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फेसबुक : स्थापित लेखक, फेसबुकिया लेखक बनाम पाठक

सनद रहे! जब कभी भी हम अपने से कमजोर लेखक की रचना पर अपना विचार देकर कहते हैं कि यह एक पाठक की टिप्पणी है। वास्तव में ऐसा होता नहीं हैं, आप और हम उसकी रचना को अपनी लेखन की कसौटी पर ही कसते हैं। इसलिए जो लिखी गई है चाहे वो जितनी भी कमजोर हो बतौर लेखक/लेखिका उसे कूड़ा कहना सर्वथा गलत है….. 

अमित कुमार, ‘आमिली’

क्षेत्र कोई भी हो आदर्श स्थिति की बस कल्पना ही की जा सकती है। आदर्श स्थिति कभी आती ही नहीं है, इसलिए आदर्श के चरम बिन्दु हमेशा हम सभी को अपनी तरफ आकर्षित करते रहते हैं, लेकिन चरम बिन्दु तक पहुँचना शायद नामुमकिन ही होता है। एक बात आजकल बहुत जोर देकर फिक्र से कही जा रही है कि अब कोई पाठक ही नहीं रहा, सभी लेखक हो गए हैं। अगर ऐसा है भी कि पाठक भी लेखक बनना चाहते हैं, चाहे वो फेसबुकिया ही सही, इसमें मेरी दृष्टि में कुछ भी गलत नहीं है, इससे तो साहित्य का विस्तार ही होगा।

कई बार हमे अपने खुद के गुण के बारे में जानकारी नहीं होती है। ऐसी कोशिशें पाठकों में से भी कुछ को लेखक/लेखिका बनने का मौका देती है। फेसबुक एक सोशल मीडिया है। जहाँ हम अपनी वाॅल पर अपनी भावना और मानसिक विचार अभिव्यक्त करते हैं। तभी फेसबुक खुलते ही पूछता है “What’s on your mind?”

फेसबुक सिर्फ लेखक/लेखिकाओं के लिए बनाया गया ऐप या पटल नहीं है। स्थापित लेखक, फेसबुकिया लेखक या मुझ जैसे कई तथाकथित लेखक अपने फायदे के लिए फेसबुक का इस्तेमाल करते हैं। जहाँ तक वाह-वाह या आह का प्रश्न है, प्रत्येक कहानी कविता या अन्य रचनाओं पर हम अपनी व्यक्तिगत राय दे सकते हैं और फेसबुक मित्र होने के नाते रचना पर अपना सुझाव भी देते हैं, खारिज करने का हक सिर्फ और सिर्फ पाठक का ही है।

सनद रहे! जब कभी भी हम अपने से कमजोर लेखक की रचना पर अपना विचार देकर कहते हैं कि यह एक पाठक की टिप्पणी है। वास्तव में ऐसा होता नहीं हैं, आप और हम उसकी रचना को अपनी लेखन की कसौटी पर ही कसते हैं। इसलिए जो लिखी गई है चाहे वो जितनी भी कमजोर हो बतौर लेखक/लेखिका उसे कूड़ा कहना सर्वथा गलत है क्योंकि किसी भी रचनाकार की कलम से निकली हर रचना अद्वैत नहीं हो सकती है। लेकिन जो कुछ भी फेसबुक पर एक रचना के तौर पर लिखा गया है वह कितना स्तरीय है, इसका फैसला करेगा कौन?

फेसबुक में मिलने वाले लाईक्स?, टिप्पणी की संख्या? या फिर उनकी रचनाओं को प्रकाशित करने वाले देश की कुछ स्थापित पत्रिकाएं या फिर अगर रचनाओं को पुस्तक का आकार दिया गया है तो उसके विक्रय की संख्या या फिर कुछ स्थापित पुरस्कार? बिल्कुल नहीं, यह अधिकार सिर्फ और सिर्फ काल का है।

क्योंकि क्या आज कोई ताल ठोक कर कह सकता है कि पुस्तक विक्रय की संख्या बढाने हेतु प्रकाशक एवं रचनाकार कोई सेल्स के हथकंडे नहीं अपनाते या फिर स्थापित पुरस्कार बेहद इमानदारी से प्रदान किया जाता है या फिर स्थापित पत्रिकाओं में रचनाएं लिंक से हर्गिज नहीं छपती हैं। लेकिन अगर यह सब जायज है तो कुछ नवोदित अगर साधारण समाचार पत्र और पत्रिकाओं में अपनी रचना प्रकाशन को भेज रहे हैं और साधारण पत्र पत्रिकाएं नवोदितों की तुलनात्मक कमजोर रचनाओं का भी प्रकाशन कर उनका उत्साह बढ़ा रही हैं या यूँ कहें कि उन्हें सीखने का मौका दे रही है तो इसमे किसी स्थापित रचनाकारों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, अपितु खुश होना चाहिए क्योंकि साहित्य की नयी पौध यहीं से तैयार होगी। फिर यह निश्चित रूप से समय तय करेगा कि किसका लिखना कितना सार्थक हो पाया।

स्थापित लेखकों के लिए देश की बड़ी पत्र पत्रिकाएं राह देख रही हैं। फेसबुक पर लिखने वाले लेखकों का भी यही सपना हो सकता है कि वे भी प्रसिद्ध एवं स्थापित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हों और फिर साहित्य तो सफर है जहाँ हम धीरे-धीरे सीखते लिखते आगे बढते हैं। ऐसे में फेसबुकिया लेखक अपनी कलम की ढक्कन सिर्फ इसलिए तो बंद नहीं कर सकते हैं कि उनकी रचनाएं बासी है या उनमें कुछ वर्तनी दोष हैं।

वर्तनी दोष से न ही विचार मरते है न भावना, हाँ ! लिखते-लिखते खुद में सुधार करना एक सकारात्मक प्रक्रिया जरूर होती है। ऐसी प्रक्रिया से गुजरते हुए ही एक फेसबुकिया लेखक, स्थपित लेखक बनने का ख्वाब पूरा कर सकते हैं और कल फेसबुक पर लिखने वाले लेखक/लेखिका भी स्थापित लोगों में शुमार हो जाए तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। आज भी ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिनकी शुरूआत तो फेसबुक से हुई थी, लेकिन आज वे साहित्य के प्रतिष्ठित नाम में शुमार हैं।

 

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