प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा पर कैबिनेट की मुहर लगने एवं संसद के शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही इसके लिए प्रस्ताव लाने की तैयारी के बाद कृषि कानूनों की वापसी सुनिश्चित हो गई है। प्रधानमंत्री ने जैसा कहा कि वे कृषकों के हित में लाए गए तीनों कानून देश हित में वापस ले रहे हैं और यह गुज़ारिश करते हैं कि अब किसान आन्दोलन का रास्ता छोड़कर खेतों एवं घर परिवार की तरफ रुख करें। अफसोस की बात है कि ऐसा होता नहीं दिख रहा।
प्रधानमंत्री के देश से क्षमा माँगते हुए कुछ तथाकथित किसान नेताओं एवं कृषकों के एक छोटे वर्ग की भावनाओं का सम्मान करते हुए जिस तरह पहल की गई, उसके प्रत्युत्तर में किसान नेताओं ने जिस तरह अविश्वास जताते हुए एवं छः नई मांगो को उठाते हुए पत्र लिखा वह किसान नेताओं की हठधर्मिता एवं किसी भी बहाने आन्दोलन जीवित रखने की मंशा का ही सूचक है। इससे इस धारणा की ही पुष्टि होती है कि इस आन्दोलन का कृषकों के हित से कोई सरोकार नहीं है और किसानों के नाम पर चलाए गए इस आन्दोलन का मूल उद्देश्य देश में अराजकता फैलाकर सरकार को कठघरे में खड़ा करना एवं अपने राजनीतिक हितों को साधने के लिए सरकार के विरुद्ध दुष्प्रचार करना था।
इसकी बानगी समय समय पर होने वाली हिंसा, बलात्कार या खालिस्तान समर्थकों की घुसपैठ और गणतंत्र दिवस पर हुई शर्मनाक घटना के रूप में देश के सामने आती रही हैं। कहना न होगा कि विपक्ष के एकमात्र मोदी विरोध के एजेंडे के तहत खुलकर तथाकथित किसान आन्दोलन का समर्थन और सरकार को किसान विरोधी साबित करने की कोशिश ने राजनीतिक महत्वाकांक्षा से ग्रस्त इन तथाकथित किसान नेताओं के मनोबल बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई और दुःखद है कि राहुल गांधी, केजरीवाल जैसे नेता आज भी किसान आन्दोलन की शुचिता एवं सफलता के कशीदे पढ़ रहे हैं और प्रधानमंत्री मोदी के लिए घुटनों के बल आना या अहंकार टूटना जैसे विशेषणों का प्रयोग कर रहे हैं।
किसान संगठनों ने अब जो नई मांगे रखी हैं, उनमें एम एस पी की गारण्टी के लिए कानून बनाना सबसे प्रमुख है। किसान नेताओं का तर्क है कि वर्तमान में एम एस पी का लाभ मात्र 6 प्रतिशत किसानों को ही मिलता है। सरकार कानून बनाकर निजी क्षेत्र के द्वारा अनाज खरीद के लिए भी एम एस पी को बाध्यकारी बनाने का कदम उठाये जिससे सभी किसानों को इसका लाभ मिले। आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि एम एस पी पर गारण्टी कानून बनाना न तो सरकार के लिए ही आसान है और न ही यह किसानों के हित में है। उच्चतम न्यायालय द्वारा कृषि कानूनों की समीक्षा के लिए गठित पैनल के सदस्य अनिल धनवट जो शेतकारी संगठन के अध्यक्ष भी हैं, का भी मानना है कि एम एस पी की गारण्टी का कानून बनाना न तो सरकार के सामर्थ्य में है और न ही व्यावहारिक। यह किसानों के हित में भी नहीं होगा।
अनिल धनवट यह भी कहते हैं कि कृषि कानूनों की वापसी निराशाजनक है क्योंकि यह कानून कृषि क्षेत्र में लम्बे समय से वांछित सुधारों की दिशा में गम्भीर कदम थे। वह यह सवाल खड़ा करते हैं कि यदि एम एस पी पर गारण्टी कानून बन गया और बाजार में किसानों की सम्पूर्ण उपज उस कीमत पर न बिक सकी तो क्या सरकार के पास यह क्षमता है कि वह पूरी बची फसल खरीदे। यह किसी भी सरकार के लिए सम्भव नहीं क्योंकि सरकार के पास देश के विकास एवं सुरक्षा मदों पर खर्च करने के लिए भी संसाधन चाहिए। वैसे भी सरकार एम एस पी पर जो खरीद करती है वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली एवं बफर स्टाक की जरुरत की तुलना में लगभग दो गुनी है। सरकार न तो किसानों की पूरी फसल खरीद सकती है और न ही बाजार को खुद निर्धारित कीमत पर खरीद के लिए मजबूर कर सकती है।
