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भारतीय राजनीति के संत थे ओमप्रकाश 

लेखक- अंकुर सिंह

भारतीय राजनीति और चुनावी माहौल में जब कभी भी ईमानदार और बेदाग राजनीतिज्ञों का ज़िक्र होगा, तब हमेशा उत्तर प्रदेश सरकार में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य मंत्री रहे स्वर्गीय ओमप्रकाश श्रीवास्तव की छवि स्वतः जनमानस के स्मृति में उभरेगी। पूर्व दिवंगत प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के मित्र ओम प्रकाश श्रीवास्तव का जन्म 03 फरवरी 1931 (स्कूलों के अभिलेखों में दर्ज़ जन्मतिथि 15 अप्रैल 1933) को उत्तर प्रदेश के जौनपुर में अपने ननिहाल बूढ़ापुर गांव में हुआ था। ढाई वर्ष की उम्र में पिता का साया उठ जाने के बाद, उनका पालन-पोषण नाना शिवबरत लाल ने किया। इस कारण से अपनेे पैतृक गांव रामपुर चौकिया (जौनपुर जिला) में ओमप्रकाश और माता सतवंती देवी को रहने का अवसर बहुत कम मिला।

गोरखपुर के सरदार नगर चीनी मिल में हुई हड़ताल के सिलसिले में सोशलिस्ट पार्टी के नेता मधुकर दिधे भी उन्हीं दिनों  जेल में बंद थे। जेल प्रवास के दौरान, मधुकर दिधे और श्रीवास्तव के बीच संघ और सोशलिस्ट विचारधारा पर काफी बातचीत होती थी। कभी-कभी ये बातचीत विवाद में तब्दील हो जाती थी लेकिन, इससे आपसी रिश्तों पर फर्क नहीं पड़ता था। एक बार बहस के दौरान, मधुकर दिधे ने पूछा, “ओमप्रकाश, तुम संघ का बहुत बखान करते हो तो मुझे इतना बताओं कि युवाओं की इतनी बड़ी संख्या होने पर भी संघ ने देश के आजादी में सहयोग और बँटवारे के खिलाफ विरोध दर्ज कराने में साक्रिय भूमिका क्यों नहीं निभाई ?” ओमप्रकाश ने भी लोगों को संतुष्ट करने वाला रटा-रटाया सा जवाब तो दे दिया, कि “संघ उस समय शक्ति अर्जित कर रहा था”, लेकिन, यह जवाब खुद उन्हें भी असंतुष्ट कर रहा था। इसके अलावा भी ऐसी बहुत सी बातें ओमप्रकाश के मन को कचोटती रहती थीं, जो धीरे-धीरे उन्हें संघ से दूर कर रही थी।

जेल प्रवास के दौरान, तत्कालीन सरकार ने एक प्रस्ताव दिया कि यदि निरोधक नजरबंदी में बंद छात्र लिखित आश्वासन दें कि वह संघ छोड़ देंगे, तो उनको जेल से रिहा किया जा सकता है। ओमप्रकाश के कई मित्रों और रिश्तेदारों ने उन्हें इस अवसर का लाभ भुनाने को कहा। हालाँकि, ओमप्रकाश मन ही मन संघ छोड़ने का निश्चय पहले ही कर चुके थे लेकिन,  संघ के लोग बाद में प्रचार कर सकते थे कि सरकार और जेल के डर के कारण, ओमप्रकाश ने संघ का साथ छोड़ दिया। इस आशंका के कारण और अपने स्वाभिमान के लिए ओमप्रकाश ने तय किया कि सज़ा के बचे हुए दिन भी वो जेल में ही रहेंगे। जब इस बात कि भनक उनके परिचितों को लगी, तो सबने उनकी माँ के ज़रिए उन पर दबाव डालना चाहा। इस पर उनकी साहसी माँ ने जवाब दिया कि “इतने महीने ओमप्रकाश जेल में रह चुका है, कुछ महीनों के लिए माफ़ी माँगेगा तो लोगों को क्या मुँह दिखाऊंगी?” प्रणाम करता हूँ मैं उस माँ की सोच को जो पति का साया न रहने पर भी बेटे के साहस को कमजोर नहीं होने देती। लोगों के सवालों के प्रतिउत्तर में ओमप्रकाश की माँ सतवंती देवी ने  कहा कि “मेरा बेटा चोरी, डकैती में जेल नहीं जाता बल्कि, देश और समाज के कल्याण के लिए जेल जाता है।”

