किसी युग-काल के नायक रहे व्यक्तित्व के जीवन में घटित कर्म के पहलू सुख-दुख, पाप-पुण्य, धर्म-नियति, श्राप-वरदान ओर उनके पुरुषार्थ तथा उसकी कृपा के साक्ष्य, उस काल के नायक-खलनायक के व्यक्तित्व-कृतित्व के करणीय-अनुकरणीय चरित्र का सृजन करते है। ऐसे महान व्यक्तित्व के जीवन चरित्र की कथायेँ अनगिनत पीढ़ियों से चली आने की परंपरा भी समाज में है तो दूसरी ओर उनके जीवन की यथार्थ गाथायेँ ऋषि मुनियों के ग्रन्थों में प्रामाणिकता के साथ मिलती है लेकिन हम ही है जो समयाभाव के अभाव में रामचरित्र मानस, श्रीमदवाल्मीकि रामायण जैसे पवित्र ग्रन्थों की महानता तो स्वीकार कर लेते है लेकिन इनकी गहराई में छिपे काल ओर क्षैत्र के इन महानायकों के विराट-विपुल व्यक्तित्व के जीवन गाथा का पता लगाने में सदियों पीछे रह जाते है।
बहुत से बुजुर्ग पारिवारिक हिंसा के शिकार हैं!
दसानन रावण ओर राजा सहस्त्रार्जुन (Sahastrarjuna) के नाम से यह समाज भलीभाँति परिचित है किन्तु जहा राजा सहस्त्रार्जुन के आलोकिक दिव्यता का विशाल परिमाप को कुछेक वर्ग ने उनके व्यक्तित्व से उनकी पहचान स्थापित करने के लिए उन्हे अधिग्रहित कर उनके साथ अन्याय किया है वही पर उनके अतुलित बल प्रदर्शन से किए गए असंभव कार्यों पर दृष्टि नही डाली है। ऐसे ही हैहय वंश में माहिष्मति नगरी के राजा; सप्त द्वीपेश्वर, सातों महाद्वीपों के राजा होने के कारण; दशग्रीव जयी, रावण को हराने के कारण और राजराजेश्वर, राजाओं के राजा होने के कारण सहस्रबाहु अर्जुन, सहस्रबाहु कार्तवीर्य या सहस्रार्जुन नाम से विख्यात महावली द्वारा नर्मदा के विशाल वेग को अपनी भुजाओ से रोकने का उल्लेख आदिकवि वाल्मीकि जी द्वारा किया जाना ओर उस पौराणिक कथा को अगस्त मुनि के द्वारा भगवान श्रीराम जैसे श्रोता का सुनना अपने आप में अद्वितीय है।
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में नदियों में श्रेष्ठ नदी, नर्मदा को पवित्र नदी माना है जो इस धरती पर नदी संस्कृतियो को जन्म देने वाली ओर विंध्यपर्वत से बहती पश्चिम समुद्र में गिरती है। एक समय लंकापति रावण अपने मद में चूर्ण धरती के राजाओ को परास्त करते हुये स्वर्ग के सामान दिखने वाली माहिष्मती नगरी (वर्तमान नाम महेश्वर मध्यप्रदेश) पहुचा जहा हैहय वंश के राजा सहस्त्रार्जुन, जिनकी एक हजार भुजा होने से उंनका दूसरा नाम कार्तवीर्य अर्जुन व सहस्त्रबाहु अर्जुन भी था जो उस समय अपनी रानियो के साथ नर्मदा में जलक्रीडा कर रहे थे। रावण माहिष्मती नगरी में आकार बोला- “कहा है यहा का राजा सहस्त्रबाहु” उसको सूचित करो कि मैं रावण हूँ ओर युद्ध की लालसा लेकर युद्ध करने आया हूँ।
