मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, वह निरंतर चिंतन मनन करता रहता है। यदि जीवन को समझने का प्रयास किया जाए,तो वह किसी अजूबे से कम नहीं है।बुढ़िया का जीवन भी किसी अजूबे से कम नहीं था। वह जीवन के अंतिम चरण से गुजर रही थी चार पुत्र थे उसके। चारों पुत्रों से अथाह प्रेम करती थी। चार में से तीन विवाहित थे। चौथा अविवाहित और उसकी आंखों का तारा था।
समय धीरे-धीरे बीत रहा था। और छोटे को भी हल्दी लग गई, अब वह भी सबके बराबर हुआ। परिवार की आर्थिक स्थिति जर्जर थी। किसी तरह परिवार चल रहा था। एक समस्या खत्म हुई नहीं की, दूसरी मुंह बाये तैयार रहती थी। पारिवारिक सदस्यों में अनबन होने लगी और परिवार धीरे धीरे बिखराव की तरफ बढ़ने लगा। बड़ा बेटा स्वभाव से आदर्शवादी और किसानी करता था। उसके खर्च ज्यादा थे क्योंकि उसका परिवार लंबा था। मझला और सझला दोनों कमासुत थे। दोनों भाई जो भी कुछ धनार्जन करते थे उसमें से थोड़ा बहुत बड़े भाई को परिवार चलाने के लिए देते थे।
आंधी की तरह कुछ और समय बीता बुढ़िया और दोनों बेटों को यह शक होने लगा की बड़ा बेटा पैसा परिवार में न लगाकर वह अपने लिए इकट्ठा कर रहा है। उसके लाख सफाई देने के बावजूद कोई मानने को तैयार नहीं था अंततः बड़े बेटे को अलग कर दिया। बड़े बेटे के प्रति उसका मोह भंग हुआ। अब वह मझले बेटे में रहने लगी एवं उसी के सारे कार्यों को करती थी। परंतु यह अधिक दिन तक नहीं चल सका। एक-एक करके सारे बेटे अलग हो गए। अब बुढ़िया का कोई ठिकाना न रहा।
अब वह अपने बूढ़े पति के साथ एक अलग मड़ई में रहने लगी। इस समय तक उसका चारों बेटों से मोहभंग हो चुका था और वह नाती-पोतों वाली हो गई थी। जैसे-जैसे समय गुजरता था उसका प्रेम अपने नाती पोतों के प्रति बढ़ने लगा। अब वही उसकी अंतिम पूंजी थी जिसको हमेशा संजोए रखना चाहती थी उसे कभी खोना नहीं चाहती थी। अथाह था बूढ़िया का प्रेम।