इस्लामी तुर्की के बारहवें राष्ट्रपति साठ-वर्षीय कट्टरवादी रजब तैयब इर्दुगान शायद अरबी शब्दों रहीम (दयालु) और रहमत (कृपा) के मायने ठीक से नहीं जानते। वर्ना वे एक तरुण, सोलह साल के अल्पवयस्क को जेल के सींखचों के पीछे नहीं फिकवा देते। उस नासमझ छोकरे ने एक मामूली सा मजाक किया था। मात्र एक चुहल थी।
तीसरी बार राष्ट्रपति पुननिर्वाचित होने पर इर्दुगान के पोस्टर शहरों में साटे गए थे। इसमें उनके ओठों के ऊपर इस किशोर ने आधे इंच की मूंछ खींच दी। एडोल्फ हिटलर की जैसी ही। तुर्की पुलिस ने मायने लगाए कि तैयब को हिटलर का अवतार बताने की साजिश रची है। इतना गूढ़ अर्थ ? बंदर को इतना प्यार तो अपनी पूंछ से भी नहीं होता ? अर्थात उस बच्चे ने एक स्वाभाविक तिफ्लानी हरकत की। हंस कर भुला देते। पर समूचे तुर्किया की इस्लामी सत्ता की तौहीन मानी गई। बवंडर उठा दिया। एक नौउम्र कमसिन से इतना खौफ ?
हालांकि उसकी यह मूछोंवाली चित्रकारी शायद एक प्रतीक है कि कभी सेक्युलर गणराज्य रहा तुर्की अब क्रूर मजहबी रियासत हो जाएगा। जर्मन गणराज्य को हिटलर ने ऐसा ही कर डाला था। नतीजा सबको पता है। ठीक ऐसे ही दौर से इर्दुगान भी गुजर चुके हैं। दो दशक बीते इर्दुगान स्वयं भी जेल में डाल दिए गए थे।
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एक बार 1998 में चुनावी भाषण के दौरान सरकार के धार्मिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने वाली एक कविता को पढ़ने के लिए उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया था। उन्हें चार महीने तक कैद कर दिया था। बाद में इर्दुगान ने खुलेआम इस्लामवादी राजनीति को त्याग दिया और 2001 में मध्यममार्गी पार्टी (एकेपी) की स्थापना की थी। मगर अब सत्तामद में इर्दुगान लोक-स्वतंत्रता की उपेक्षा करने लगे हैं। तुर्की पत्रकारों की बहुत बड़ी संख्या मे कैद इसका सूचक है। केवल राष्ट्रपति पर व्यंग करने के लिए करीब सत्रह हजार नागरिक अभी जेलों में हैं।
तो यूरोप के सीमावर्ती देश इस तुर्की की त्रासदी क्या है ? कभी मुस्लिम मुल्कों के गुट का एक अकेला सेक्युलर राष्ट्र तुर्की था जो (24 जुलाई 2023) से इस्लामी राष्ट्र में पुनः ढल गया। राजधानी अंकारा के अनितकबीर स्मारक में दफ़न महान धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रपिता (अतातुर्क) मुस्तफा कमाल पाशा अपनी कब्र में व्याकुल हो रहे होंगे कि स्वराष्ट्र को उन्होंने कितना प्रगतिवादी बनाया था। आज उग्रवादियों ने उसे कैसा कदीमी बना डाला !लल! निन्यानबे प्रतिशत मुसलिम आबादी वाले तुर्की में हिजाब और बुरका पर पाबंदी थी। अब हट गई।
एक सदी हुए, भारी संख्या में मुसलमानों के होने के बावजूद, रूढ़िवादी रस्मों को नेस्तनाबूद कर मुस्तफा कमाल पाशा ने निजामे मुस्तफा को रद्द कर दिया था। तुर्की को सेक्युलर जम्हूरियत बनाया था। बुरका प्रथा और बहुपत्नी व्यवस्था का अंत कर दिया। ऐतिहासिक सोफिया चर्च को, जिसे खलीफा ने मस्जिद में परिवर्तित कर दिया था, कमाल पाशा ने राष्ट्रीय संग्रहालय बना दिया था। इस तरह युवा तुर्क मुस्तफा कमाल पाशा ने इस्लाम के विश्व मुख्यालय के खलीफा को उनके सिंहासन से हटा दिया था। ऑटोमन साम्राज्य के सुल्तान मोहम्मद द्वितीय को खत्म कर दिया था। उन्होंने एक पिछड़े, सामंती राष्ट्र का पूर्णरूपेण आधुनिकीकरण कर दिया था।
