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राजपथ से लोकपथ पर मृदुला सिन्हा 

साहित्य व राजनीति दोनों में एक साथ अपनी प्रतिभा प्रमाणित करने वाले अनेक लोग हुए। गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा भी इसमें शामिल थी। उन्होंने अपनी जीवनी का शीर्षक राजपथ से लोकपथ नाम दिया। इन दो शब्दों में उनकी द्रष्टि जीवन समाहित है। गोवा के राज्यपाल रहते हुए उनकी लखनऊ यात्रा में दो बार उनसे मिलने व बात करने का अवसर मिला। दोनों बार लगा कि वह मूलतः साहित्यकार है।

राजनीति को वह समाज सेवा का माध्यम मानती थी। लेकिन राजनीति से अधिक उनकी साहित्य चर्चा में रुचि थी। व्यस्तता व गम्भीर चिंतन के बीच वह विनोद पूर्ण टिप्पणी भी करती थी। लखनऊ में एक कार्यक्रम को संबोधित करके बाहर निकल रही थी। सामने से एक महिला फोटोग्राफर फोटो ले रही थी। उसे किसी बात पर हंसी आ गई।

मैं भी देख रहा था कि किसी अन्य से बात करके हंसी थी। वैसे मृदुला जी भी सामने ही देख रही थी। शायद विद्वतापूर्ण व्याख्यान के बाद वह माहौल को कुछ बदलना चाहती थी। वह रुकीं, उस महिला पत्रकार को पास बुलाया। पूंछा क्या तुम हमको देखकर तो नहीं हंस रही थी। वह सकपका गई। उसने कहा अरे नहीं, मृदुला जी बोली,तब ठीक है। यह सुनकर वहां मौजूद लोग हंस पड़े।

अभी कुछ दिन पहले ही एक पत्रिका में उनका लेख पढ़ा। जिसमें उन्होंने गोवा के राज्यपाल मनोनीत होने,वहां पहुंचने से लेकर गोवा राजभवन के इतिहास का सुंदर चित्रण किया है। समुद्र किनारे स्थित राजभवन में प्रवेश करते समय उन्होंने जो मनोभाव व्यक्त किया,वह भी साहित्य की श्रेणी में आते है। उनका जन्म बिहार मुजफ्फरपुर जिले के छपरा गाँव में हुआ था।मनोविज्ञान में एमए करने के बाद शिक्षिका बनी थी।

फिर मोतीहारी के एक विद्यालय में प्रिंसिपल बनी। यही से उनकी साहित्य साधना शुरू हुई थी। बाद में वह राजनीति में आई। वह राज्यसभा सदस्य भी रहीं। राजपथ से लोकपथ के अलावा नई देवयानी, ज्यों मेंहदी को रंग घरवास यायावरी आँखों से, देखन में छोटे लगें, सीता पुनि बोलीं, बिहार की लोककथायें ढाई बीघा जमीन, मात्र देह नहीं है औरत विकास का विश्‍वास आदि उनकी प्रसिद्ध कृतियां है।

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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