ओमप्रकाश के पारिवारिक जीवन की बात की जाए तो उन्होंने आजीवन शादी न करने की ठानी थी लेकिन, उन्हें को बिना बताए उनकी माँ और भाभी ने उनकी शादी सुशीला से तय कर दी थी। इसलिए, माँ की ममता के सामने उन्हें झुकना पड़ा और जून 1955 में उनकी शादी सुशीला से हुई। ओमप्रकाश की पत्नी सुशीला के बारे में जितना कहा जाए वो कम होगा। भारतीय राजनीति में ओमप्रकाश के विचारों और संघर्ष जनमानस को क्रांति की जो राह मिलेगी, उसका श्रेय उनकी पत्नी सुशीला को भी जाएगा। उनकी पत्नी अपने नाम के अनुकूल ही थीं। अपने सामाजिक जीवन के लिए समर्पित होने के कारण, ओमप्रकाश अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ अच्छी तरह निभा नहीं पाते थे। इस पर जब कोई कुछ कहता तो सुशीला हमेशा पति का साथ देतीं और कहतीं  “भले मेरे पति नौकरी नहीं करते पर वो बड़े बुद्धिमान और अच्छे वक्ता हैं। काफी सम्मानित लोगों के बीच उनका मान-सम्मान हैं।” ठीक ही कहते हैं कि एक आदर्श व्यक्ति को समाज की प्रेरणा बनने में सबसे ज्यादा तकलीफ उसके परिवार को ही उठानी पड़ती है। चंदशेखर आजाद, भगत सिंह, सुभाष चंद बोस जैसे अनगिनत परिवार इसके उदाहरण हैं। ओमप्रकाश को ओमप्रकाश बनने के सफर में उनका परिवार भी उन तकलीफों से अछूता नहीं रहा।

किसी के सामने हाथ फैलाने से पति और परिवार का मान-सम्मान कम ना हो इस उद्देश्य से सुशीला ने 1956 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के बालिका विद्यालय फिर लखनऊ में आर्य बालिका विद्यालय में नौकरी किया और पति के राजनीति शिखर पर होने पर भी गरीब और असहाय बच्चों को निःशुल्क शिक्षा सहित अन्य सुविधा प्रदान करती रही। सच कहूं तो ओमप्रकाश श्रीवास्तव के संस्मरण संघर्ष दर संघर्ष में सुशीला के मधुर और सुशील स्वाभाव के बारे में जितना पढ़ा उससे ज्यादा अपने पिता श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह (हरदासीपुर,चंदवक,जौनपुर) सहित अन्य लोगों से सुना कि जब भी हम लोग मंत्री जी (ओमप्रकाश) के जेजे कालोनी (जौनपुर कचहरी) आवास पर जाते थे तो सुशीला चाची कभी भी हम कार्यकताओं और अपने पुत्र मनोज (अधिवक्ता, जौनपुर) में कोई भेदभाव नहीं करतीं। सच कहूं तो कठिनाई के उस दौर में सुशीला दादी (दादी संबोधन इसलिए क्योंकि मेरे पिता उन्हें चाची कहा करते थे) के हौसले भरे संघर्ष और आज के इस परिवेश में खुद के शादी के लिए आ रहे लड़कियों के विचारों को तौलता हूँ तो ह्रदय में सुशीला दादी कि प्रतिमूर्ति दुर्गा और अन्नपूर्णा जैसी उभरती हैं।

सुशीला दादी के संघर्षपूर्ण कुशल पारिवारिक प्रबंधन के बावजूद ओमप्रकाश श्रीवास्तव पर एक बेटे और पांच बेटियों के परिवार को चलाने का दबाव भी आता रहा। पार्टी से तनख्वाह रूप में मिलने वाले 75 रूपये में से 10 से 15 रुपए बचाकर या फिर कभी-कभी चंद्रशेखर जी से कुछ कर्ज लेकर मुश्किल से पत्नी सुशीला को कुछ पैसे भेज पाते। इसी बीच कुछ पारिवारिक लोगों की सलाह पर ओमप्रकाश वकालत कि पढाई करके जौनपुर में वकालत के साथ राजनीति भी करने लगे। लेकिन, सार्वजानिक जीवन होने के कारण बहुत सारे परचितों से वकालत की फ़ीस लेना भी उन्हें अनुचित लगने लगा। खैर जैसे-तैसे वकालत चलती रही। इसी दौरान, ओमप्रकाश ने जौनपुर में ज़मीन खरीदकर मकान बना लिया। बताने वाले ये भी बताते हैं कि उस मकान पर उसके बाद कोई निर्माण नहीं हुआ चाहे ओमप्रकाश बाबू मंत्री रहे हो या विधायक। दरअसल, उन्हें वकालत के साथ राजनीति करना काफी मुश्किल हो रहा था, इस पर एक पुराने मित्र दयानन्द सहाय ने उन्हें लखनऊ में अपनी कम्पनी में रेजिडेंट डायरेक्टर का ऑफर दिया। शुरूआत में ओमप्रकश श्रीवास्तव  ने उसे ठुकरा दिया लेकिन, मित्र उदित (उस समय के राजस्व मंत्री) सहित चंद्रशेखर जी के दबाव में उन्हें हामी भरनी पड़ी और वकालत छोड़ लखनऊ वापस आना पड़ा। कम्पनी से उन्हें मिले आवास पर ही प्रदेश के नेताओं की बैठकी हुआ करती थी।

