बसपा में पिछले दिनों मची उथल-पुथल और वरिष्ठ नेताओं के निष्कासन के बाद अब नये सिरे से रणनीति बनाई जाने लगी है। इसको लेकर बसपा सुप्रीमों मायावती ने विधानसभा चुनाव से पहले संगठन को दुरुस्त करने की कवायद तेज कर दी है। वह स्वयं प्रत्येक मंडल की समीक्षा कर रही हैं। मुख्य सेक्टर प्रभारियों को शीघ्रातिशीघ्र बूथ स्तर तक संगठन को दुरस्त करने को कहा गया है, जिससे अगले दो महीनों में विधानसभा चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी जाएं।
बसपा सुप्रीमो के निर्देश पर संगठन को बूथ स्तर तक गठन करने की दिशा में काम भी शुरू कर दिया गया है। जानकारों का कहना है कि नई रणनीति के तहत पार्टी से नाराज होकर या फिर किसी गलतफहमी में निकाले गए कैडर के नेताओं की घर वापसी की रणनीति पर काम किया जा रहा है। मायावती ने स्वयं इसके लिए पहल शुरू की है, जिससे संगठन को मजबूती मिल सके। प्रयागराज, वाराणसी मिर्जापुर मंडल में यह काम शुरू हो गया है। पश्चिमी यूपी में बाहर गए पुराने नेताओं से सेक्टर प्रभारी संपर्क कर रहे हैं।
फिलहाल बसपा सुप्रीमो ने प्रयागराज मंडल का पुनर्गठन कर दिया है। इसमें पार्टी में वापस आए राजू गौतम को भी शामिल किया गया है। भीमराव अंबेडकर, डाॅ. विजय प्रताप, अशोक कुमार गौतम, अमरेंद्र बहादुर पासी, डाॅ. दीपचंद्र गौतम के साथ ही राजू गौतम को प्रयागराज मंडल का मुख्य सेक्टर प्रभारी बनाया गया है। राजू गौतम एक समय मायावती के विश्वासपात्रों में माने जाते थे और कई राज्यों के प्रभारी भी रह चुके हैं। उन्हें पार्टी से निकाल दिया गया था, लेकिन घर वापसी की प्रक्रिया में उन्हें जोड़ा गया है। वह कैडर के नेता हैं। इसके अलावा पार्टी से बाहर गये अन्य नेताओं से भी संपर्क साधने की कोशिश की जा रही है।
बसपा में टूट या बगावत 2022 में बनेगी मायावती के लिए परेशानी का सबब
पिछले दिनों कुछ नेताओं के निष्कासन और कुछ नेताओं के पार्टी छोड़ कर चले जाने के कारण पार्टी को नये सिरे से सोंचने के लिए मजबूर कर दिया है। एक समय ऐसा था कि बसपा में हर जाति के बड़े चेहरे थे। सोनेलाल पटेल, आरके चौधरी, इंद्रजीत सरोज, स्वामी प्रसाद मौर्य, बाबू सिंह कुशवाहा, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, धर्मसिंह सैनी। ये वे नाम हैं जिन्हें बसपा के नाम से पहचाना जाता था। समय बदला, परिस्थितियां बदली, कोई इधर गया तो कोई उधर गया। बड़े कुर्मी नेता लालजी वर्मा और राजभरों के बड़े नेता रामअचल राजभर भी आजकल बसपा से निष्कासित चल रहे हैं।
ऐसे में कहा जा सकता है कि मायावती की बसपा में टूट या फिर बगावत कोई नई बात नहीं है। पार्टी के गठन 14 अप्रैल 1984 से लेकर अब तक इन 37 सालों में बसपा में टूट-फूट होती रही है। बसपा में इस बार की बगावत मिशन-2022 में परेशानी का सबब न बन जाए इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। वजह, बसपा से एक-एक कर कैडर के नेताओं का अलग होना उसके लिए चिंता वाली बात है। एक समय भारी-भरकम नेताओं से भरी यह टीम आज खाली होती दिख रही है। आज बसपा के पास मायावती के बाद दूसरी श्रेणी के नेताओं का टोटा है।
बसपा के बड़े नेताओं का छिटकना शुभ संकेत नहीं
बसपा वर्ष 2017 के चुनाव में 19 सीटें जीती थीं। उसकी सूची में 18 विधायकों के नाम हैं। इन विधायकों में पांच असलम अली, मुख्तार अंसारी, मो. मुजतबा सिद्दीकी, मो. असीम रायनी और शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली अल्पसंख्यक थे। आगामी यूपी विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा के बीच अल्पसंख्यकों को अपने पाले में लाने को लेकर होड़ मचना लाजि़मी है। लोकसभा चुनाव-2019 में गठबंधन करने वाली सपा-बसपा में नतीजे आने के बाद अंदरखाने परस्पर सवाल उठते रहे हैं कि मुस्लिम मतदाता किसके साथ गया? ऐसे में ताजा घटनाक्रम में बसपा से एक साथ तीन अल्पसंख्यक विधायकों (असलम राइनी, असलम अली व मुजतबा सिद्दीकी) का सपा खेमे की ओर छिटकना अल्पसंख्यक मतदाताओं में वर्ष 2022 के विधानसभा चुनावों के लिए एक अलग संदेश दे सकता है, जिसका पार्टी पर असर पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता।
अर्श से फर्श तक लाने का जिम्मेदार कौन
बसपा का गठन कांशीराम ने किया था। उनका मकसद दबे, कुचले, दलितों, शोषितों को न्याय दिलाना था। कांशीराम ने इसको ध्यान में रखते हुए दलितों-पिछड़ों का एक ऐसा गठजोड़ तैयार किया जो यूपी की राजनीति में सिर चढ़ कर बोलने लगा। मायावती इसी के दम पर चार बार यूपी की सत्ता के शिखर तक पहुंचीं। कांशीराम के बाद पार्टी की कमान मायावती के पास आई। पार्टी की सुप्रीमो बनने के बाद मायावती ने अपने हिसाब से ताना-बाना बुनना शुरू किया। पार्टी में जिम्मेदारियां नए सिरे से तय की जाने लगीं।
इसका असर कांशीराम के साथ आए कॉडर के नेताओं पर पड़ने लगा और धीरे-धीरे पनपा असंतोष राह को अलग करने लगा। बसपा सूत्रों की मानें तो पार्टी के कुछ नेता विधानसभा चुनाव से ठीक पहले दूसरे दलों का दामन थाम सकते हैं। इसमें एक महिला व पुरुष विधायक भाजपा के संपर्क में बताए जा रहे हैं। कई राज्यों के प्रभारी रह चुके एक पिछड़ी जाति के नेता भी इन दिनों उपेक्षित चल रहे हैं। वह भी नए ठौर की तलाश में बताए जाते हैं।