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अविधवा नवमी को होता है यह श्राद्ध, जानिए कैसे…

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष तक के पंद्रह दिन पितृपक्ष या श्राद्धपक्ष के नाम से जाने जाते हैं। इन दिनों में लोग अपने पूर्वजों को याद करते हुए उनका तर्पण और श्राद्ध करते हैं। पितरों की मुत्यु तिथि को किए गए श्राद्ध को पार्वण श्राद्ध कहा जाता है। पितरों की मृत्यु तिथि को किए गए श्राद्धकर्म को पितृकर्म कहा जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि- ।। श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ ।।

जो श्रद्धा से किया जाय, वही श्राद्ध है। अर्थात प्रेत और पितृ के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए जो कुछ भी क्रियाकर्म श्रद्धापूर्वक किए जाएं वह श्राद्ध है। सनातन संस्कृति में अपने वरिष्ठों खासकर माता-पिता की सेवा का खास महत्व बताया गया है। उनकी मृत्यु के उपरांत भी उनके प्रति मान-सम्मान बना रहे, वो यादों में रहे इसलिए शास्त्रों में पितृपक्ष का प्रावधान रखा गया है। हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता बतलाई गई है। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक पितृ पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं।

इस तिथि को होता है अविधवा श्राद्ध
पितृपक्ष के दौरान प्रतिपदा से लेकर सर्वपितृमोक्ष अमावस्या तक विभिन्न तिथियों को परिजनों के श्राद्ध का प्रावधान है। इसके तहत पितृपक्ष की नवमी तिथि को सुहागन स्त्रियों का श्राद्ध किया जाता है। यानी विधवा स्त्रियों का श्राद्ध इस दिन नहीं किया जाता है। यह भी मान्यता है कि यदि किसी स्त्री का देहांत हो चुका हो और उसका पुत्र न हो, या पुत्र का भी देहांत हो चुका हो तो इस स्थिति मे उसके बच्चे अविधवा नवमी का श्राद्ध न करें।

यदि सौतेली मां जीवित हो और सगी मां का निधन हो जाए तो पुत्र को इस श्राद्ध करना चाहिए। सगी मां जीवित हो और सौतेली मां का निधन हो जाए तो भी पुत्र को इस श्राद्ध को करना चाहिए। जिस स्त्री का देहांत हो चुका है और उसको पुत्र नहीं है तो अविधवा नवमी पर उसका श्राद्ध पुत्री या दामाद नहीं कर सकते हैं। यदि एक से अधिक माता का देहांत सधवा स्थिति में हुआ हो तो उन माताओं का श्राद्ध अविधवा नवमी को एकतंत्रीय पद्धति से करने का शास्त्रों में प्रावधान है। इस दिन भोजन के लिए उतनी ही संख्या में सुहागन महिलाओं को आमंत्रित करें।

सुहागन को दे सोलह श्रंगार की सामग्री
इस दिन श्राद्ध के लिए किसी सुहागन स्त्री को भोजन के लिए आमंत्रित करें और उसको भोजन के बाद सोलह श्रंगार की सामग्री दान करें, यथोचित दक्षिणा देने के बाद उनका आशीर्वाद लें और उसके बाद उनको विदा करें। यदि भोजन का सामर्थ्य नहीं है तो धूप लगाकर सीदा दान करने का भी प्रावधान है।

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