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अंधविश्वास के खिलाफ आजीवन संघर्ष करने वाले महामानव थे “पेरियार”

पेरियार इरोड वेंकट रामास्वामी का जन्म- 17 सितम्बर 1879 तमिलनाडु के इरोड नामक कस्बा में हुआ था। उनके पिता वेंकट नायकर (एक धनी व्यापारी ) थे। उनकी माता चिन्ना थयम्मल थी।

आत्मसम्मान आंदोलन से मिला राष्ट्रव्यापी पहचान – पेरियार सिर्फ तमिलनाडु ही नहीं पुरे भारतवर्ष की सभ्यता, संस्कृति और राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले महापुरूषों में सबसे अग्रणी हैं। वे नास्तिक, बुद्धिवादी, तर्कज्ञानी और मानवतावादी विचारक एवं मानव वैज्ञानिक  थे, वे धर्म के घोर विरोधी थे। वे सामाजिक न्याय के पक्ष आजीवन खड़े रहे। वे गरीबों, पिछड़ों, दलितों और महिलाओं के अधिकारों के लिए हमेशा संघर्षरत रहे। उन्होंने द्रविड़ सभ्यता और संस्कृति को मज़बूत करने, जाति-पाति, छुआछूत, अंधविश्वास जैसे पाखंडवाद का उन्मूलन करने, जनता की सामाजिक और राजनीतिक चेतना को उन्नत करने के लिए राज्यव्यापी आत्म-सम्मान आन्दोलन चलाया। जिसका लक्ष्य था-धार्मिक उन्माद का उन्मूलन, पाखंडवाद का उन्मूलन, छुआछूत का उन्मूलन।
गलत का हमेशा खुलकर करते थे विरोध – पेरियार ने वर्ण- व्यवस्था और जाति-व्यवस्था के विरूद्ध अपना अभियान जारी रखा। सार्वजनिक रूप से मूर्तियों को तोड़ने का अभियान चलाया और पुतलों को जलाने का कार्य किया। वर्ण-व्यवस्था को धार्मिक मान्यता प्रदान करने वाले मनुस्मृति जैसे तथाकथित ग्रंथों की प्रतियों को सार्वजनिक रूप से जलाया।  1970 में यूनेस्को (UNESCO ) ने उन्हें “नये युग का पैगम्बर, दक्षिण-पूर्व एशिया का सुकरात, समाज सुधार आन्दोलन का पिता, अज्ञानता, अन्धविश्वास और बेकार की रीति-रिवाज का दुश्मन” कहा।
प्रगतिशील विचारधारा में रखते थे विस्वास – सामाजिक अन्याय,धर्म के नाम पर पाखंड और अंधविश्वास के प्रचार-प्रसार कर लोगों को मूर्ख बना अपनी मनमानी की रोटी सेंकने वालों,बहुसंख्यक लोगों को वैज्ञानिक सोच विचार से दूर कर उनपर अपनी प्रभुत्व थोपने वालों एवं प्रगतिशील विचारधारा के रास्ते में बाधा उत्पन्न करने वाले तमाम लोगों के खिलाफ ई.वी.रामास्वामी नायकर ‘पेरियार’ की दहाड़ दुनिया में आज भी गूंजती है। वे कोई साधारण इंसान नहीं समाज सुधार के राष्ट्र नायक थे।
वे हिन्दुत्व को धोखा मानते थे – उन्होंने मूलनिवासियों के आत्मसम्मान के लिए अपना सर्वस्व लगा दिया था। वे बहुत ही धीर गंभीर और निर्भीक एवं जीवट प्रवृत्ति वाले इंसान थे।वे कभी किसी के सामने झुकना नहीं जानते थे।अपनी बातें दृढ़ता से कहने के लिए और उसे धरातल पर उतारने के लिए जाने जाते हैं।वे कहते थे।  ‘मैं कहता हूँ कि हिंदुत्व एक बड़ा धोखा है, हम मूर्खों की तरह हिंदुत्व के साथ अब नहीं रह सकते। यह पहले ही हमारा काफ़ी नुक़सान कर चुका है।इसने हमारी मेधा को नष्ट कर दिया है। इसने हमारे मर्म को खा लिया है।इसने हमारी संभावनाओं को गड़बड़ा दिया है। इसने हमें हज़ारों वर्गों में बाँट दिया है। क्या धर्म की आवश्यकता ऊँच-नीच पैदा करने के लिए होती है ? हमें ऐसा धर्म नहीं चाहिए जो हमारे बीच शत्रुता, बुराई और घृणा पैदा करे।’
