संध्या का छुटपुटा हो गया था। अंधेरा धीरे-धीरे पाँव पसार रहा था। जीवन संगीत मद्धिम पड़़ रहा था। दिनभर की भागदौड़ के बाद एक शांति। सूर्य देव भी विश्राम के इरादे से अस्ताचल गामी हो गए थे। न जाने क्यों वीरेंद्र बाबू का मन भी डूबा जा रहा था…रम्मो! रम्मो!
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रम्मो शायद किचन में व्यस्त हो गई थी। बढ़ती उम्र के कारण थोड़ा ऊँचा सुनने लगी थी और वीरेंद्र बाबू कुछ चिड़चिड़े हो गए थे। यूँ तो अपनी फुर्ती और सुती काया से उम्र को ठेंगा दिखाने वाली रम्मो में भी चुप्पी गहराती जा रही थी। बच्चे नीड़ से दूर परदेस में जाकर बस गए थे। एक सूनापन! खालीपन! एक खालीपन!
रम्मो! रम्मो! आवाज में कुछ तीखापन और क्रोध समाहित हो गया था। उम्र का एक ऐसा पड़ाव जब दोनों एक दूसरे का सहारा होते हुए भी एक दूसरे पर खीजते, झगड़ते। शायद ही कोई दिन ऐसा होता जब उनका ऊँचा स्वर चहारदीवारी से बाहर न जाता हो पर अगले ही पल बच्चों से वीडियो चैटिंग करते खूब हँसते-खिलखिलाते। समय का एक चेहरा यह भी था। अड़ोसी-पड़ोसी भी आदि हो चुके थे।
कुकर सीटी दे रहा था। आलू- मेथी की खुश्बू क्षुधा को बढ़ा रही थी,गोरी सलोनी लोइयाँ रोटी की शक्ल पाने को तैयार थीं…तभी रम्मो गश खाकर गिर पड़ी। आवाज सुन वीरेन्द्र बाबू दौड़े -भागेे किचन में पहुँचे, रम्मो बेसुध पड़ी थीं।
रम्मो! रम्मो! बदहवास हो यहाँ-वहाँ दौड़ने लगे। घबराकर कुछ नहीं सूझा तो पानी हथेली में ले रम्मो के मुँह पर छिटक दिया। साढ़े दस बजने आए वीरेंद्र बाबू आईसीयू के बाहर बेचैनी से चक्कर काट रहे थे। न कुछ खाया, न पिया। कभी हाथ जोड़ ईश्वर से प्रार्थना करते, तो बीच -बीच में रुमाल से नाक पोंछते और कभी चश्मा साफ करते। गौर वर्णी चेहरा क्लांत हो गया था ।आँखें अंगार सी तप रही थीं। पूरी रात आंखों में कट गई।
”पेशेंट इस आउट ऑफ डेंजर ,आप मिल सकते हैं।” वीरेन तीर से अंदर को दौड़े- “रम्मो ! रम्मो!” और अपनी रम्मो का हाथ अपने हाथ में ले लिया.. “कहाँ चल दी थी मुझे छोड़कर…? मेरे बारे में जरा भी न सोचा ? यह भी न सोचा कि तेरे जाने के बाद मेरा क्या होगा..?”
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उनकी बूढ़ी आँखों से झरते आँसू रम्मो की सूखी झुर्रियों के मकड़जाल सजी हथेलियों पर पड़े ।बहुत कोशिश कर कठिनाई से आँखें खोलकर ,कमजोर स्वर में बोलीं…”आप टेंशन नहीं लीजिए जी! बीपी बढ़ जाएगा नाश्ता किया कि नहीं? और हाँ शुगर की गोली लेना मत भूलना! मुन्ना के बापू ! मुन्ना को फोन कर देना सब ठीक है वो चिंता ना करे!” वीरेंद्र बाबू का हृदय मानो फूट पड़ा… दोनों हाथ अपने हाथ में लेकर बोले..”कभी तो अपने लिए जी लिया कर रम्मो !”