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किसानों को मालामाल बना देगी औषधीय खेती: सर्पगंधा, अश्वगंधा, कालमेघ से होती है मोटी कमाई

 दया शंकर चौधरी

बड़ी संख्या में किसान अब औषधीय पौधों की खेती करने लगे हैं। कम लागत और मांग बढ़ने के कारण किसानों को इनकी खेती से मोटी कमाई हो जाती है। ये पौधे आज पारंपरिक फसलों के विकल्प के रूप में उभरे हैं। किसानों की आय बढ़ाने को प्रयासरत सरकार भी अधिक मुनाफा देने वाली फसलों की खेती को प्रोत्साहित कर रही है।

औषधीय पौधों की खेती कर रहे किसानों के पास सर्पगंधा एक बेहतर विकल्प बनकर उभरा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इसकी खेती बड़े पैमाने पर हो रही है। विशेषज्ञ बताते हैं कि भारत में 400 वर्ष से सर्पगंधा की खेती किसी न किसी रूप में हो रही है। पागलपन और उन्माद जैसी बीमारियों के निदान में इसका उपयोग किया जाता है। सांप और अन्य कीड़े के काटने पर भी इसका इस्तेमाल किया जाता है।

अलग-अलग तरह से होती है खेती: सर्पगंधा की तीन प्रकार से खेती की जाती है। तने से कलम बनाकर खेती करने के लिए कलमों को 30 पीपीएम वाले एन्डोल एसिटिक एसिड वाले घोल में 12 घंटें तक डुबोकर रखने के बाद बुवाई करने से पैदावार अच्छी होती है। दूसरी विधि में इसकी जड़ों से बुवाई की जाती है। जड़ों को मिट्टी और रेत मिलाकर पॉलीथीन की थैलियों में इस प्रकार रखा जाता है कि पूरी कटिंग मिट्टी से दब जाए तथा यह मिट्टी से मात्र 1 सेंटी मीटर ऊपर रहे। जड़े एक माह के अंदर अंकुरित हो जाती हैं। इस विधि से बुवाई करने के लिए एक एकड़ में लगभग 40 किलोग्राम रूट कटिंग की आवश्यकता होती है।

तीसरा तरीका है बीजों से बुवाई का। इसे ही सबसे बेहतर माना जाता है। लेकिन इसके लिए अच्छे गुणवत्ता वाले बीजों का चयन बहुत जरूरी है। पुराने बीज ज्यादा उग नहीं पाते, इसलिए नए बीज से बुवाई की सलाह दी जाती है। नर्सरी में जब पौधे में 4 से 6 पत्ते आ जाएं तो उन्हें पहले से तैयार खेत में लगा दिया जाता है। सर्पगंधा के पौधों को एक बार बोने के बाद दो वर्ष तक खेत में रखा जाता है। इसलिए खेत को अच्छे से तैयार करना चाहिए। खेत में जैविक खाद मिला देने से फसल की बढ़वार अच्छी होती है।

एक एकड़ में चार लाख रुपए कमाई: इसके बाद फूल आने पर फल और बीज बनने के लिए छोड़ दिया जाता है।सप्ताह में दो बार तैयार बीजों को चुना जाता है। यह सिलसिसा पौध उखाड़ने तक जारी रहता है। अच्छी जड़े प्राप्त करने के लिए कुछ किसान 4 साल तक पौधे को खेत में रखते हैं। हालांकि कृषि विशेषज्ञ बताते हैं कि 30 माह का समय सबसे उपयुक्त होता है। पत्ते झड़ने के बाद पौधों को जड़ सहित उखाड़ लिया जाता है और इन्हें अच्छे से सूखा लिया जाता है। इसे ही किसान बेचते हैं और मोटी कमाई होती है। किसानों के मुताबिक, एक एकड़ में आसानी से चार लाख रुपए की कमाई हो जाती है।

अश्वगंधा को कहते हैं “कैश क्रॉप” लागत से कई गुना अधिक होती है कमाई

औषधीय गुणों से भरपूर अश्वगंधा की खेती कर किसान आज के समय में मोटी कमाई कर रहे हैं। लागत से कई गुना अधिक कमाई होने के चलते ही इसे “कैश कॉर्प” भी कहा जाता है। किसानों की आय बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार लगातार प्रयास कर रही है। इसी को ध्यान में रखकर किसानों के लिए कई योजनाएं शुरू की गई हैं। साथ ही उन फसलों की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है, जिससे किसान अपनी कमाई को बढ़ाकर सुखमय जीवन जी सकें। औषधीय गुणों से भरपूर अश्वगंधा की खेती कर किसान आज के समय में मोटी कमाई कर रहे हैं।

अश्वगंधा एक अद्वितीय गंध और ताकत बढ़ाने की क्षमता रखने वाला पौधा है। इसका वानस्पतिक नाम विथानिया सोम्निफेरा है। अश्वगंधा महिलाओं के लिए काफी लाभकारी होता है। साथ ही इससे कई औषधी और दवाइयां बनाई जाती हैं। यहीं कारण है कि इसकी मांग हमेशा बनी रहती है। अश्वगंधा के फल के बीज, पत्ते, छाल, डंठल और जड़ों की बिक्री होती है और अच्छी कीमत मिलती है। अश्वगंधा की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार योजनाएं भी चला रही है।