राजा के मंत्रियो ने रावण को कहा कि हमारे राजा इस समय राजधानी में नहीं है, जबाब सुनकर रावण वहाँ से चला गया। रावण के पराक्रम का वर्णन अगस्तमुनि ने अयोध्यापति श्रीराम को सुनाया जिसे महर्षि वाल्मीकि ने उत्तरकाण्ड के इकतीसवे व बत्तीसवे सर्ग में रहस्योदघाटन किया है कि सहस्त्रार्जुन ने अपने भुजबल से नर्मदा के प्रवाह को रोक दिया था, जिससे जल पीछे कि ओर लौटने लगा जहा रावण नर्मदा के शीतल जल में स्नान कर नर्मदा तट की रेती पर शिव पूजा करने जा रहा था ओर तब उसकी पुजा सामग्री नर्मदा के उल्टे प्रवाहित जल में बह गई तो वह क्रुद्ध हो गया ओर सहस्त्रार्जुन से युद्ध करने चल पड़ा।
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महर्षि वाल्मीकि ने दसानन रावण के द्वारा नर्मदा के पावन जल में स्नान करने ओर नर्मदा कि प्रशंसा का विस्तार से उल्लेख किया है। रावण ने नर्मदा स्नान ओर पुजा से पहले ही राजा सहस्त्रार्जुन को युद्ध की चुनौती दी थी लेकिन उनके न मिलने से रावण लौट गया था। युद्ध से खाली लौटे रावण ने अपने पुष्पक विमान से नीचे पावन नर्मदा को देखा जो दसानन को विंध्याचल पर्वत के स्फटिक के समान चमकने वाली सेकड़ों श्वेत रंग के झरने से अट्ठहास करने वाली पर्वतश्रेर्णिओ के बीच अन्य नदियों के प्रवाहित दिशा के विपरीत पूर्वदिशा से पश्चिमदिशा की ओर प्रवाहित दिखी। पापमोक्षदायिनी नर्मदा के शीतल जल ने रावण का मनमोह लिया ओर उसका मन नर्मदा स्नान करने को लालायित हुआ। महर्षि वाल्मीकि ने श्रीमदवाल्मीक रामायण के उत्तरकाण्ड पूर्वार्द्ध के एकत्रिंशः सर्गः में इसका सुंदर चित्रण किया है कि…
फुल्लद्रुमकृतोंत्त्सा चक्रवाक युगस्तनीस। विस्तीर्णपुलिनश्रोणी हंसावलि सुमेखलाभ॥22॥
पुष्परेणवनु लिप्तांगी जलफेनामलांशुकाम। जलावगाहसुस्पशार्न फुल्लोत्पलशुभेक्षणाम॥23॥
अर्थात- मनमोहने वाली नर्मदा ने मानों सुंदरी कामिनी कि तरह कांति धारण कर ली हो ओर वहाँ पुष्पित वृक्ष नर्मदा के सुंदरतम आभूषण से लगे ओर चक्रवाक उसके कुच, विशालतट उसके नितंब ओर हंसपंक्ति उसकी करधनी जैसी शोभायमन हो रही थी। पुष्पपराग उसका अंगरास,जलफ़ेन उसका सफ़ेद पट, स्नान सुख नर्मदा का स्पर्शसुख ओर पुष्पित कमल ही मानो नर्मदा के नेत्र हो।
पुष्पकादंववरुहांशु नर्मदाम सरिताम वराम। इष्टामित्र वराम नारीमवगाहदशाननरू॥24॥
