कर्नाटक विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। कांग्रेस को चुनाव में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है। पर पार्टी के लिए यह लड़ाई इतनी आसान नहीं है। पार्टी को जीत की दहलीज तक पहुंचने के लिए अपने वोट प्रतिशत में वृद्धि के ज्यादा से ज्यादा सीट जीतने की भी रणनीति बनानी होगी।
क्योंकि, वर्ष 2018 के चुनाव में वोट प्रतिशत में दो फीसदी के इजाफे के बावजूद पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले 44 सीट का नुकसान हुआ था।
पिछले करीब 20 वर्षों से कांग्रेस का वोट प्रतिशत 35 से 40 फीसदी के बीच रहा है। ऐसे में पार्टी के लिए परंपरागत मतों के अलावा वोट हासिल किए बगैर जादुई आंकड़ा हासिल करना आसान नहीं है। पार्टी की नजर दलित मतों पर है। क्योंकि, पिछले कुछ वर्षों में हुए चुनावों में दलित और आदिवासी मतदाताओं ने भाजपा का समर्थन किया है। कर्नाटक की 224 सीट में 36 सीट अनुसूचित जाति और 15 सीट एसटी के लिए आरक्षित हैं।
कर्नाटक में चुनावी समीकरणों में 17 फीसदी लिंगायत और 16 प्रतिशत वोक्कालिगा अहम भूमिका निभाते हैं। लिंगायत अमूमन भाजपा समर्थक माने जाते हैं। लिंगायत के सबसे बड़े नेता बीएस येदियुरप्पा है। पर येदियुरप्पा को हटाकर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाने से लिंगायत नाराज हैं। यही वजह है कि कांग्रेस येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाने को मुद्दा बनाकर भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है।
वर्ष 2013 के चुनाव में कांग्रेस को बीएस येदियुरप्पा के भाजपा से अलग होने का फायदा मिला था। पार्टी इन चुनाव में 36 फीसदी वोट के साथ 122 सीट जीतने में सफल रही थी। क्योंकि, येदियुरप्पा के अलग होने पर भाजपा का वोट प्रतिशत गिरकर सिर्फ 20 प्रतिशत रह गया था। इसलिए, पार्टी लिंगायत मतदाताओं को भरोसा जीतने की कोशिश कर रही है। पार्टी नेता राहुल गांधी मुरुगा मठ के महंत से लिंगायत संप्रदाय की दीक्षा ले चुके हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का ताल्लुक कर्नाटक से है। प्रदेश में करीब 20 फीसदी दलित हैं। ऐसे में पार्टी को भरोसा है कि खडगे का गृह प्रदेश होने की वजह से दलित और आदिवासी मतदाता कांग्रेस को वोट करेंगे। हालांकि, प्रदेश में दलित दो हिस्से वाम और दक्षिणपंथी दलित में बंटा है। खड़गे दलितों से दक्षिणपंथ से ताल्लुक रखते हैं। जबकि दलितों में वाम दलितों की संख्या अधिक है। ऐसे में पार्टी को उन्हें साथ रखना होगा।