तनाव और चिंता दूर करने में होता मददगार: यह एक झाड़ीदार पौधा है। अश्वगंधा को बहुवर्षीय पौधा भी कहते हैं। इसके फल, बीज और छाल का उपोयग विभिन्न दवाइयों को बनाने में किया जाता है। अश्वगंधा की जड़ से अश्व जैसी गंध आती है। इसी लिए इसे अश्वगंधा कहा जाता है। सभी जड़ी-बूटियों में सबसे अधिक प्रसिद्ध है। तनाव और चिंता को दूर करने में अश्वगंधा को सबसे फायदेमंद माना जाता है। बाजार में आसानी से चूर्ण वगैरह मिल जाते हैं।

खेती के लिए किन बातों का रखना होता है ध्यान: अश्वगंधा की खेती के लिए बलुई दोमट और लाल मिट्टी काफी उपयुक्त होती है, जिसका पीएच मान 7.5 से 8 के बीच रहे तो पैदावार अच्छी होगी. गर्म प्रदेशों में इसकी बुआई होती है. अश्वगंधा की खेती के लिए 25 से 30 डिग्री तापमान और 500-750 मिली मीटर वर्षा जरूरी होती है. पौधे की बढ़वार के लिए खेत में नमी होनी चाहिए। शरद ऋतु में एक से दो वर्षा में जड़ों का अच्छा विकास होता है। पर्वतीय क्षेत्र की कम उपजाऊ भूमि में भी इसकी खेती को सफलतापूर्वक किया जाता है।

कब और कैसे करें अश्वगंधा की खेती: अश्वगंधा की बुआई के लिए सबसे उपयुक्त समय अगस्त का महीना होता है।इसकी खेती करने के लिए एक से दो बारिश अच्छी बारिश के बाद खेत की दो जुताई के बाद पाटा चलाकर समतल कर दिया जाता है। जुताई के समय ही खेत में जैविक खाद डाल देते हैं। बुआई के लिए 10 से 12 किलो बीज प्रति हेक्टेयर की दर से पर्याप्त होता है। सामान्यत: बीज का अंकुरण 7 से 8 दिन में हो जाता है। 8 से 12 महीने पुराने बीज का जमाव 70-80 प्रतिशत तक होता है।

दो तरीके से होती है बुआई: अश्वगंधा की फसल की बुआई दो प्रकार से की जाती है। पहली विधि है कतार विधि: इसमें पैधे से पौधे की दूरी 5 सेंटीमीटर और लाइन से लाइन की दूरी 20 सेंटीमीटर रखी जाती है। दूसरा है छिड़काव विधि: इस विधि से ज्यादा अच्छे तरह से बुआई होती है। हल्की जुताई कर के रेत में मिलाकर खेत में छिड़का जाता है। एक वर्ग मीटर में तीस से चालीस पौधे होते हैं।

जनवरी से मार्च तक चलती है कटाई: बुआई के बाद अश्वगंधा की कटाई जनवरी से लेकर मार्च तक चलती है। इसे उखाड़ा जाता है और पौधों को जड़ से अलग कर दिया जाता है। जड़ के छोटे-छोटे टूकड़े कर सूखाया जाता है। फल से बीज और सूखी पत्ती को अलग कर लिया जाता है। इसके भी तमाम उपयोग होते हैं। आम तौर पर अश्वगंधा की 600 से 800 किलोग्राम जड़ और 50 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर प्राप्त होते हैं। आप अश्वगंधा को मंडी में लेकर जाकर या दवा और औषधी बनाने वाली कंपनियों को सीधे बेच सकते हैं।

कालमेघ की खेती से कमाई होगी ज्यादा: कालमेघ एक बहुवर्षीय शाक जातीय औषधीय पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम “एंडोग्रेफिस पैनिकुलाटा” है। कालमेघ की पत्तियों में कालमेघीन नामक उपक्षार पाया जाता है, जिसका औषधीय महत्व है। यह पौधा भारत एवं श्रीलंका का मूल निवासी है तथा दक्षिण एशिया में व्यापक रूप से इसकी खेती की जाती है। इसका तना सीधा होता है जिसमें चार शाखाएँ निकलती हैं और प्रत्येक शाखा फिर चार शाखाओं में फूटती हैं। इस पौधे की पत्तियाँ हरी एवं साधारण होती हैं। इसके फूल का रंग गुलाबी होता है। इसके पौधे को बीज द्वारा तैयार किया जाता है जिसको मई-जून में नर्सरी डालकर या खेत में छिड़ककर तैयार करते हैं। यह पौधा छोटे कद वाला शाकीय छायायुक्त स्थानों पर अधिक होता है। (कालमेघ का संपूर्ण विवरण अगले अंक में देखें)

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