नर्मदा के मनोरम दृश्य देखकर रावण तुरंत पुष्पक से उतर गया ओर उत्तमा प्रियतमा किसी स्त्री कि तरह नदियों में श्रेष्ठ नर्मदा में स्नान के लिए मंत्रियो सहित मुनिसेवित नर्मदा के तट पर बैठ गया। इससे स्वमेव सिद्ध है कि नर्मदा शुरू से ही साधकों के लिए साधना का साक्षात स्वरूप ओर लोक संस्कृति की अधिष्ठात्री रही जो सभी को अपने तपोभूमि पर तृप्त करती आई है। कपिल धारा जलप्रपात के के कुछ आगे दूधधारा जलप्रपात स्थल को दुर्वासा ऋषि की तपोभूमि माना है जहा गुफा में ऋषियों द्वारा तपस्या की जाती रही है।
वाल्मीक रामायण में कई आलोकिक,अद्भुत प्रसंगों का आधिक्यतामयी वर्णन मिलता है जिसमें पुण्य सलिला माँ नर्मदा के जल की पावनता को लेकर गहन अंतर्दृष्टि का विवेचन रावण द्वारा करना सुखद जान पड़ता है।
प्रख्याय नर्मदान सोहय गंगेयमिति रावणः। नर्मदा दर्शने हर्षमाप्तवान्स दसाननरू॥26॥
नर्मदा के पावन जल में स्नान करने के बाद रावण ने नर्मदा को गंगा की तरह पवित्र मोक्षदायिनी बतलाकर नर्मदा के निसर्ग सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुये नहीं आघाया ओर स्वीकार किया कि नर्मदा के दर्शन से उसको बहुत हर्ष हुआ है। नर्मदा स्नान के बाद रावण अपने महावली मंत्रियो प्रहस्त,महोदर, धुरमाक्ष, मारीच,सारण ओर शुक से बोला कि मुझसे भयभीत होकर पवनदेव नर्मदा के जल से स्पर्श कराकर शीतल सुगंधयुक्त वायु प्रवाहित कर मेरी थकावट दूर कर रहा है। नर्मदा के प्रवाह कि ओर देखकर रावण कहता है कि मगरमच्छ ओर पक्षियो से युक्त यह मनोहारिणी नर्मदा, तरंगों से व्याप्त होने पर भी डरी हुई ललना के सामान दिखाई दे रही है। अनेक राजाओ से युद्ध के बाद तुम सभी के शरीर में रक्त लिपटा है तुम सब सुखदायिनी ओर कल्याणकारी नर्मदा के पावन जल में स्नान कर अपने पापों को बहा दो। तब तक मैं इस शारदीय ज्योत्स्ना के समान स्वर्णमयी प्रभा बिखेर रही रेती पर कपर्दी महादेवी की पूजा के पुष्प ओर भेंट सजाता हूँ।
रावण के सभी महावलियों ने स्नान के बाद नर्मदा की रेती पर पुष्प का अम्बार लगा दिया जो किसी पहाड़ से कम नजर नही आ रहा था। पुष्प का अम्बार लगते ही रावण नर्मदा में स्नान करने ऐसे उतरा जैसे कोई मस्त हाथी उतरता है। नर्मदा स्नान के बाद जल में ही रावण ने जपने योग्य उत्तम मंत्रोच्चार कर बाहर आया ओर गीले वस्त्रों को उतार कर सफ़ेद वस्त्र धारण कर पूजा के लिए स्थान निश्चिंत करने के लिए रावण ने हाथ जोड़े ओर पूजा के लिए स्वर्ण निर्मित शिवलिंग जो वे साथ रखते थे, उस शिवलिंग को नर्मदा कि रेती की वेदी बनाकर उस वेदी पर प्रतिष्ठित किया ओर स्थापित भक्तजनों के कष्ट हरने वाले, वरदानी, चंद्रभूषण श्री महादेव जी की सभी प्रकार से पूजा कर रावण शिवलिंग के समक्ष नर्मदा तट पर नाचने लगा।