औपचारिक शिक्षा के बावजूद तर्कशीलता ने दिलाई पहचान – कहा जाता है पेरियार को केवल चौथी कक्षा तक औपचारिक शिक्षा प्राप्त हुई थी।10 साल की उम्र में पढ़ाई छोड़कर पिता के व्यापार में लग गए। यद्यपि रामास्वामी नायकर शुरू से ही तार्कशील और चिंतन प्रवृत्ति के थे परन्तु उनका परिवार कट्टर धार्मिक और रूढ़िवादी था।पिता से वाद-विवाद के कारण उन्होंने धर्म और ईश्वर की सत्ता को जाँचने के लिए अपना घर छोड़ दिया। ज्ञान की तलाश में वे काशी पहुंचे जहां उन्होंने ने संन्यासी जीवन का वरण किया।लेकिन बहुत ही जल्दी उन्हें ईश्वर के मिथ और संन्यास के पाखंड का बोध हो गया।वे वापस घर लौट आए।
स्वाधीनता आंदोलन में की थी सक्रिय भागीदारी – उन्होंने देश में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। फिर भारत में कांग्रेस द्वारा चलाए जा रहे स्वराज आंदोलन और उसके कार्यक्रमों से प्रभावित हो 1919 में कांग्रेस से जुड़ गए। असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई। अपने सांगठनिक क्षमता और सक्रियता के बदौलत 1922 में रामास्वामी मद्रास प्रांत कांग्रेस के अध्यक्ष बने।
सामाजिक सुधार के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहे – शराबबंदी, अदालतों के बहिष्कार से लेकर ‘वायकोम सत्याग्रह’ में उन्होंने अपनी सक्रिय भागीदारी की। त्रावणकोर (केरल) के वायकोम मंदिर की सड़क से दलितों को गुजरने के अधिकार के लिए 1924-25 में हुए इस सत्याग्रह का नेतृत्व ख़ुद महात्मा गांधी ने किया। फलस्वरूप त्रावणकोर की महारानी और गांधी के बीच हुए समझौते से दलितों को अधिकार प्राप्त हुआ। लेकिन कांग्रेस में ब्राह्मणों के वर्चस्व और ब्राह्मणवादी नीतियों के कारण जल्दी ही पेरियार का  इससे मोहभंग होने लगा। मद्रास प्रांत के गुरुकुलों में ग़ैर-ब्राह्मण बच्चों के साथ भेदभाव होता था। कांग्रेस द्वारा वित्त-पोषित इन गुरुकुलों में ब्राह्मण और ग़ैर-ब्राह्मण बच्चों के बैठने से लेकर भोजन में होने वाले भेदभाव को दूर करने के लिए पेरियार ने आवाज़ उठाई। कांग्रेस नेतृत्व ने पेरियार की मांग पर ध्यान नहीं दिया। दूसरी ओर जब 1925 में उन्होंने मद्रास-कांग्रेस के सामने संगठन में ग़ैर-ब्राह्मणों को अधिक भागीदारी देने का प्रस्ताव रखा उसे भी खारिज कर दिया गया। जिसके बाद पेरियार ने 1925 में कांग्रेस को छोड़कर ‘आत्म सम्मान’ आंदोलन की शुरुआत की।
समतावादी समाज के पैरोकार थे –  उनके अनुसार मद्रास प्रांत में उस समय ब्राह्मणों का शासन-प्रशासन में वर्चस्व था। केवल 3 फ़ीसदी आबादी वाले ब्राह्मणों का समाज, राजनीति और धर्म के सभी पायदानों पर कब्जा था। शूद्रों और अति शुद्रों (दलित) की स्थिति बहुत नाजुक थी। जाति, वर्ण, धर्म और ईश्वर के नाम पर शूद्र और दलितों का अपमान और शोषण होता था। जिसके प्रतिउत्तर में समता पर आधारित समाज के स्थापना के लिए शुरू किया गया ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ ने ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी। जाति, धर्म और ईश्वर की अवधारणा को खारिज करते हुए पेरियार ने समानता पर आधारित समाज बनाने की अवधारणा प्रस्तुत  किया।
