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हिन्दू धर्म में गाय पूजनीय है तो बैल का भी है पूजनीय महत्व

दया शंकर चौधरी

हिन्दू धर्म में अलग-अलग त्योहारों का अपना अलग महत्व है। हर त्योहार को किसी न किसी अलग रूप में मनाया जाता है। इन्हीं त्योहारों में से एक है महाशिवरात्रि। इस दिन भगवान शिव और देवी पार्वती के मिलन उत्सव को बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है। मान्यतानुसार शिवरात्रि के दिन ही भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। इस दिन भगवान शिव की पूरे विधि-विधान के साथ पूजा अर्चना की जाती है और व्रत उपवास करने का विधान है। हिन्दू पंचांग के अनुसार, महाशिवरात्रि का त्योहार प्रति वर्ष फाल्गुन माह कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है। यह त्योहार भगवान शिव और पार्वती माता के विवाहोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस साल फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि 11 मार्च (गुरुवार) को पड़ रही है। इसलिए ये त्योहार उसी दिन मनाया जाएगा।
महा शिवरत्रि के दिन भगवान शिव और माता पार्वती के साथ ही नन्दी (बैल)की पूजा का भी विधान है।

विश्व के सभी धर्मों में है बैल का पूजनीय महत्व

बैल की पूजा या कथा विश्व के सभी धर्मों में मिल जाएगी। सिंधु घाटी, मेसोपोटामिया, मिस्र, बेबीलोनिया, माया आदि सभी प्राचीन सभ्यताओं में बैल की पूजा का उल्लेख मिलता है। सभ्यताओं के प्राचीन खंडहरों में भी बैल की मूर्ति मिल जाएगी। सुमेरियन, असीरिया और सिंधु घाटी की खुदाई में भी बैल की मूर्ति पाई गई है। भारत में बैल खेती के लिए हल में जोते जाने वाला एक महत्वपूर्ण पशु रहा है।

मानव सभ्यता में बैलों का योगदान

बैल एक चौपाया पालतू प्राणी है। यह गोवंश के अंतर्गत आता है। बैल प्राय: हल, बैलगाड़ी आदि खींचने का कार्य करते हैं। सांड इसका एक अन्य रूप है जिसे नंदी कहा जाता है। मानव विकास में बैलों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कृषि युग में बैल ने जहां खेतों को खोदा वहीं उसने आवागमन के साधन के रूप में गाड़ी को खींचा। इसी कारण बैल की विशेषता शक्ति-संपन्नता के साथ-साथ कर्मठता भी मानी जाने लगी। एक समय था, जब बैल रेलगाड़ी भी खींचते थे। इंजन के अभाव में बैल ही मालगाड़ी को खींचा करते थे। भारतीय रेलवे के 160 वर्ष पूरे होने पर उसने ‘भारतीय रेलवे की विकास गाथा’ में इसका जिक्र किया है। इसका मतलब बैलों ने जहां बैलगाड़ी चलाई, वहीं रेलगाड़ी भी। बैलों की कई प्रजातियां पाई जाती हैं उसमें एक कस्तूरी बैल भी है।

धर्म का अवतार माना जाता है बैल

वेदों ने बैल को धर्म का अवतार माना है और गाय को विश्व की माता माना है। वेदों ने बैल को गाय से अधिक मूल्यवान माना है इसलिए उससे काम कराते समय उसे अनुचित कष्ट न हो, इस तरह से काम करवाने के नियम भी बनाए हैं। हमारे देश के 6 करोड़ 32 लाख (सन् 1992 के आंकडों के अनुसार) बैल खेतों में, रास्तों पर, तेल पीलने के कोल्हूओं में, आटा पीसने की चक्कियों में, कुओं पर लगे रेहट में रात-दिन काम करते हैं। चिलचिलाती धूप में, बर्फानी शीत में, मूसलधार वर्षा में या रात्रि के गाढ़े अंधकार में ये बैल मानव जाति के सुख, आराम व शांति के लिए काम करते हैं। बैल का मेहनताना: बैल मनुष्य की जो सेवा करता है उसका उसे कोई मेहनताना नहीं मिलता है। अंतत: बूढ़े और घायल हो चुके बैल को कत्लखाने के लिए बेच दिया जाता है। धर्मशास्त्रों के अनुसार ऐसे मनुष्य को नर्क में उबलते हुए तेल के कढ़ाव में डाला जाता है और वह वहां अनंतकाल तक तड़पते हुए उबलता रहता है। कम से कम बैल को अपने अंतिम वक्त में स्वतंत्र और खुद के तरीके से जीने का अधिकार तो मिलना ही चाहिए।

