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हिजाब बनाम बिन्दी-सिंदूर नहीं, रूढ़िवादी विचारों के ख़िलाफ़ हो बहस

         अजय कुमार, लखनऊ

हिजाब की तुलना बिंदी-चूड़ी-पगड़ी से करना कुतर्क के अलावा कुछ नहीं है। यदि तुलना करना ही है तो इस बात की जाए कि मुस्लिम समाज की महिलाएँ शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ती क्यों जा रही हैं? जब पूरी दुनिया में मुसलमान अन्य कौमों के साथ रूढ़िवादी रवायतों को छोड़कर आगे बढ़ रहे हैं, तब हिन्दुस्तानी मुस्लिम महिलाएँ  हिजाब के लिए पढ़ाई-लिखाई छोड़ने तक की बात क्यों कर रही हैं? हिजाब की जगह मुस्लिम महिलाएँ अगर हलाला, बहु-विवाह प्रथा जैसी कुरीतियों के ख़िलाफ़ आगे आकर आँदोलन चलातीं, तो यह मुस्लिम समाज और महिलाओं के लिए बेहतर भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होता। मुस्लिम समाज को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि क्यों पूरी दुनिया में आतंकवादी उन्हीं के बीच से निकलते हैं?

गैर मुस्लिमों, उसमें भी हिंदुओं में, आतंकवादी, जिहादी, देशद्रोही, संविधान विरोधी, दंगाई, गैर हिंदुओं को काफ़िर मानने वाले क्यों कहीं नहीं दिखाई देते हैं? हिंदू लोग अपने धर्म ग्रंथों की आड़ में देशद्रोही ताक़तों के हाथ का खिलौना क्यों नहीं बनते हैं? विदेशों मे देश के ख़िलाफ़ propoganda क्यों नहीं करते हैं? हिन्दुस्तानी मुसलमानों के बीच से ही ऐसे लोग क्यों निकलते हैं जो अपने ही देश के ख़िलाफ़ मुसलमानों पर अत्याचार की कहानी गढ़ के संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) को चिट्ठी लिखते हैं? जबकि, पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं के साथ कैसा सलूक होता है, इस पर देश के मुसलमान और उसमें भी मुस्लिम बुद्धिजीवी अपनी जुबान नहीं खोलते हैं। आश्चर्य तब होता है, जब इंसटेंट तीन तलाक (एक बार में तीन तलाक) के ख़िलाफ़ मोदी सरकार कानून बनाती है, तो उसके विरोध में भी मुस्लिम महिलाएं सड़कों पर बैठ जाती हैं। हलाला जैसी कुरीतियों के पक्ष में खड़ी नजर आती हैं।

दरअसल, हिजाब का धर्म से कोई लेना देना नहीं है, बल्कि ये मानसिकता दर्शाता है कि मुस्लिम मर्दों को अपनी औरतों बच्चियों पर विश्वास नहीं है। इसलिए, वह कुरान की आड़ में उन पर तरह-तरह की पाबंदियाँ लगाते रहते हैं और शान के साथ यह भी बताते हैं कि हिजाब के बिना मुस्लिम महिलाएं असुरक्षित हो जाएँगी। हिजाब से बड़ा मुद्दा तो धर्मांतरण का है। जिस तरह से हिंदू लड़कियों को लव जिहाद में फंसाया जाता है, वह न केवल शर्मनाक, बल्कि देश के लिए बड़ा ख़तरा है। इस पर न गीतकार जावेद अख्तर, न पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी, नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी, न आमिर खान और न ही शबाना आजमी जैसे कथित उदारवादी मुस्लिम चेहरे जब कुछ नहीं बोलते हैं, तो फिर मुल्ला-मौलानाओं से तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि वह इस पर कुछ बोलेंगे। क्योंकि लव जेहाद की जड़ में मुल्ला-मौलानाओं का ही दिमाग चलता है।

यह अफ़सोसजनक है कि जब ईरान जैसे कट्टर मुस्लिम देश में महिलाएं बुर्के के खिलाफ और शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही हैं। सऊदी अरब में महिलाएं आधुनिकता की ओर बढ़ रही हैं, वहीं भारतीय मुस्लिम लड़कियाँ हिजाब के लिए आपे से बाहर होती जा रही हैं। हिजाब का समर्थन वह बुद्धिजीवी भी कर रहे हैं, जो अफगानिस्तान में बुर्का न पहनने वाली स्त्रियों के कोड़े मारने वाले तालिबानियों को कोसते हैं। जब से हिजाब चर्चा में आया है, तब से हिजाब की बिक्री बढ़ गई है। अचानक ही सड़कों पर हिजाब पहन कर घूमने वाली लड़कियों औरतों की संख्या बढ़ गई है।

अफ़सोसजनक है कि कुछ बड़े मुस्लिम चेहरे और धर्मगुरू ऐसे भी हैं, जो अपनी बच्चियों को तो देश-विदेश में बिना हिजाब लगाए शिक्षा दिला रहे हैं, लेकिन आम मुसलमान की लड़कियों के बारे में कह रहे हैं कि पढ़ाई से ज़रूरी हिजाब हैं। ओवैसी इसक सबसे बड़े उदाहरण हैं। कर्नाटक में कुछ छात्राएं हिजाब पहनकर पढ़ाई करने पर आमादा हुईं, तो इसकी तपिश उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिलने लगी है। गौरतलब हो, कर्नाटक के उडुपी जिले के एक सरकारी कालेज में इस विवाद ने तब तूल पकड़ा, जब इसी दिसंबर की शुरुआत में छह छात्राएं हिजाब पहनकर कक्षा में पहुंच गईं। इसके पहले वे कालेज परिसर में तो हिजाब पहनती थीं, लेकिन कक्षाओं में नहीं।

आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे अध्ययन कक्ष में हिजाब पहनकर जाने लगीं? इस सवाल की तह तक जाने की ज़रूरत इसलिए है, क्योंकि एक तो यह विवाद देश के दूसरे हिस्सों को भी अपनी चपेट में लेता दिख रहा है और दूसरे, इसके पीछे संदिग्ध पृष्ठभूमि वाले कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया का हाथ दिख रहा है। यह पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया की छात्र शाखा है। यह फ्रंट किसान आंदोलन और CAA के दौरान दिल्ली में हुए दंगे के समय भी काफी एक्टिव नज़र आया था।सुनियोजित तरीक़े से दिल्ली दंगा तब कराया गया था, जब अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प भारत के दौरे पर थे। माना जाता है कि यह फ्रंट प्रतिबंधित किए जा चुके मुस्लिम छात्र संगठन SIMI का नया अवतार है।

हिजाब समर्थकों की तरफ़ से सुनियोजित तरीके से इस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है, मानो पूरे हिन्दुस्तान में मुस्लिम महिलाओं को हिजाब नहीं पहनने दिया जा रहा है। यह सब मोदी विरोधी के चलते भी हो रहा है क्योंकि जब से मोदी ने सत्ता संभाली है तब से उग्रवादी मुस्लिम संगठनों की दाल नहीं गल पा रही है। विदेश से आने वाली मुस्लिम फंडिंग पर भी मोदी सरकार ने शिकंजा कस रखा है। कश्मीर से धारा 370 खत्म किए जाने की वजह से भी मोदी देश-विदेश के कट्टर मुस्लिमों के निशाने पर हैं। इसी लिए मोदी सरकार को कमजोर करने के लिए समय-समय पर कोई न कोई मुद्दा मुस्लिम संगठनों की ओर से  उठाया जाता रहता है। यह सिलसिला ख़त्म होने वाला नहीं है। मोदी सरकार को इन्हीं दुश्वारियों के बीच सरकार चलानी होगी।

यह सच है कि किसी को भी अपनी पसंद के परिधान पहनने की पूरी आजादी है, लेकिन इसकी अपनी कुछ सीमाएं हैं। हमारी आज़ादी तब खत्म हो जाती है, जब इस आजादी से दूसरे को परेशानी होने लगती है। फिर शैक्षिक संस्थाओं का तो ड्रेस कोड होता है, जो सबके लिए अनिवार्य होता है। स्कूल-कालेज में विद्यार्थी मनचाहे कपड़े पहनकर नहीं जा सकते। इसका एक बड़ा कारण छात्र-छात्रओं में समानता का बोध कराना भी होता है। ताकि, जब यह समाज में आगे बढ़ें तो इन्हें कोई दिक्कत नहीं आए। दुर्भाग्यपूर्ण केवल यह नहीं कि जब दुनिया भर में लड़कियों-महिलाओं को पर्दे में रखने वाले परिधानों का करीब-करीब परित्याग किया जा चुका है और इसी क्रम में अपने देश में घूंघट का चलन खत्म होने को है, तब कर्नाटक में मुस्लिम छात्राएं हिजाब पहनने की ज़िद कर रही हैं। यह न केवल कूप-मंडूकता और एक क़िस्म की धर्मांधता है, बल्कि स्त्री स्वतंत्रता में बाधक उन कुरीतियों से ख़ुद को जकड़े रखने की सनक भी है, जिनका मक़सद ही महिलाओं को दोयम दर्ज़े का साबित करना है। समय की माँग है कि हिन्दू समाज के लोग जैसे सती प्रथा और घूंघट प्रथा जैसी कुरीतियों के ख़िलाफ के और विधवा विवाह के पक्ष में लामबंद हुए थे, वैसे ही मुस्लिम समाज भी अपने बीच की कुरीतियों से मुक्ति पाने के लिए आगे आए।

कुल मिलाकर कभी CAA  के विरोध में, कभी रोहिंग्या मुसलमानों को देश से बाहर निकालने के ख़िलाफ़, कभी आतंकवादियों को फांसी देने के विरोध में, कभी पाकिस्तान के पर सर्जिकल स्ट्राइक के विरोध में खड़े होने वालों से और  कोर्ट का आदेश ना मानने वालों, जिस पार्टी को हिंदू वोट करते हों उसे कभी वोट ना देने की कसम खाने वालों, और अब हिज़ाब के नाम पर बखेड़ा खड़े करने वालों, हिंदुस्तान में गजवा-ए-हिंद का सपना पालने वालों से कभी भी देश प्रेम या सौहार्द की उम्मीद नहीं की जा सकती है। भले ही ऐसी अराजक शक्तियाँ बहुत सीमित हों, लेकिन सबसे दुखद यह है कि इन शक्तियों का मुस्लिम बुद्धिजीवी और मुल्ला-मौलाना मुख़ालफ़त  करने से बचते रहते हैं।

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