सम्राज्यवाद से मुक्ति से पहले सामाजिक मुक्ति को जरूरी मानते थे – शाहूजी महाराज, ज्योतिबा फुले और डॉक्टर बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की तरह पेरियार ने भी साम्राज्यवाद से मुक्ति के पहले सामाजिक मुक्ति की मांग की। पेरियार का कहना था, हमें स्वराज नहीं बल्कि स्वाभिमान (आत्मसम्मान) का राज चाहिए।वे कहते थे ‘आत्मसम्मान हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’। हमें यह मानना होगा कि स्वराज तभी संभव है जब पर्याप्त आत्मसम्मान हो।
मूलनिवासियों के हक में लड़ते रहे – ज्योतिबा फुले की तरह पेरियार भी शूद्रों और अछूतों को भारत का मूल निवासी मानते हैं। विदेशी- ब्राह्मण-आर्यों ने शूद्रों- अछूतों को ग़ुलाम बनाया। इस ग़ुलामी को अनवरत जारी रखने के लिए जाति और वर्ण व्यवस्था उन पर थोपी गई। धर्म और ईश्वरवाद के नाम पर मूलनिवासियों, शूद्रों-दलितों और स्त्रियों का शोषण किया गया। धर्म के पाखंड का पेरियार ने मुखर होकर विरोध किया। ईश्वरवाद की तार्किक आलोचना करते हुए उन्होंने कहा, ‘मनुष्य के अतिरिक्त पृथ्वी के किसी प्राणी के लिए ईश्वर का कोई औचित्य नहीं है।
पेरियार ने ‘सच्ची रामायण’ लिखकर राम के चरित्र को प्रश्नांकित किया है। आत्मसम्मान आंदोलन के 1930 के वार्षिक जलसे में स्त्रियों और उत्पीड़ित वर्गों के लिए समान अधिकारों की माँग की गई।  पेरियार ने स्त्री की पराधीनता को स्पष्ट करते हुए लिखा, ‘पुरुष स्त्री को अपनी संपत्ति मानता है और यह नहीं मानता कि उसके ही समान स्त्री की भी भावनाएँ हो सकती हैं।’ धर्म की बेड़ियों में जकड़ी स्त्री-पराधीनता को बेपर्दा करते हुए पेरियार पूछते हैं, हिंदू- धर्म में ज्ञान की और धन की देवियों को पूजा जाता है। फिर ये देवियाँ महिलाओं को शिक्षा तथा संपत्ति का अधिकार प्रदान क्यों नहीं करतीं?
महिलाओं को समान अधिकार के लिए संघर्षरत रहे – महिलाओं को तर्कसंगत ज्ञान और वैश्विक मामलों से संबंधित पर्याप्त शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें ऐसे साहित्य, इतिहास या कहानियों से दूर रखा जाना चाहिए जो अंधविश्वास और भय को जन्म देती हैं। महिलाओं की पराधीनता के कई कारणों में से प्रमुख कारण यह है कि उन्हें संपत्ति का अधिकार नहीं है।’
यूरोपीय देशों का दौरा कर किया वहां के व्यवस्था का अवलोकन – 1931 में उन्होंने रूस, जर्मनी, इंग्लैण्ड, स्पेन, फ्रांस तथा मध्यपूर्व के अन्य देशों का भ्रमण किया। उन्होंने रूस के कल-कारखाने, कृषि-फार्म, स्कूल, अस्पताल, मजदूर संगठन, वैज्ञानिक शोध केन्द्र, उत्तम कला केन्द्र संस्थाओं का अवलोकन किया जिससे बहुत प्रभावित हुए। मूलनिवासियों,शूद्रों, अछूतों और स्त्रियों के अधिकारों के लिए समर्पित, ब्राह्मणवाद और हिंदुत्व के विरोधी रामास्वामी नायकर को उनके अनुयायियों ने ‘थंथाई’ (पिता) ‘पेरियार’ (महान) की उपाधियों से विभूषित किया। 95 वर्ष की उम्र में 24 दिसम्बर 1973 को तमिलनाडु के वेल्लोर क्रिश्चन हॉस्पीटल में उनका निधन हो गया। दूसरे दिन उनके शव को चेन्नई के पेरियार थाइडल में एक सादे समारोह में लकड़ी के ताबूत में उन्हें दफना दिया गया। पर उनका विचार,सिद्धांत आज भी दुनिया में वैज्ञानिक मानवतावाद को बल प्रदान कर रहा। जब कभी भी देश और समाज में अंधकार घर बनाने लगता है तब तब पेरियार द्वारा दी गई रोशनी देश और समाज को दिशा दिखाने का काम करता है।
  गोपेंद्र कु. सिन्हा गौतम

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