इलाहाबाद के उस मुहल्ले के पंडितों की तरह बात नहीं करता था। मैंने राहत की सांस ली।
मुझे अब तक ये मुगालता था कि मेरी फेसबुक फ्रेंडलिस्ट भी बहुत ज्यादा फिल्टर्ड है। यहां मर्डर के उपायों पर बात करने वाले लोग नहीं, देह की अग्नि में जलने वाली लड़कियों को वास्तविक भट्ठी में झोंक देने के इरादे रखने वाले लोग नहीं। लड़कियों को पेट में मार देने के विरूद्ध तो सरकार ने इतना अभियान चलाया है। मजाल है जो कोई बोल दे मेरी वॉल पर कि लड़की को पेट में ही मार दो। बाहर की संसार में बोलते होंगे, मेरी संसार में तो कोई ऐसा नहीं। मेरी फेसबुक वॉल पर भी नहीं।
लेकिन दो दिन पहले मेरा ये सारा भ्रम टूट गया। लोगों को छांटने-छानने की मेरी सारी छन्नियां बेकार साबित हुईं। ने टीवी पर आकर अपने पिता के विरूद्ध क्या बोला, मेरी फ्रेंडलिस्ट में बैठे लोग अपने होने वाले बच्चे का लिंग परीक्षण करवाने व अगर लड़की हुई तो उसे पेट में मार देने की बात करने लगे। देश में एक साथ इतने सारे लोगों को आकस्मित लगा कि इसीलिए लड़की पैदा नहीं होनी चाहिए, इसीलिए लड़की पैदा होने पर घरों में मातम मनाया जाता है। इसीलिए भगवान करे कि मैं जो बाप बनने वाला हूं, भगवान मुझे लड़की ना दे।इसीलिए लड़कियों को पेट में मार देना चाहिए ताकि वो कल को भागकर नाक न कटाएं।
19 वर्ष बाद मेरी फेसबुक वॉल मुझे इलाहाबाद के उस मोहल्ले जैसी लगी, जहां जून, 2000 की तपती गर्मी में लोग तिराहे पर मजलिस लगाए दुबेजी की लड़की की मर्डर के उपायों पर बढ़-बढ़कर ज्ञान दे रहे थे। इन 19 वर्षों में संसार बदल तो नहीं गई थी। जरूर इस दौरान भी लोग अपने दिलों में ऐसा सोचते रहे होंगे, लेकिन मुझे याद नहीं कि पिछले 10 वर्षों में मैंने कभी भी इतने बड़े पैमाने पर लोगों को लड़की को पेट में, घर के आंगन में व चौराहे पर सरेआम मार डालने की वकालत करते देखा हो। ऑनर किलिंग के समर्थक भी ऐसे खुलेआम नहीं बोलते थे कि लड़की को गंड़ासे से चीर दो। लेकिन साक्षी मिश्रा के लिए लोगों ने कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी।
वैसे तो हम दिन-रात नेताओं को गालियां देते हैं। हिंदी गोबर पट्टी के नेताओं की सच किससे छिपी है भला। यहां तो 40 बीघा जमीन भर पा जाए तो ऊंची जाति वाला कमर में कट्टा खोंसकर चलता है। पुलिस का छोटी सा दरोगा भी औकात पहले, नाम बाद में बताता है। सब ये जानते हैं व सब ये कहते हैं। लेकिन लड़की अगर बोल रही है कि उसकी जान को खतरा है, उसे वो लोग घर में पीटते थे, लड़का-लड़की में भेद करते थे, उसे नजरबंद करके रखते थे, कहीं आने-जाने नहीं देते थे तो कोई इस बात पर यकीन नहीं कर रहा। कर भी ले तो लड़की को ज्ञान दे रहा है कि कर ली न अपने मन से शादी। अब खुश रहो, अपने पिता को बदनाम क्यों कर रही हो।
मतलब सरेआम लोग लड़की को कैसे मारें के आइडियाज दे सकते हैं, लड़की को पेट में मार डालो का समर्थन कर सकते हैं, लेकिन लड़की नहीं बोल सकती कि उसके घरवालों ने उस पर अत्याचार किया। इस लड़की ने अगर अपना वीडियो न बनाया होता, टीवी चैनल पर न आई होती तो कहां मारकर फेंक दी जाती, किसी को पता भी नहीं चलता। न पुलिस पकड़ती, न सजा होती। कोई नहीं पूछता इसमें से, मिश्रा जी की बेटी कहां गई। सब खुश होते कि चलो इज्जत तो बच गई।
ये हमारे ही देश में होता है कि बेटी की मर्डर करने से नहीं जाती इज्जत, बेटी को पेट में मार देने से भी नहीं जाती, लेकिन बेटी अपनी मर्जी से दूसरी जाति में विवाह कर ले तो इज्जत चली जाती है। बाप बेटी के पीछे गुंडे भेज दे तो नहीं जाती इज्जत, बेटी सरेआम बोल दे कि बाप ने मेरे पीछे गुंडे भेजे तो इज्जत चली जाती है। बाप-भाई बेटी को अपने ही घर के आंगन में गाड़कर उस पर तुलसी उगाएं तो नहीं जाती इज्जत, लड़की अपनी जिंदगी का एक निर्णय खुद ले ले तो इज्जत चली जाती है। मां-बाप का खोजा पति मारे-कूटे, जला दे, सातवीं मंजिल से फेंक दे तो नहीं जाती इज्जत, लड़की अपनी मर्जी का लड़का खोज ले तो इज्जत चली जाती है। साक्षी की भाई की फेसबुक वॉल पर उसके दोस्त व तमाम लोग उसकी बहन को सरेआम गालियां दें तो नहीं जाती इज्जत। साक्षी बोल दे कि भाई ने मुझे मारा तो इज्जत चली जाती है।
दुबेजी अपनी लड़की को गंजा कर दें तो नहीं जाती इज्जत। लड़की अपने मन की जिंदगी चुन ले तो इज्जत चली जाती है।
पोस्ट स्क्रिप्ट: दस वर्ष बाद दुबेजी के परिवार से मेरी एक बार फिर मुलाकात हुई थी। वो लोग दूसरे मुहल्ले में रहने जा चुके थे व तब तक भागी हुई बेटी का घर में आना-जाना भी प्रारम्भ हो गया था। पांच बेटियों वाले उस घर में बाकी की चार बेटियों के लिए दुबेजी ने अपनी जाति में खुद वर ढूंढा था। एक आयु गुजरने के बाद बाकी चारों को समझ में आया कि सब बहनों में सबसे खुश वही थी, जिसने अपनी मर्जी की विवाह की थी। वो अपने पति से लड़ियाती भी थी, जबान भी लड़ाती थी व उसका कंधा पकड़कर लटक भी जाती थी। बाकी चारों पति की एक तेज आवाज पर डरी हुई चुहिया की तरह सरसराकर घर में भागती थीं। ये बात उनकी तीसरे नंबर की बहन ने मुझे छत पर अकेले में खुद बोली थी, “पता है, सबसे सुखी मीनू ही है। सही किया उसने।