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आज मुद्दा है कि आखिरकार इतना विकराल खतरा महाबली इर्दुगान को एक मामूली तरुण से क्यों? दुनियाभर की मीडिया ने इस खबर को नमकीन बनाकर छापा। आखिर सिर्फ कुछ बालों का, चंद रोयों का ही तो मसला है। इसने हर जनवादी व्यक्ति के रोंगटे खड़े कर दिए! उनके पोस्टर पर दो छोटी लकीरें खींच देने से तुर्की राष्ट्रपति को इतनी व्याकुलता ? एक उर्दू शेर याद आया। तब शायर ने कहा था कि उनकी प्रियतमा के कपोल रक्तिम हो गए क्योंकि उन्होंने स्वप्न में उसकी तस्वीर के गालों का चुंबन लिया था।
अब इस्तानबुल से मिली खबरों पर यकीन किया जाए तो गौरतलब बात यह है कि तुर्की के महाशक्तिशाली सदरे जम्हूरिया जनाब रजब तैयब इर्दुगन कांप उठे हैं। उनकी काबीना के बारे में ताजा सूचना है कि राष्ट्रपति की देखादेखी में उनके मंत्री भी अब सफाचट जगह पर मूंछे उगा रहे हैं। इनमे विदेश मंत्री हकन फिदान, वित्तमंत्री मेहमत सिमसेक और संस्कृति मंत्री मेहमत एर्सोई हैं। गत वर्ष तक आधे से अधिक मंत्री बिन दाढ़ी-मूंछ के थे। बताया गया है कि राष्ट्रपति का आदेश है कि मूंछे उगाओ।
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शायद एहसास हो गया है कि मूंछों का पर्याय है पौरूष, सम्मान, गर्व, गौरव और सैन्यबल है। मगर हिटलरी मूंछों से इतना खौफ क्यों ? और कहीं राजपूतों की, उदयपुर और चित्तौड़ वालों की लंबी मूंछे ये तुर्कीवाले देख लेते तो? मुगलों को तो दहशत हो ही गई थी। इसी परिवेश में सोवियत-कम्युनिस्ट सम्राट जोसेफ स्तालिन की घनी-फैली मूछें याद आती हैं। रूसी समुंदरी सैरगाह याल्टा में (4-11 फरवरी 1945) द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर को हराने के लिए बनती कार्यवाही पर चर्चा हेतु अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रुजवेल्ट, ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और स्टालिन की बैठक हुई थी। सुबह चाय पर चर्चा करते वक्त चर्चिल ने कहा कि उन्होंने गत रात्रि एक सपना देखा कि विश्व सरकार का गठन हो गया और वे उसके प्रधानमंत्री बने हैं।
रुजवेल्ट ने कहा उन्होंने भी ऐसा ही सपना देखा था। बस अंतर इतना था कि वे विश्व सरकार के राष्ट्रपति चुने गए हैं। अपने ओठों से लगे पाइप में से तंबाखू की राख झाड़ते हुये स्तालिन ने बताया : “मैंने भी सपना देखा कि तुम दोनों को मैंने ही मनोनीत किया है।” अब स्तालिन की डरावनी मूछों का असर तो पड़ना ही था इन दोनों सफाचट ठुड्डिवाले रुजवेल्ट और चर्चिल पर। मगर तुर्की में तो एक लड़के द्वारा काले ब्रुश से पोस्टर पर आधी मूछें रंग देने मात्र से तुर्की सरकार नर्वस हो जाए? इतना डर?