एमएसपी की व्यवस्था देश में १९६६-६७ में अनाज उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए लाई गई थी जब देश में अनाज का संकट था और हमें अपनी खाद्यान्न जरूरत पूरी करने के लिए अनाज आयात करना पड़ता था। उस समय एम एस पी घोषित करने का उद्देश्य किसानों को यह आश्वस्त करना था कि उत्पादन बढ़ाने पर कीमत गिरने का नुकसान किसानों को नहीं होगा क्योंकि सरकार घोषित समर्थन कीमत पर खरीद करेगी। आज ५०से भी अधिक वर्षों के बाद हालात बिल्कुल अलग हैं। अब देश में अनाज का उत्पादन खपत एवं बफर स्टाक के बाद भी अधिक है और हम अनाज के बड़े निर्यातक है। सरकार के पास भण्डारण क्षमता भी सीमित है। लाखों टन अनाज प्रतिवर्ष भण्डारण सुविधा की कमी के कारण बर्बाद हो जाता है। प्रधानमन्त्री गरीब कल्याण योजना के तहत ८० करोड़ गरीबों को पांच किलो अनाज पिछले डेढ़ साल से मार्च २०२२ तक लगातार मुफ्त बाटना देश की अनाज उपलब्धता में मजबूती का सूचक है।
वर्तमान में सरकार २३ फसलों की एम एस पी घोषित करती है।यदि एम एस पी का गारण्टी कानून लाया जाता है तो सरकार को सभी कृषि उत्पादों को इसके दायरे में लाना होगा जिनकी संख्या ३०० के आस पास है। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि किसी उत्पाद की खरीद बिक्री एम एस पी से कम कीमत पर न हो। बात यहीं रुकने वाली नहीं और रोकनी भी नहीं चाहिए क्योंकि सरकार से सभी यह अपेक्षा कर सकते हैं कि उनके उत्पादन की लाभदायक न्यूनतम कीमत दिलाना सुनिश्चित करे। इस स्थिति में सरकार के पास शायद यही काम रहेगा कि वह उत्पाद की न्यूनतम कीमत निर्धारण करे और मशीनरी को सक्रिय रखे कि सभी को लाभकारी न्यूनतम कीमत मिल सके। यह स्थिति अर्थव्यवस्था को पुनः कानूनी नियंत्रण एवं इंस्पेक्टर राज में ले जाएगी जिससे किसी का हित नहीं होगा।
अर्थव्यवस्था का कुशलतापूर्वक संचालन बाजार शक्तियों एवं उसके मुख्य घटक मांग एवं आपूर्ति से ही होता है। अर्थव्यवस्था में नाजायज दखल देना हकीकत में सच्चाई से मुँह मोड़ना है जिसके दुष्परिणामों से भविष्य में बचना नामुमकिन होगा। सरकार किसी को भी निर्धारित कीमत मानने को तो कानून बना सकती है परन्तु वह किसी को भी इस बात पर मजबूर नहीं कर सकती कि वो निर्धारित कीमत पर उतनी ही खरीद करे जितनी कम कीमत पर करती थी। यदि निर्धारित एम एस पी पर मांग कम हो जाती है जो बाजार नियम है तो किसानों की बची फसल का क्या होगा और ऊंची एम एस पी का किसानों को क्या लाभ मिलेगा? आज के उदारीकरण एवं सरकारी नियंत्रण से मुक्ति के दौर में एम एस पी को बाध्यकारी बनाने का कदम देश और किसानों के लिए आत्मघाती होगा। हकीकत यह है कि भारत विश्व का एकमात्र देश है जहां एम एस पी लागू है। एम एस पी की व्यवस्था ने किसानों को उत्पादन बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित अवश्य किया और सरकार इसी कारण आज भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए एम एस पी पर बड़े पैमाने पर खरीद करती है।
२०१४ के बाद एम एस पी पर सरकारी खरीद में कई गुणा वृद्धि हुई है और सरकार चाहती है कि विशेषज्ञों की समिति बनाकर एम एस पी का लाभ अधिक से अधिक किसानों तक पहुँचाया जाय परन्तु सरकार पर एम एस पी गारण्टी कानून बनाने के लिए दबाव बनाना विशुद्ध राजनीति से प्रेरित है और सरकार को इस दबाव में नहीं आना चाहिए। एम एस पी ने फसलों के विविधीकरण एवं फसल चक्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। आज एम एस पी के लालच में अधिकतर किसान गेंहू एवं धान अधिक पैदा करते हैं जिनकी अधिकतम सरकारी खरीद एम एस पी पर की जाती है। इसके कारण पंजाब जैसे राज्य गिरते भू जल स्तर का सामना कर रहे हैं। अन्त में मैं यही चाहूंगा कि किसान भाइयों को भी एम एस पी के जाल से बचना चाहिए और फसल विविधीकरण तथा नकद फसलों के उत्पादन पर जोर देना चाहिए जिनकी बाजार कीमत बेहतर मिले। सरकार को भी किसानों को इसके लिए प्रेरित करने हेतु कदम उठाने चाहिए। किसान संगठनों एवं तथाकथित किसान नेताओं को भी ऐसी देश एवं किसानों के लिए आत्मघाती माँगों को तूल नहीं देना चाहिए, वैसे भी इस आन्दोलन से कृषि में अपेक्षित सुधारों को जिस तरह झटका लगा उसके लिए देश एवं छोटे किसान आपको माफ न कर सकेंगे।