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आज भी बिहार को बाहरी रोटी की दरकार क्यों ?

डेढ़ दशक से अधिक से विकास के ढिंढोरा पीटने वाली तथाकथित डबल इंजन की सरकार बिहार वासियों को बिहार के अंदर रोजगार छोड़िए दोनों वक्त के निवाला उपलब्ध करवाने में कामयाब होती नहीं दिख रही है। त्योहारों के मौसम में आज भी राज्य के बाहर से आने वाले बिहारी मेहनतकश कामगारों को देश की प्रमुख शहरों से खुलने वाली रेलगाड़ियों में पैर रखने के लिए जगह नहीं मिलती है।महिनों पहले से अपनी सीट सुरक्षित करवाने के लिए लोग लग जाते हैं पर फिर भी सभी लोग भारी भीड़ भाड के कारण ससमय घर लौटने में कामयाब नहीं हो पाते।त्योहार के बाद फिर अपने कार्य स्थल पर लौटने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है।

आखिर इस पलायन के लिए कोई तो जरूर जिम्मेवार होगा ? कब तक अपनी विफलताओं को पिछले सरकारों के माथे फोड़ा जाता रहेगा।डेढ़ दशक से अधिक समय गुजर गया,बिहारी मेहनतकश कामगारों की तस्वीर बदली जा सकती थी।लेकिन अपनी तस्वीर बनाने की फिराक में इन कामगारों की शुद्ध लेने वाला कोई नहीं है! महामारी के समय रिकॉर्ड तीस लाख बिहारी लोग पलायन के शिकार हुए थे।

बेरोजगारी आज बिहार के ग्रामीण क्षेत्र की एक बड़ी समस्या है।बदले हालात में गांवों में रोजगार उपलब्ध नही होने से लोगों को परिवार का गुजर बसर करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है ।महामारी में बड़ी संख्या में लोग देश-विदेश के कोने-कोने से लोग अपने घर इस इरादे के साथ पहुंचे थे कि अब वे वापस कभी नहीं लौटेंगे,लेकिन गांवों में रोजगार के अवसर नहीं मिलने से फिर लोग पलायन करने को मजबूर हैं।लोगों को मजबूरन अपने गांव शहर राज्य से बाहर की ओर रुख करना पड़ रहा है। महामारी के समय मजदूरों और कामगारों को लेकर बड़ी बड़ी सरकारी घोषणाएं तो हुई, लेकिन वे घोषणाएं धरातल पर दम तोड़ती नजर आई। बाहर से आए लोगों के लिए मनरेगा समेत अन्य योजनाओं में रोजगार सृजन की बात कही गई थी,पर वास्तव में धरातल पर मजदूरों के हालात में कोई बदलाव नहीं हुआ।

मजदूरों को सही तरीके से मनरेगा योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है।गांव से मजदूरों का शहरों की ओर पलायन गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराने वाली मनरेगा जैसी योजनाओं पर कई बड़े सवाल खड़े करती है। पंचायतों तक मनरेगा में हर साल करोड़ों की रकम पहुंचती है, लेकिन मनरेगा से काम पाने की राह इतनी कठिन हैं कि मजदूर इस योजना से मुंह मोड़ने लगे हैं। मशीनों से काम हो रहा है और मजदूरों के नाम पर राशि का बंदरबांट किया जा रहा है।मनरेगा के अधिकारी और जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से सारा काम ट्रैक्टर और बुलडोजर से हो जाता है और फिर मजदूरों के नाम पर पैसे का निकासी कर लिया जाता है।

एक पंचायत में हजारों मजदूर मनरेगा से निबंधित हैं, लेकिन एक भी मजदूर को 100 दिन की गारंटी रोजगार का लाभ शायद ही कभी और कहीं मिल पाता है।हालांकि, पंचायतों में मनरेगा योजना के तहत करोड़ों की योजनाओं का काम करने का दावा किया जाता है।गांवों में आज भी सड़क, संचार, स्वच्छता, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम है। इसलिए गावों में आधारभूत ढांचे की कमी भी पलायन की एक बड़ी वजह है।

पलायन से भी बड़ी गंभीर समस्या आने वाले दिन में बिहार को भुगतना पड़ेगा जो वर्तमान सरकार द्वारा खड़ा किया जा रहा है।सरकार गरीबों में एक आदत डाल रही है “मुफ्तखोरी की आदत”। मुफ्तखोरी की आदत को बढ़ावा देना और समाज को बांटकर सत्ता हासिल करना बहुत ही खतरनाक तरकीब है जो आज की सरकारों और राजनीतिक दलों द्वारा अपनाया जा रहा है।किसी को मुफ्त में कुछ चीजें देकर वोट तो खरीदा जा सकता है पर राज्य,देश और देशवासियों की तकदीर और तस्वीर को नहीं बदला जा सकता है।बात बात में मुफ्त में बांटे जाने वाली चीजों की जगह एक समान शिक्षा और परीक्षा प्रणाली,सामान्य स्वास्थ्य सुविधाएं और सबके लिए यथा संभव योग्यता अनुरूप स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर मुहैया कराई जाए तो रातो – रात राज्य की तस्वीर और राज्यों से तुरंत बेहतर होने लगेगी।क्योंकि बिहारियों में एक सबसे अच्छी चीज है वह है “मेहनत करने की क्षमता” जिस का दोहन आज तक किसी ने समुचित तरीके से नहीं किया।

आज जिस तरह से पूरे देश में समाज को बांट बांट कर सत्ता की चाबी हासिल करने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है वह देश को एक खतरनाक मोड़ पर ले जाने वाला साबित होगा।जब देश के एक बहुत बड़े आबादी द्वारा सामाजिक आर्थिक जनगणना रिपोर्ट प्रकाशित करने और जातिगत जनगणना की मांग की जा रही है तो उस पर सरकार की टालमटोल की रवैया उन लोगों में अविश्वास भरने का काम कर रहा है। आने वाले समय में यह मुद्दा देश में क्रांतिकारी बदलाव का बाहक बनेगा जिस तरह से मंडल कमीशन के कुछ प्रावधानों के लागू करने से उन्नीस सौ नब्बे के दशक में हुआ था।जिसके परिणाम आज परिलक्षित होने लगे हैं।
मुफ्तखोरी और समाज को बांट कर राज्य करने जैसी गतिविधियों को रोकने के लिए समाज के बुद्धिजीवी तबके को आगे आना होगा।अपने बुद्धि विवेक का सहारा लेकर सियासतदानों के काली करतूतों को जनता के सामने लाना चाहिए।जनता को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए जो न के बराबर हो रहा है।लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया के एक बड़े तबके अभी सत्ता की हनक और धन की खनक  के चलते देश के मूलभूत समस्याओं को उजागर की जगह  सत्ताधारी के प्रचारक के रूप में काम करने लगी है जो बहुत ही अफसोस जनक है।

  गोपेंद्र कु. सिन्हा गौतम

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