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सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाना जोखिम भरा फैसला!

क्रिकेट हो या कॉमेडी, माहौल बनाने में नवजोत सिंह सिद्धू माहिर रहे हैं। बेशक राजनीति में वह नये नहीं हैं। पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अपनी बड़ी राजनीतिक भूमिका की शुरुआत भी उन्होंने उसी तेजतर्रार अंदाज में की है। अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि इस शुरुआत को वह लंबी, शानदार और मैच जिताऊ पारी में बदल पाते हैं या नहीं। हालांकि सिद्धू चर्चित कॉमेडी शो का भी महत्वपूर्ण अंग रहे हैं, लेकिन क्रिकेटर काल में कप्तान अजहरुद्दीन से अनबन के चलते इंग्लैंड दौरा बीच में ही छोड़ कर चले आने से उनकी छवि अधीर और अहमन्य व्यक्ति की ही बनी। फिर जिस तरह से उन्होंने भाजपा को अलविदा कहा, उससे भी वह छवि पुष्ट हुई।

कांग्रेस में रहते हुए भी सिद्धू की चर्चा बेहतर और सकारात्मक कामकाज के लिए कम, राजनीतिक विरोधियों से टकराव के लिए ज्यादा होती रही है।

पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में अपनी नियुक्ति का इंतजार लंबा होते देख उन्होंने जिस तरह अपनी ही राज्य सरकार पर सार्वजनिक रूप से निशाना साधा और खासकर बिजली के मुद्दे पर मुख्य विपक्षी दल आप की सोच की प्रशंसा भी की, उससे भी उनकी छवि संयमी, परिपक्व और दूरदर्शी राजनेता की हरगिज नहीं बनी।

इसके बावजूद कांग्रेस आलाकमान ने पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह की इच्छा के विरुद्ध सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का जोखिमपूर्ण फैसला लेने का साहस दिखाया, तो इसका बड़ा कारण खुद कैप्टन का आचरण-व्यवहार भी रहा है। इसमें दो राय नहीं कि शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन के लगातार 10 साल शासन के बाद वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में आप को मिलती दिख रही अप्रत्याशित बढ़त के बावजूद कांग्रेस को मिले जनादेश में कैप्टन अमरेंद्र सिंह की राजनीतिक साख की बड़ी भूमिका रही। इस सीमांत राज्य के समझदार मतदाताओं ने नये राजनीतिक दल आप और उसके अघोषित नेतृत्व के बजाय देश के सबसे पुराने दल और उसके अनुभवी नेतृत्व पर विश्वास जताया। कुछ राजनीतिक प्रेक्षकों का यह आकलन भी पूरी तरह निराधार नहीं कहा जा सकता कि अंतिम क्षणों में परंपरागत अकाली-भाजपा मतदाताओं ने भी अपना मन बदला। बेशक मुख्यमंत्री बनते ही उम्रदराज अमरेंद्र सिंह ने संकेत देना शुरू कर दिया था कि यह उनकी अंतिम पारी होगी, लेकिन जरूरी प्रशासनिक एवं राजनीतिक कामकाज के प्रति भी वह जिस तरह उदासीन नजर आये—वह सभी को हैरान करने वाला रहा।

एक सीमांत राज्य के रूप में सीमा पार की नापाक पाकिस्तानी साजिशों का शिकार तो पंजाब रहा ही है, पिछले कुछ दशकों में यह प्रगतिशील प्रदेश से बदहाल राज्य भी बन गया है। खस्ता अर्थव्यवस्था वाले पंजाब में विकास तो दूर की बात है, सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने तक के पैसे नहीं रहे। आंकड़ा बहस का मुद्दा हो सकता है, लेकिन इस सच से मुंह नहीं चुराया जा सकता कि पंजाब की युवा पीढ़ी नशे के गर्त में डूब रही है या फिर विदेश पलायन के सपनों में। कभी हरित क्रांति का केंद्र रहे पंजाब में आज कृषि और किसान की बदहाली का मुंह बोलता सबूत आत्महत्याओं के आंकड़े और किसान आंदोलन है। औद्योगिकीकरण में पंजाब कहां खड़ा है, इसका अंदाजा गहराते बिजली संकट से लगाया जा सकता है। शिक्षा-स्वास्थ्य की दुर्दशा छिपी तो पहले भी किसी से नहीं थी, कोरोना काल ने उसे पूरी तरह बेनकाब कर दिया। जाहिर है, चौतरफा बदहाली वाले पंजाब को शाब्दिक नहीं, व्यावहारिक अर्थ में सुशासन की जरूरत थी, लेकिन मिला क्या? राजसी पृष्ठभूमि वाले महाराजा की आरामतलब शासन शैली, जिसमें सत्ता के सूत्र निर्वाचित जन प्रतिनिधियों से ज्यादा नौकरशाहों के हाथों में सिमटे रहे।

