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हर एक कृति और लेखक की अपनी खूबी, इस दृष्टिकोण से “मानक” का निर्धारण करना काफी कठिन- प्रो रवींद्र प्रताप सिंह

लखनऊ साहित्य महोत्सव मेटाफर में दोपहर का समय “सो वॉफ्ट्स अ थीम” शीर्षक सत्र रुचिकर मानवीय मूल्यों, संवेदनाओं, और भावनाओं को उजागर करते हुए प्रो रवींद्र प्रताप सिंह के नाटकों और कविताओं के नाम रहा। प्रो रवींद्र प्रताप सिंह ने अपने साहित्य के रूपकों और उसके निर्माण की प्रक्रिया पर चर्चा करते हुए बताया की साहित्य न निर्वात में जन्मता है और न पनपता है ,यह जीवन की ऊबड़ खाबड़ ,सुंदर ,समतल राहों पर चलते रहने का अनुभव संग्रह है , जीवन को गतिशील रखने का पाथेय है और भविष्य के प्रति एक दृष्टि भी। लेखक अपने कृतित्व की उर्वर भूमि का संचालक होता है जहां वह मानवीय दृष्टि से अपनी सर्जना करता है।

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साहित्य वर्तमान वैश्विक परिवेश में सांस्कृतिक राजनय का एक का अचूक अंग है, जिसके माध्यम से हम विश्व को रोचक और खुशहाल बना सकते हैं। श्रोताओं के साथ अपने रोचक संवादो द्वारा प्रो आरपी सिंह ने अपनी साहित्य यात्रा का सम्यक विश्लेषण प्रस्तुत किया श्रोताओं के मन में अनेक विचारों और कहानियों की जीवन्त करते हुए नंदिनी जोमुक के सवालों के माध्यम से उन्होंने सामाजिक, आर्थिक ,शैक्षणिक, दार्शनिक, देशी और विदेशी परिवेशों की बखूबी समीक्षा की।

प्रो सिंह ने बताया कि सृजनात्मक साहित्य के अनेक रंग हैं जिसे उन्होंने अपने नाटकों एवम कविताओं के माध्यम से जिया है। उन्होंने अपने पुरस्कृत नाटक”शेक्सपियर की सात रातें” में जहां अकादमिक परिवेश को छुआ है, वहीं “द फली मार्केट” के माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और उद्योग, मनोरंजन इत्यादि टिप्पणी किया है। प्रो सिंह ने बताया की साहित्य उनके जीवन का अभिन्न अंग है, और उनकी जीवन शक्ति। जीवनके अनेक सुलझे अनसुलझे पहलू ,जो कभी सामान्य संचार में व्यक्त नही हो पाते ,साहित्य के संदर्भों और रूपकों के माध्यम से काफी सशक्त ढंग से चित्रित होते हैं।

उन्होंने आज के नई पीढ़ी को समाज और राष्ट्र की शक्ति बताते हुए भारतीय साहित्य में हो रहे प्रयोगों को वैश्विक संदर्भों में भी व्याख्या किया। उन्होंने बताया की रचनात्मकता के लिए कोई समय या क्षण निर्धारित नही होता, सृजनात्मकता अपना रास्ता खुद अख्तियार कर लेती हैं और जब सृजन के भाव आते हैं तो व्यक्ति स्वयं ही प्रेरित हो जाता है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में क्रिएटिव होना हर पेशेवर के उतना ही जरूरी है जितना उसका अपने व्यवसाय का ज्ञान होना।

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रवींद्र प्रताप सिंह ने कहा कि हरेक कृति और लेखक की अपनी खूबी होती है और इस दृष्टिकोण से “मानक” का निर्धारण करना काफी कठिन है। नए साहित्यकारों को बेबाक रूप से निडर भाव से अपना संचार करना चाहिए, आलोचना ही आगे चलकर समालोचना बनती है। आरंभ में एकांगी आलोचनाओं से न जाने कितने लेखक अपनी लेखनी को यूं ही विराम दे देते हैं। सतत लेखन अपनी दिशा और दृष्टि का निर्धारण स्वयं कर लेता है ।

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