उत्तम और समर्पण भाव वाला है बैल का चरित्र

आमतौर पर खामोश रहने वाले बैल का चरित्र उत्तम और समर्पण भाव वाला बताया गया है। इसके अलावा वह बल और शक्ति का भी प्रतीक है। बैल को मोह-माया और भौतिक इच्छाओं से परे रहने वाला प्राणी भी माना जाता है। यह सीधा-साधा प्राणी जब क्रोधित होता है तो सिंह से भी भिड़ लेता है। यही कारण रहे हैं जिसके कारण भगवान शिव ने बैल को अपना वाहन बनाया। शिवजी का चरित्र भी बैल समान ही माना गया है। जिस तरह गायों में कामधेनु श्रेष्ठ है उसी तरह बैलों में नंदी श्रेष्ठ है। बैल के कई रूप हैं, उनमें से नंदी बैल प्रमुख है। बैल भगवान शिव की सवारी है। वृषभ राशि का प्रतीक भी पवित्र बैल है।

भगवान शिव के प्रमुख गणों में से एक है नंदी

नंदी के अलावा भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय भी शिव के गण हैं। माना जाता है कि प्राचीनकालीन किताब कामशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र में से कामशास्त्र के रचनाकार नंदी ही थे। बैल को महिष भी कहते हैं जिसके चलते भगवान शंकर का नाम महेष भी है।

नंदी कैसे बने शिव के गण : शिव की घोर तपस्या के बाद शिलाद ऋषि ने नंदी को पुत्र रूप में पाया था। शिलाद ऋषि ने अपने पुत्र नंदी को संपूर्ण वेदों का ज्ञान प्रदान किया। एक दिन शिलाद ऋषि के आश्रम में मित्र और वरुण नाम के दो दिव्य ऋषि पधारे। नंदी ने अपने पिता की आज्ञा से उन ऋषियों की उन्होंने अच्छे से सेवा की। जब ऋषि जाने लगे तो उन्होंने शिलाद ऋषि को तो लंबी उम्र और खुशहाल जीवन का आशीर्वाद दिया लेकिन नंदी को नहीं।

तब शिलाद ऋषि ने उनसे पूछा कि उन्होंने नंदी को आशीर्वाद क्यों नहीं दिया? इस पर ऋषियों ने कहा कि नंदी अल्पायु है। यह सुनकर शिलाद ऋषि चिंतित हो गए। पिता की चिंतित जानकर नंदी ने पूछा, “क्या बात है पिताजी।” तब पिता ने कहा कि “तुम्हारी अल्पायु के बारे में ऋषि कह गए हैं इसीलिए मैं चिंतित हूं।” यह सुनकर नंदी हंसने लगा और कहने लगा कि “आपने मुझे भगवान शिव की कृपा से पाया है तो मेरी उम्र की रक्षा भी वहीं करेंगे, आप क्यों नाहक चिंता करते हैं।”
इतना कहते ही नंदी भुवन नदी के किनारे शिव की तपस्या करने के लिए चले गए। कठोर तप के बाद शिवजी प्रकट हुए और कहा “वरदान मांगों वत्स।” तब नंदी के कहा कि “मैं उम्रभर आपके सानिध्य में रहना चाहता हूं।” नंदी के समर्पण से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने नंदी को पहले अपने गले लगाया और उन्हें बैल का चेहरा देकर अपने वाहन, अपने मित्र, तथा अपने गणों में सर्वोत्तम स्थान देकर स्वीकार कर लिया। भगवान शिव शायद ही अपनी किसी तस्वीर या मूर्ति में बैल के बिना नजर आए होंगे। ये बैल नंदी के नाम से जाना जाता है। नंदी, भगवान शिव के सामने अपने पैर मोड़कर बैठे दिखाई देते हैं।
नंदी के बाद से सभी बैल पूजनीय और भगवान शिव से जुड़े हुए माने जाने लगे। मगर ये सब हुआ कैसे? इस लेख की मदद से जानते हैं नंदी के जन्म से जुड़ी कथा और कैसे वो बने भगवान शिवजी के वाहन।