इसमें दो राय नहीं कि वर्ष 2014 में अमृतसर लोकसभा क्षेत्र से भाजपाई दिग्गज अरुण जेटली को हराने और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत दिलवाने के बाद पंजाब ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस में अमरेंद्र का कद बहुत बड़ा हो गया । इसलिए भी बीच-बीच में प्रताप सिंह बाजवा और नवजोत सिंह सिद्धू सरीखे कांग्रेसियों द्वारा मुखर आलोचना के बावजूद आलाकमान ने अमरेंद्र को उनके मनमाफिक पंजाब चलाने दिया—सरकार के स्तर पर भी और संगठन के स्तर पर भी। अब जबकि विधानसभा चुनाव महज सात महीने दूर हैं, शीर्ष नेतृत्व के लिए भी मूकदर्शक बने रहना मुश्किल हो गया। इसलिए भी कि पंजाब समेत गिने-चुने राज्य ही बचे हैं, जहां कांग्रेस सत्ता की दावेदार नजर आती है। यह सही है कि अमरेंद्र सिंह और सिद्धू के बीच वैचारिक या नीतिगत मतभेद नहीं हैं, सीधे-सीधे महत्वाकांक्षाओं का टकराव है। इसीलिए हर बार सिद्धू की उपमुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष पद पर दावेदारी की चर्चा सामने आयी।

उपमुख्यमंत्री बनाना मुख्यमंत्री का विशेषाधिकार है, लेकिन प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति आलाकमान के हाथ थी। उसे रुकवाने की भी अमरेंद्र ने अंतिम क्षणों तक कोशिश की, पर उनका तरीका शायद आलाकमान को उकसाने वाला ही साबित हुआ। अपनी बात स्वयं आलाकमान से कहने के बजाय उन्होंने जिस तरह अपने ओएसडी के हाथ कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र भेजा, वह कांग्रेस तो दूर, किसी भी राजनीतिक दल में स्वीकार्य नहीं हो सकता। उस पत्र की भाषा भी दल और राज्य के हित में अपने तर्क रखने के बजाय आलाकमान को चेतावनी-चुनौती देने वाली रही।

उसके बाद तो आलाकमान को खुद अपनी साख बचाने के लिए जरूरी हो गया था कि वह कैप्टन अमरेंद्र सिंह के विरोध को दरकिनार करते हुए सिद्धू को ही पंजाब कांग्रेस की कमान सौंपे। इस संदेश को समझने में भी कैप्टन ने देर लगायी। अराजनीतिक और अहमन्य सिपहसालारों से घिरे कैप्टन ने सूत्रों के जरिये राग अलापा कि पहले सिद्धू सार्वजनिक रूप से माफी मांगें, तभी वह उनसे मिलेंगे, पर राजनीति में अनाड़ी अब सिद्धू भी नहीं रहे। सो, कांग्रेस के अधिकांश विधायकों के साथ स्वर्ण मंदिर जाकर कैप्टन को साफ संदेश दे दिया। उसके बाद अध्यक्ष पदभार ग्रहण कार्यक्रम में शामिल होकर आशीर्वाद देने का औपचारिक न्योता भी भिजवा दिया, जिसके बाद कैप्टन के पास कार्यक्रम में जाकर सिद्धू को आशीर्वाद देने के अलावा अपना बड़प्पन बचाने का कोई सम्मानजनक विकल्प ही नहीं बचा था। पर सत्ता शतरंज की राजनीति इतनी सरल नहीं होती। इसलिए दावे से नहीं कहा जा सकता कि कैप्टन और सिद्धू के बीच वर्चस्व की जंग यहां समाप्त होती है या फिर नये सिरे से शुरू। विधायकों का बहुमत सिद्धू के साथ नजर आया तो बनाये गये चार कार्यकारी अध्यक्षों में भी कैप्टन की पसंद का ख्याल नहीं रखा गया। बेशक पंजाब में कांग्रेस संगठन की कप्तानी नवजोत सिंह सिद्धू को सौंप दी गयी है, लेकिन मुख्यमंत्री के नाते सरकार के कप्तान तो कैप्टन अमरेंद्र सिंह ही हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि परस्पर प्रतिद्वंद्वी दो कप्तानों वाली कांग्रेस की नैया चुनाव वैतरणी पार कर पायेगी या फिर वर्चस्व की अंतर्कलह उसे मंझधार में ले जाकर छोड़ेगी। बेशक चुनाव नजदीक हों तो टिकट वितरण ही अर्जुन की आंख की तरह असली लक्ष्य बन जाता है, लेकिन उससे पहले पंजाब भर में संगठनात्मक ढांचा बनाने की कवायद भी कैप्टन और सिद्धू के बीच रस्साकशी से अछूती रह पायेगी, इसमें पूरा संदेह है।

 राजकुमार सिंह

 

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