भाजपा के खिलाफ तीसरे मोर्चे के लिए बिखरे विपक्ष को एकजुट करने निकले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने अगर देखा जाए तो अभी कई बड़ी चुनौतियां होंगी। देश में सर्वाधिक लोकसभा सीटों वाले राज्य यूपी में अभी तक जो भी गठबंधन हुए हैं, उनका अनुभव ठीक नहीं रहा है। इन स्थितियों में सपा के साथ बसपा और कांग्रेस को साथ ला पाना सबसे बड़ी चुनौती होगी।
यूपी में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के पूर्व के रिश्ते अच्छे नहीं रहे हैं। सपा वर्ष 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन करते हुए विधानसभा चुनाव लड़ी। मगर सपा को 47 और कांग्रेस को मात्र छह सीटें ही मिली। यह गठबंधन वर्ष 2019 का लोकसभा चुनाव आते-आते टूट गया।
सपा ने बसपा की तरफ हाथ बढ़ाया और मायावती स्टेट गेस्ट हाउस कांड को भुलाते हुए तैयार हो गईं। तब दावा किया जा रहा था कि एससी, ओबीसी और मुस्लिम मतदाताओं के साथ आने पर गठबंधन कोई गुल खिलाएगा, लेकिन मात्र 15 सीटें मिलीं। सपा को पांच और बसपा को 10 सीटें मिली। मायावती ने यह आरोप लगाते हुए दोस्ती तोड़ दी कि सपा का वोट बैंक बसपा को ट्रांसफर नहीं हुआ, जबकि उसका हो गया।
यूपी में कांग्रेस की हालत काफी पतली है। बसपा भी पिछले कई चुनावों से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। नीतीश कुमार द्वारा तीसरे मोर्चे के लिए कवायद शुरू करते समय ही मायावती यह साफ कर चुकी हैं कि वह लोकसभा चुनाव में किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेंगी। सवाल यह भी है कि रालोद और जद-यू का यूपी में कोई खास जनाधार नहीं है।
अगर मान लिया जाए कि भाजपा से निजात पाने के लिए बदले हालात में गठबंधन हो भी जाए तो साझेदारी कैसे तय होगी, यह बड़ा सवाल है। सपा और बसपा का उदय ही कांग्रेस के विरोध से हुआ है। ऐसे में दोनों पार्टियां कांग्रेस के साथ कैसे आएंगी। अगर आने को तैयार भी हो जाएं तो किसके हिस्से में कितनी सीटें जाएंगी यह कैसे तय होगा।