भगवान शिव की कृपा से हुआ था नंदी का जन्म

वायु पुराण में मौजूद कथा के अनुसार ऋषि कश्यप की कोई संतान नहीं थी। वो और उनकी पत्नी सुरभि इस बात से चिंतित थे और एक संतान चाहते थे जो परिवार के नाम को आगे बढ़ा सके। लगातार भगवान शिव के लिए तप करने के बाद ऋषि कश्यप और सुरभि को पुत्र की प्राप्ति हुई। बेटे के आ जाने से उनके जीवन में खुशियां लौट आयी। इस वजह से उन्होंने अपने पुत्र का नाम नंदी रखा जिसका अर्थ ही होता है उल्लास और ख़ुशी।

कुछ दूसरी पुस्तकों के मुताबिक, एक बार ऋषि शिलाद ने इंद्र देवता से अमर और मजबूत संतान की इच्छा जताई थी। तब इंद्र ने उन्हें भगवान शिव का आशीर्वाद लेने की सलाह दी। भोलेनाथ की कृपा से ऋषि शिलाद को मैदान में एक बच्चा मिला जिसे उन्होंने गोद ले लिया। शिलाद की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान वरुण और मित्र उनसे मिलने पहुंचे। उन दोनों ने शिलाद को लंबी आयु का वरदान दिया और साथ ही उन्होंने बताया कि उनका पुत्र नंदी 8 साल की उम्र में मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। उस समय नंदी की उम्र 7 बरस की थी।

जब नंदी को इस बारे में पता चला तब वो अपने पिता के दुःख को बर्दाश्त नहीं कर पाएं और तब उन्होंने अपनी भक्ति से भगवान शिव को प्रसन्न करने का निर्णय लिया। भगवान ने इस बालक की प्रार्थना सुनी और उसे दर्शन भी दिए और साथ ही तोहफे में घंटियों की एक माला दी। शिवजी ने कम आयु में मृत्यु के श्राप को खत्म किया और साथ ही नंदी को बताया कि अब वो आधा मनुष्य और आधा बैल वाले शरीर के साथ जीवन बिताएंगे। ऐसा माना जाता है कि इस घटना के बाद शिलाद और नंदी भगवान शिव के निवास स्थान पर पहुंचे। वहां शंकर जी ने नंदी को अपना वाहन बनाया।

देवता के तौर पर पूजे जाते हैं नंदी

भगवान शिव के मंदिरों में नंदी की भी पूजा की जाती है। कुरनूल में मौजूद महानंदीश्वर मंदिर जैसे और भी कुछ प्रार्थना स्थल हैं जो सिर्फ नंदी की पूजा के लिए तैयार किए गए हैं। यहां नंदी की सबसे बड़ी मूर्ति मौजूद है। नंदी न्याय, भरोसे, बुद्धिमता, साहस का प्रतीक है और इन गुणों वाला व्यक्ति भगवान शिव को प्रिय होता है। ये भी कहा जाता है कि जब भगवान शिव तांडव करते हैं तब उस वक्त नंदी संगीत बजाते हैं। शंकर भगवान की सेना का संचालन की जिम्मेदारी नंदी पर थी और उन्होंने ऐरावत नाम के दुष्ट हाथी से मुक्ति भी दिलवाई थी। नंदी धर्म की रक्षा करते हैं और वरदान भी देते हैं।

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