उसी समय राजा सहस्त्रार्जुन अपनी अनेक रानियो के साथ नर्मदा में जलक्रीड़ा करते हुये अपनी हजार भुजाओं की ताकत को आजमाने का विचार कर नर्मदा कि जलधारा को अपनी भुजाओं के द्वारा रोकना शुरू किया ओर अपने शरीर को पर्वताकार कर नर्मदा के प्रबल वेग को रोक लिया । वाल्मीकि जी ने लिखा है कि-
तासान मध्यगतों राजा रराज च तदार्जुनरू। करेणुना सहस्त्रस्य मध्यस्थ इव कुज्जररू॥3॥
जिज्ञासु स तु वाहुनाम सहस्त्रस्योत्तम बलम। रुरोध नर्मदावेङ्ग्म बाहुभिर्व्रहूभिवृतरू॥4॥
कार्तवीर्यभुजसंक्त तज्जलम प्राप्य निर्मलम। कुलोपहारम कुर्वाणम प्रतिस्त्रोतरू प्रघावति॥
जैसे ही राजा सहस्त्रार्जुन ने अपनी हजार भुजाओ को विस्तार देकर नर्मदा का जल प्रवाह रोका तो उससे जल उमड़कर पहले नर्मदा के तटो को डुबाने लगा फिर तटों के बंधों को लांघकर चारों ओर तबाही मचाने लगा। रावण शिवलिंग की पूजा में निमघ्न नाच रहा था ओर पुष्प आदि चढ़ा रहा था, उसने देखा कि उसके मंत्रियों द्वारा लगाए गए पुष्प उस उल्टे प्रवाह में बह गए । चारों ओर बाढ़ जैसे हालत बनते देख रावण कि पूजा में विघ्न उत्पन्न हो गया उसने नर्मदा नदी कि ओर घूर कर देखा जैसे इस प्रतिकूल आचरण के लिए वे ही दोषी हो?
रावण ने देखा कि पश्चिम कि ओर प्रवाहित नर्मदा तीव्र वेग से उल्टे पूरब दिशा कि ओर बहने लगी। कुछ समय बाद नर्मदा शांत होती चली गई ओर जो जल का प्रवाह पूरब कि ओर गया था वह वापिस पश्चिम कि ओर जाने लगा यह देख रावण ने अपने मंत्री शुक ओर सारण को इसका कारण जानने के लिए भेजा। शुक ओर सारण आकाश से उड़ते उड़ते पश्चिम दिशा कि ओर निकले दो देखा कि राजा सहस्त्रार्जुन अपनी रानियो के साथ जल क्रीडा करते हुये अपनी हजार भुजाओ से जल को रोक रहा है छोड़ रहा है। शुक ओर सारण ने यह दृश्य देखकर वापिस रावण को पूरा वृतांत सुनाया। चूकि रावण नर्मदा स्नान ओर पूजा से पहले युद्ध की इक्च्छा लिए राजा सहस्त्रार्जुन को चुनोती देने आया था लेकिन जब उसने राजा सहस्त्रार्जुन द्वारा अपना बल का प्रदर्शन नर्मदा के प्रवाह को रोकने का प्रमाण देखा तो उसकी युद्ध करने कि लालसा तीव्र बढ़ गई ओर वह महिष्मती नगरी के पास नर्मदा में जलक्रीड़ा कर रहे राजा सहस्त्रार्जुन को ललकारने लगा।
रावण ने माहिष्मती नागरी में प्रवेश करते ही उत्पात मचाया ओर चारों ओर प्रचण्ड धूल का गुब्बारा उठने लगा ओर रावण ने आकाश से घनघोर रक्त कि बरसात करके अपनी माया का प्रदर्शन किया। राजा सहस्त्रबाहु को उसके मंत्रियों ने सूचना दी तब उन्होने नर्मदा स्नान कर रही रानियो को नर्मदा जल से बाहर महल में भिजवा कर रावण कि ललकार का जबाव देने के लिए गदा हाथ मे लिए प्रलयकारी अग्नि के समान महाभयंकर रूप धारण कर भभक उठा ओर रावण के मंत्रियो ओर राक्षसों की माया को ऐसे काटने लगे जैसे