अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में आप अक्सर देखते होंगे कि जहां कुछ लोग सफल व् शक्तिशाली होने के वावजूद बेहद विनम्र होते हैं, वही कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी शक्ति या योग्यता के घमंड में चूर दिखते हैं। थोड़ी बहुत मात्रा में अपनी सफलताओं या योग्यताओं के प्रति गर्व का भाव होना स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अच्छा भी है।
पर जब यही गर्व अनियंत्रित और अविवेकी होने लगता है तो घमंड या अहंकार की शक्ल अख्तियार कर लेता है और व्यक्ति पर धब्बे की तरह छा जाता है। ऐसे व्यक्ति को यह समझना बहुत जरूरी है कि अहंकार या घमंड करना बुनियादी तौर पर एक किस्म की मूर्खता है जिससे बचना ही बेहतर है।
अहंकारी व्यक्ति का मनोविज्ञान भ्रांतकेन्द्रित होता है। वह स्वयं को ब्रह्माण्ड मान कर उसे अपना स्थायभाव में तब्दील कर देता है और अपने नज़रिए से हर चीज़ की व्याख्या करना चाहता है। “मैं” का भाव उस पर हावी हो जाता है और और उसके लिए उससे बच पाना फिर एक दुरूह कार्य साबित हो जाता है।
अपनी छोटी-मोटी सफलताओं से उत्साहित होकर वह मान बैठता है कि यह दुनिया उसी की बदौलत चल रही है। हमारे भीतर थोड़ा बहुत गर्व का भाव बने रहना जरूरी है, किन्तु उतना ही जरूरी यह भी है कि हम अपनी “लघुता” से भी परिचित हों। अपनी लघुता को समझते ही व्यक्ति विनम्र होने लगता है और यही विनम्रता उसकी शक्ति बनने लगती है।
अपनी लघुता को समझने का एक तरीका यह है कि हम अपने व्यक्तित्व का मूल्यांकन ईमानदारी से करें। “व्यक्तित्व” के निर्माण में व्यक्ति की भूमिका नहीं के बराबर होती है—सरल भाषा में कहें तो हमारे “व्यक्तित्व” के निर्माण में व्यक्ति की अपनी सभी विशेषताओं में दो कारकों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। पहला, यह कि हमें अनुवांशिक रूप से कौन से गुण हासिल हुए हैं और दूसरा यह कि हमें अपनी क्षमताओं को विकसित करने के लिए कैसी परिस्थितियाँ मिली हैं।
अगर कोई व्यक्ति लंबा, गोरा या अत्यधिक बुद्धिमान है तो यह मोटे तौर पर उसके अनुवांशिक गुणों की वजह से है जिसमें उसका अपना कोई योगदान नहीं है। इसी प्रकार, किसी व्यक्ति को बचपन से अच्छा माहौल और सुविधाएँ मिली हैं तो स्वाभाविक रूप से उसका व्यक्तित्व बेहतर हो जाएगा किन्तु इसमें भी उसका कोई योगदान नहीं है।
इस परिचर्चा का सार यह नहीं मान लेना चाहिए कि व्यक्ति को आत्मविश्वास या आत्मगौरव से वंचित हो जाना चाहिए। अपने व्यक्तित्व के सकारात्मक पक्षों के प्रति गौरव-बोध का होना जरूरी है क्योंकि उसी से हमारा आत्म-विश्वास, हमारी सांसारिक सफलता आदि तय होती है।
सवाल सिर्फ इतना है कि हम अपने गौरव-बोध को कितना छूट दें? क्या हम अपने गौरव-बोध को इतना ‘अनियंत्रित’ हो जाने दें कि वह दूसरों के ‘आत्म-गौरव’ को कुचलता रहे ? बेहतर यही है कि हम अपने गौरव को दूसरों के आत्म-गौरव के साथ समन्वय की स्तिथि में लाएँ। अपनी लघुता का अहसास किसी न किसी मात्रा में बनाए रखें। इसी मानसिकता से व्यक्ति और समाज का सह-सम्बन्ध सुखद और सकारात्मक हो सकता है।