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दैनंदिन जीवन से उपजे बिंबो से ही निर्मित होता है सार्थक साहित्य: प्रो रवींद्र प्रताप सिंह

लखनऊ मेटाफर लिट्रेचर फेस्टिवल के दूसरे दिन लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रवींद्र प्रताप सिंह ने अपने साहित्य पर चर्चा करने के दौरान समाज संस्कृति और कार्यक्षेत्र के दैनंदिन जीवन से उपजे बिंबों, और अनुभवों को अपने साहित्य का स्रोत बताया।

दैनंदिन जीवन से उपजे बिंबो से ही निर्मित होता है सार्थक साहित्य: प्रो रवींद्र प्रताप सिंह

प्रश्नों का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि अच्छे साहित्य के लिए मौलिक सोच जरूरी है, और यह मौलिकता जीवन में प्रत्येक प्रकरण, चाहे वह छोटा हो या बड़ा के सम्यक आकलन से ही आती है। जीवन के यथार्थ से बिम्ब लेकर उसे जैसा चाहें वैसा रूप दें, यह साहित्य में संभव है। साहित्य सृजन का निरंतर अभ्यास हमें अवसाद जैसी मानसिक व्याधियों से बचा सकता है।

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हमारा सृजन हमारे जीवन में एक सेफ्टी वाल्व का काम करता हैं। हम कभी कभी संस्कार, समाज और कार्यक्षेत्र की विवशता वश कुछ व्यक्त नहीं कर पाते, जो जाने अनजाने हमारे मन में कभी एक बोझ और कभी शून्यता दर्शाते हैं, इनकी अभियक्ति यदि हम सृजन के माध्यम से करें, तो हमें स्वयं को शशक्त तो महसूस करते ही हैं, कहीं न कहीं समाज के लिए भी एक केस स्टडी प्रस्तुत करते हैं। आज की परिवर्तित जीवन शैली में सृजन और संवाद हमें सशक्त और संस्तुष्ट रखती है।

दैनंदिन जीवन से उपजे बिंबो से ही निर्मित होता है सार्थक साहित्य: प्रो रवींद्र प्रताप सिंह

हमें भारतीय अंग्रेजी साहित्य में भारतीय बिम्बों, प्रतिमानों और जीवन शैली लाने, दिखाने में कोई हिचक नहीं करनी चाहिए। हम अपनी मातृभाषा में सोचते हैं, हमारी मातृभाषा हमारे ह्रदय के समीप होती है, अच्छा साहित्य किसी मॉडल की नक़ल करने के निरर्थक प्रयासों से परे होता है। पिछले दो -तीन दशक का भारतीय अंग्रेजी साहित्य बेहद प्रगतिशील और खांचों से परे रहा है। भारतीय अंग्रेजी साहित्य में भारतीयता की खुशबू लाकर हम इसे शशक्त और प्रभावी बना सकते हैं।

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एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया कविता का प्रस्तुतिकरण अधिक प्रभावी और चिरंतन होता है। कविता कहीं न कहीं जीवन के ज्यादा करीब होती है, चाहे यह तुष्टिगुण से प्राप्त संवेदना से रचित हो, चाहे प्रत्यक्ष सौंदर्य पर आधारित हो, चाहे दिन भर के कठिन श्रम के उपरांत शाम के समय एक ठंडी साँस के जनित हो। जहाँ तक नाटक का सवाल है, नाट्य लेखन जीवन के काफी करीब है क्योंकि व्यक्ति समाज में अपने सामान्य से लेकर औपचारिक किया कलाप में कहीं न कहीं कोई भूमिका ही तो निभाता है । यह भूमिका अन्तर्रात्मा की प्रतीति से किस सीमा तक सामंजस्य रखती है हम स्वयं बेहतर जानते हैं।

दैनंदिन जीवन से उपजे बिंबो से ही निर्मित होता है सार्थक साहित्य: प्रो रवींद्र प्रताप सिंह

प्रोफेसर रवींद्र प्रताप सिंह ने अपने समग्र साहित्य की चर्चा करते हुए विशेष रूप से अपने अंग्रेजी नाटक ‘सी माय कर्ल्स’, ‘एंड इट गोज’, ‘अंग्रेजी काव्य ‘प्रोजेक्ट पेनल्टीमेट’, फ़्ली मार्केट एंड अदर प्लेज़’, हिंदी नाटक ‘शेक्सपियर की सात रातें’ अंतर्द्वंद’, और ‘विषाद’ की चर्चा किया। प्रो रवीन्द्र प्रताप सिंह लखनऊ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं। वे अंग्रेजी और हिंदी लेखन में समान रूप से सक्रिय हैं।

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फ़्ली मार्केट एंड अदर प्लेज़ (2014), इकोलॉग(2014), व्हेन ब्रांचो फ्लाईज़ (2014), शेक्सपियर की सात रातें (2015), अंतर्द्वंद (2016), चौदह फरवरी (2019), चैन कहाँ अब नैन हमारे (2018) उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।

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बंजारन द म्यूज(2008), क्लाउड मून एंड अलिटल गर्ल (2017), पथिक और प्रवाह (2016), नीली आँखों वाली लड़की (2017), एडवेंचर्स ऑव फनी एंड बना (2018),द वर्ल्ड ऑव मावी(2020), टू वायलेट फ्लावर्स(2020) प्रोजेक्ट पेनल्टीमेट (2021) उनके काव्य का प्रतिनिधित्व करते हैं।

दैनंदिन जीवन से उपजे बिंबो से ही निर्मित होता है सार्थक साहित्य: प्रो रवींद्र प्रताप सिंह

उन्होंने विभिन्न मीडिया माध्यमों के लिये सैकड़ों नाटक, कवितायें, समीक्षा एवं लेख लिखे हैं। लगभग दो दर्जन संकलनों में भी उनकी कवितायें प्रकाशित हुयी हैं। उनके लेखन एवं शिक्षण हेतु उन्हें स्वामी विवेकानंद यूथ अवार्ड लाइफ टाइम अचीवमेंट, शिक्षक श्री सम्मान, मोहन राकेश पुरस्कार, भारतेन्दु हरिश्चंद्र पुरस्कार, डॉ राम कुमार वर्मा बाल नाटक सम्मान 2020, एसएम सिन्हा स्मृति अवार्ड जैसे तेईस पुरस्कार प्राप्त हैं।

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