शिवसेना (shiv sena) ने अपने मुखपत्र सामना (saamana) में उच्चतम न्यायालय (Supreme court) को आरटीआई (RTI) के दायरे में लाने वाले निर्णय को लेकर अपना समर्थन दिया है . संपादकीय में लिखा है कि यह ऐसा फैसला है जो दूरगामी परिणाम देने वाला होगा साथ है न्याय संस्था कि पारदर्शिता बढ़ेगी।
संपादकीय में बोला गया कि (CJI) का ऑफिस भी अब सूचना के अधिकार के भीतर आनेवाला है। मुख्य अर्थात मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के नेतृत्व में न्यायमूर्ति रामण्णा, न्यायमूर्ति डीवाय चंद्रचूड, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता व न्यायमूर्ति संजीव खन्ना की खंडपीठ ने यह जरूरी फैसला लिया है।
मुख्य न्यायाधीश का ऑफिस देश की सर्वोच्च न्याय संस्था कही जाती है। इस फैसला से यह ऑफिस भी सूचना का अधिकार कानून के भीतर आ गया है। यह फैसला देते समय खंडपीठ ने बोला कि मुख्य न्यायाधीश का ऑफिस सार्वजनिक है। इसके सूचना का अधिकार कानून के भीतर आने से न्यायालयीन कामकाज व लोकानुकूल होकर अधिक कार्यक्षम एवं पारदर्शी हो सकेगा।
अपनी बात रखते हुए खंडपीठ ने बोला कि सर्वोच्च कोर्ट को व्यवस्था से दूर नहीं किया जा सकता क्योंकि न्यायाधीश का पद संवैधानिक है व वे सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वहन ही करते रहते हैं। सर्वोच्च कोर्ट के इस निरीक्षण को जरूरी व व्यापक बोला जाना चाहिए। हालांकि मुख्य न्यायाधीश का ऑफिस सूचना का अधिकार के भीतर आता है, ऐसा निर्णय 2010 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने दिया था। लेकिन इस निर्णय को सर्वोच्च कोर्ट के प्रशासन ने ही चुनौती दी थी। अब अपनी ही अपील को ठुकराकर सर्वोच्च कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय को बरकरार रखा है।
मुख्य न्यायाधीश का ऑफिस इस निर्णय के बाद ‘सार्वजनिक’ हो गया है व सूचना अधिकार कानून की ‘परिधि’ में आ गया है, फिर भी खंडपीठ ने ‘प्रतिबंध’ के कुछ ‘दायरे’ तय कर दिए हैं। सूचना अधिकार कानून का दायरा इस फैसला से भले ही ब़ढ़ा हो लेकिन इसके बावजूद यह स्वतंत्रता ‘पूर्णरूपेण’ नहीं मिल पाएगी, इसका भी खयाल रखा गया है। ‘न्यायिक स्वतंत्रता का सम्मान रखना ही होगा’, अपने पै’सले में खंडपीठ ने ऐसा स्पष्ट किया है। इसलिए इस पै’सले से सूचना अधिकार का ‘दायरा’ भले बढ़ा हो, सर्वोच्च कोर्ट ने अपनी ‘झंझट’ अकारण न बढ़े, इसका भी कोशिश किया है। इसमें कुछ भी अनैतिक या गलत नहीं है।