सूर्य अंधकार को काटता है। सभी राक्षसों को बुरी तरह परास्त करने के बाद हजार भुजा वाले राजा सहस्त्रार्जुन ने बीस भुजावाले रावण कि चुनौती स्वीकार कि ओर फिर दोनों में भीषण महायुद्ध छिड़ गया। दोनों महाबली एक दूसरे पर गदा का प्रहार करते तो आकाश में बिजली चमक उठती थी तब राजा सहस्त्रार्जुन ने रावण कि छाती पर गदा का प्रहार किया किन्तु रावण वरदानी होने से उसकी छाती से लगने के बाद गदा दो दुकड़ों में विभक्त हो गई।चोट खा-खा कर जब रावण निस्तेज होने लगा तब राजा सहस्त्रार्जुन ने अपनी हजार भुजाओ में रावण को बांध लिया जैसे गरुण के आगे सर्प नतमस्तक हो जाता है वैसे ही रावण राजा सहस्त्रार्जुन के सामने परास्त हो उनके बंधन में कैद हो गया। राजा सहस्त्रार्जुन ने रावण को बंदी बनाकर अपनी राजधानी ले आया।
दशग्रीव रावण के बंदी होने से पूरे संसार में खलबली मच गई, देवताओं ने खुश होकर राजा कार्तवीर्य अर्जुन पर पुष्प वर्षा कि वही इन्द्र आदि प्रसन्न हुये किन्तु रावण के बंदी होने पर महर्षि पुलस्त्य का पुत्रस्नेह जाग गया ओर वे राजा सहस्त्रार्जुन के पास पहुचे। राजा ने महर्षि पुलस्त्य की अगवानी कि ओर उन्हे यथोचित सम्मान देकर उनकी पूजा अर्चना कर अपने एव अपने कुल का गौरव माना। महर्षि पुलस्त्य ने अपने आने का कारण राजा सहस्त्रार्जुन को बताकर पहले कहा आपकी चारो युगों में कीर्ति बढ़ गई है जो आपने मेरे पौत्र रावण को जीत लिया है।
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पुत्रकस्य यशरूपीतम नाम विश्रावित्म त्वया। मध्द्वाक्याघायच्या मानोघा मुञ्च दसानन॥16॥
पुलस्त्ज्ञानं पृगृहास्थ न किंचन वचोर्जुन। मुमौच वै पार्थिवेन्द्रों राक्षसेंदरम प्रहष्टवत॥ 17 ॥
महर्षि पुलस्त्य द्वारा राजा से रावण को छोडने का आग्रह करने पर राजा सहस्त्रार्जुन ने तत्काल रावण को कैद से मुक्त कर उल्टे उसका सत्कार किया ओर महर्षि पुलस्त्य के सामने अग्नि को साक्षी मान दशग्रीव रावण ओर राजा सहस्त्रार्जुन दोनों ने अपने मन को शुद्ध कर मित्रता कर ली। जिसे वाल्मीकि ने लिखा है -स त प्रमुच्य त्रिदशारिमर्जुनरू।
प्रपूज्य दिव्याभरणस्त्रगम्बरे॥ अहिंसक सख्यमुपेत्य साग्रिकम, प्रणम्य तं ब्रम्हसुतं गृयाहम ययों॥ 18॥
यह सारा प्रसंग अगस्तमुनि के मुख से सुनकर अयोध्यापति राजा राम के मन में कौतूहल पैदा होने लगा तब श्रीराम ने रावण के जीवन के ऐसे सारे प्रसंग सुनाने को कहा जो अगस्त मुनि ने एक एक कर सब श्रीराम को सुनाये। जिसमें नर्मदा जल प्रवाह को राजा सहस्त्रार्जुन द्वारा रोकने ओर रावण के नर्मदा स्नान कर नर्मदा तट पर शिवपुजा का विधान जैसे प्रसंग भी शामिल थे।