चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (विक्रमी संवत 2078) तद्नुसार 13 अप्रैल 2021 को देश भर में बैसाखी का पर्व मनाया जायेगा। हिंदी कैलेंडर के अनुसार इस दिन को हमारे सौर नव वर्ष की शुरुआत के रूप में भी जाना जाता है। इस दिन लोग अनाज की पूजा करते हैं और फसल के कटकर घर आ जाने की खुशी में भगवान और प्रकृति को धन्यवाद भी करते हैं। देश के अलग-अलग जगहों पर इसे अलग नामों से मनाया जाता है-जैसे असम में बिहू, बंगाल में नबा वर्षा, केरल में पूरम विशु के नाम से लोग इसे मनाते हैं। हालांकि इस बार कोरोना की वजह से लोग अपने-अपने घरों में ही रहकर बैसाखी का पर्व मनाएंगे।
बैसाखी, दरअसल सिख धर्म की स्थापना और फसल पकने के प्रतीक के रूप में भी मनाई जाती है। इस महीने रबी फसल पूरी तरह से पक कर तैयार हो जाती है और पकी हुई फसल को काटने की शुरुआत भी हो जाती है। ऐसे में किसान खरीफ की फसल पकने की खुशी में यह त्योहार मनाते हैं। 13 अप्रैल 1699 के दिन सिख पंथ के 10वें गुरू श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी, इसके साथ ही इस दिन को एक पर्व के रूप में मनाना शुरू किया गया था। बैसाखी के दिन ही पंजाबी नए साल की शुरुआत भी होती है।
कैसे पड़ा बैसाखी नाम
बैसाखी के समय आकाश में विशाखा नक्षत्र होता है। विशाखा नक्षत्र पूर्णिमा में होने के कारण इस माह को बैसाखी कहते हैं। कुल मिलाकर, वैशाख माह के पहले दिन को बैसाखी कहा गया है। इस दिन सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, इसलिए इसे मेष संक्रांति भी कहा जाता है।
खालसा पंथ की स्थापना
13 अप्रैल 1699 को दसवें गुरु गोविंद सिंहजी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी. इसी दिन गुरु गोबिंद सिंह ने गुरुओं की वंशावली को समाप्त कर दिया. इसके बाद सिख धर्म के लोगों ने गुरु ग्रंथ साहिब को अपना मार्गदर्शक बनाया. बैसाखी के दिन ही सिख लोगों ने अपना सरनेम सिंह (शेर) को स्वीकार किया. दरअसल यह टाइटल गुरु गोबिंद सिंह के नाम से आया है.
हर साल 13 या 14 अप्रैल को ही क्यों मनाते हैं बैसाखी
बैसाखी त्यौहार अप्रैल माह में तब मनाया जाता है, जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। यह घटना हर साल 13 या 14 अप्रैल को ही होती है।
कृषि का उत्सव है बैसाखी
सूर्य की स्थिति परिवर्तन के कारण इस दिन के बाद धूप तेज होने लगती है और गर्मी शुरू हो जाती है. इन गर्म किरणों से रबी की फसल पक जाती है. इसलिए किसानों के लिए ये एक उत्सव की तरह है. इसके साथ ही यह दिन मौसम में बदलाव का प्रतीक माना जाता है. अप्रैल के महीने में सर्दी पूरी तरह से खत्म हो जाती है और गर्मी का मौसम शुरू हो जाता है. मौसम के कुदरती बदलाव के कारण भी इस त्योहार को मनाया जाता है.
सनातन धर्म और सिख धर्म
हिन्दू धर्म और सिख धर्म दोनों मूलतः भारत की धरती से निकले धर्म हैं। हिन्दू धर्म एक अति प्राचीन (अनादि) धर्म है जो कई हजार वर्षों के विकास का मार्ग तय करके आया है। सिख धर्म की स्थापना १५वीं शताब्दी में गुरु नानक ने की जब भारत पर मुगलों का शासन था।
दोनों धर्मों में बहुत सी बातें और दर्शन समान हैं, जैसे कर्म, धर्म, मुक्ति, माया, संसार आदि। जब मुगल काल में शासकों के तलवार के बल से हिन्दुओं को जबरन मुसलमान बनाया जा रहा था, उस समय सिख धर्म उनके इस अत्याचार के विरोध में खड़ा हुआ। गुरु नानक पहले महापुरुष थे जिन्होने बाबर के विरुद्ध आवाज उठायी थी। सिख धर्म अत्याचार के प्रतिकार, ईश्वर-भक्ति, और सबकी समानता का अनूठा संगम है। भारत में अंग्रेजों का शासन जड़ पकड़ने तक सिख धर्म को हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग माना जाता था।दसवें और अंतिम गुरु गोबिन्द सिंह जी कहते हैं कि “सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, जगे धर्म हिंदू सकल भंड भाजे।” गुरु ग्रंथ साहिब में भारत भर के 25 भक्त कवियों द्वारा लिखी गई बाणियां हैं, जिनमें से 15 गुरु नानक जी के समय के भक्तिमार्ग के कवियों की हैं।
हिन्दू धर्म और सिख धर्म को जोड़नेवाली कड़ी खत्री है। सिख धर्म प्रचारक गुरू नानक जी लाहौर जिले के तलबंडी (ननकाना साहिब) के वेदी खत्री थे। उनके उत्तराधिकारी गुरू अंगद टिहुन खत्री थे। हिन्दू और सिक्ख खत्रियों का संबंध तो पूरी तरह रोटी-बेटी का रहा है। दोनो का खान-पान, विवाह संस्कार और अन्य प्रथाएं भी एक जैसी रही हैं। एक समय में खत्री परिवार में पैदा होनेवाला पहला बालक संस्कार करके सिख बनाया जाता था। अरदास और भोग हिन्दु खत्रियों में भी समान रूप से प्रचलित था।
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