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शहीदों का स्मारक को तरस रही ‘चांदा’ की धरती

 दया शंकर चौधरी

देश के प्रथम स्वाधीनता आंदोलन में अनगिनत शहीदों के खून से लाल हुई सुल्तानपुर के ‘चांदा’ की धरती 160 वर्षों बाद आज भी उपेक्षित है। देश के लिए खुद को कुर्बान करने वाले शहीदों की याद में यहां आज तक कोई स्मारक तक नहीं बन सका। यहां से चुनकर दिल्ली और लखनऊ जाने वाले जन प्रतिधियों को भी जंग-ए-आजादी के इन दीवानों की शहादत याद नहीं आई।

लखनऊ। वाराणसी राजमार्ग पर स्थित ‘चांदा’ सुल्तानपुर जिले की लंभुआ तहसील का परगना है। जिले के गभड़िया व कादूनाला भी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाइयों के साक्षी जरूर हैं, पर जिले का प्रवेश द्वार होने के कारण चांदा इनमें अग्रणी रहा। आजादी के दीवानों ने लखनऊ की ओर बढ़ रहे फिरंगियों को सबसे पहले यहीं रोका था। 1857 में अवध सरकार की ओर से सुल्तानपुर में मेंहदी हसन नाजिम नियुक्त था। बगावत का बिगुल बजा तो जिले के सभी तालुकेदार मेंहदी हसन के नेतृत्व में एकजुट हो गए। तालुकेदारों की इस फौज में विद्रोही सैनिकों के अलावा किसान भी शामिल थे। मुकाबले के लिए मेंहदी हसन ने सुल्तानपुर से दस किलोमीटर हसनपुर रियासत को केंद्र बनाया।

  • 160 साल पहले किसानों ने फूंका था आजादी का विगुल
  • आजादी के दीवानों ने यहीं खट्टे किए थे अंग्रेजों का दांत

इसकी भनक लगते ही कर्नल राउटन ने भारी फौज के साथ सुल्तानपुर कूच किया। चांदा से पहले कोइरीपुर नाले के किनारे अंग्रेजों ने डेरा डाल दिया। उधर, मेंहदी हसन ने पांच हजार घुड़सवारों के साथ भदैंया नाले पर किलेबंदी कर ली। दोनों सेनाओं के बीच चांदा की धरती पर भीषण युद्ध हुआ। हालांकि युद्ध की बाजी अंग्रेजों के हाथ लगी। लेकिन इन जांबाजों की शहादत ने अंग्रेजी हुकूमत को हिला दिया। इसमें कालाकांकर के राजकुमार भी वीरगति को प्राप्त हुए। इसमें अमेठी, हसनपुर, मेवपुर धवरुआ समेत कई तालुकदारों ने हिस्सा लिया था।

हार के बावजूद क्रांतिकारियों के हौसले पस्त नहीं हुए। वे ब्रिटिश कंपनियों की टुकड़ियों पर बराबर हमले बोलते रहे और अंग्रेजों को आगे बढ़ने से रोकने में सफल रहे। उस समय मेंहदी हसन चांदा से चार मील दक्षिण वारी (प्रतापगढ़) गांव में थे। यहां वे सुरक्षित नहीं थे। जल्द ही वह हसनपुर चले आए। यहां राजा हसन अली व अन्य तालुकदारों ने उसकी भरपूर मदद की। सब ने पूरी तैयारी के बाद चांदा में फिर से अंग्रेजों से लोहा लेने का प्रण किया। तब तक 20 हजार सैनिक तैयार किए जा चुके थे। इसी बीच आजादी के दीवानों को खबर लगी कि जनरल फ्रैंक सुल्तानपुर की ओर चल पड़ा है तो वे भी चांदा की ओर चल पड़े।

मेंहदी हसन के सहयोग के लिए लखनऊ से बंदे हसन भी आठ हजार सैनिकों के साथ चांदा पहुंच गए। दोनों सेनाओं में भीषण युद्ध हुआ। अंग्रेजों की तोपों के सामने मेंहदी हसन के सैनिक टिक नहीं पाए। यहां हुए युद्ध में भारतीयों की वीरता और उनकी रणनीति का खुलासा ब्रिटिश गवर्नमेंट सेक्रेटरी को भेजे गए जनरल फ्रैंक व पी. करनेगी के पत्रों से भी होता है। इनमें कहा गया है कि अगर अंग्रेजी फौज के पास तोपें न होती तो जीतना नामुमकिन था। जंगे आजादी के इन वीरों की शहादत आज भी ‘चांदा’ के आंचल में छिपी हुई है। दुखद है कि आजादी के 70 साल बाद भी इनका कोई स्मारक तक यहां नहीं बना। चांदा के युद्ध की ऐतिहासिकता का महत्व उत्तर प्रदेश सरकार से प्रकाशित ‘फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश’ नामक पुस्तक में अंकित है। इसके बावजूद यहां पर बलिदानियों की स्मृति में कोई पत्थर तक नहीं लगा है।

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