चंद्रशेखर सहित अन्य कई समाजवादियों के कांग्रेस में आने के साथ ओमप्रकाश भी कांग्रेस से जुड़ गए और 1974 में पहली बार कांग्रेस संगठन के प्रत्याशी रामलगन सिंह को चुनाव हराकर जौनपुर विधानसभा से विधायक बने। उत्तर प्रदेश में हेमवतीनदन बहुगुणा की सरकार बनी और कुछ राजनीति समीकरणों के कारण बहुगुणा जी चाहते हुए भी अपने मंत्रिमंडल में ओमप्रकाश को शामिल नहीं कर सके। बहुगुणा जी ओमप्रकाश से विशेष स्नेह रखते थे कई बार मीटिंग में यहाँ तक कह दिया करते थे कि मैं चाहते हुए भी ओमप्रकाश को मंत्री नहीं बना सका पर आप लोग इन्हें वो सम्मान ज़रूर दिया करें।

इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने 12 जून 1975 को लोकबंधु राजनारायण के याचिका पर अपने फैसले में इंदिरा गाँधी के चुनाव को रद्द करते हुए उन्हें अगले 6 वर्षों तक चुनाव न लड़ने की बात कही। जिससे देश में आपातकाल लग गया। जिसमें जयप्रकाश नारायण और चंद्रशेखर सहित कई नेता नजरबंद हुए और जेल भेजे गए। इस आपातकाल में कईयों के दोमुखी चरित्र का भी दर्शन हुआ। जो साथ थे उनमें से कई सत्ता के लालच में साथ छोड़ते नज़र आये। कुछ ऐसे विश्वासपात्र भी थे जिनका साथ धुव्र तारे जैसा अटल रहा। अपने छात्र जीवन में जब कभी मैं ओमप्रकाश बाबा के आवास पर मिलाने जाता और बाबा अपने राजनीतिक अनुभव और संस्मरण सुनाते तो आपातकाल के उदहारण से मुझे भविष्य में सजग रहने की नसीहत भी देते और कहते कि “जिन्हें हम अपना समझते हैं, उनमें से बहुतों का साथ सबसे पहले छूटता है। जब समय विपरीत होता है तब जिन्हें पराया समझते हैं वह कभी-कभी हमारे विचारों से प्रभावित हो हमारे लिए आजीवन समर्पित हो जाते हैं।” अपने छोटे से अनुभव से कहूं तो यदि बदलते परिवेश (राजनीतिक,सामाजिक या पारिवारिक) में मौकापरस्त लोगों के परखने का अनुभव लेना हो तो पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी की लिखी मेरी जेल यात्रा जरूर पढिएगा।

खैर, इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार बनी। पर, कहते है कि चार भाइयों का परिवार साथ लेकर चलना मुश्किल होता है, तो ज़रा सोचिए, कई राजनीतिक दलों को एक कुनबे में बांधे रखना कितना मुश्किल रहा होगा। अंत में वह समय भी आया जब जनता पार्टी का कुनबा धराशायी हुआ और सरकार गिर गई। उसके कुछ सालों बाद 6 जनवरी 1983 को चंद्रशेखर जी ने कन्याकुमारी से दिल्ली तक ऐतिहासिक पदयात्रा किया। जिसकी जिम्मेदारी इंद्र कुमार गुजराल, किशोर लाल, कृष्णकांत, मोहन धारिया सहित कुछ अन्य लोगों को दी गई और ओमप्रकाश जी इसके पूर्णकालिक सचिव रहे। इस पद यात्रा में देश के कई राज्यों में चंद्रशेखर जी ने भारत यात्रा ट्रस्ट की स्थापना की और इस ट्रस्ट के सचिव ओमप्रकाश श्रीवास्तव मनोनीत किये गए।

इंदिरा गांधी के हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में इंदिरा के प्रति लोगों में सहानुभूति की लहर थी। श्रीवास्तव जी ने जौनपुर से चुनाव लड़े परन्तु चंदशेखर जी सहित देश के अन्य बड़े नेताओं की तरह इंदिरा सहानभूति में पराजित हुए एवं 1988 में विधानपरिषद के लिए चुने गए। उधर केंद्र में नाटकीय ढंग से चुनी गई वीपी सिंह की सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और 10 नवम्बर 1990 को देश ने चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री के रूप में देखा। उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार थी तथा दिल्ली और यूपी (चंद्रशेखर और मुलायम) के रिश्ते काफी अच्छे थे। चंद्रशेखर के करीबी होने के कारण 20 दिसंबर 1990 को ओमप्रकाश जी ने मंत्री पद की शपथ लिया। ये एक संयोग मात्र था की ये मंत्री पद उन्हें दिल्ली और यूपी के निकटता के कारण मिला, सच्चे अर्थों में कहूं तो ये इसके हकदार बहुगुणा जी के सरकार में ही थे। ओमप्रकाश ने अपने मंत्री रूप में मिलने वाली किसी भी सेवा को लिया (जैसे इनके मित्र चंद्रशेखर जी अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में कभी प्रधानमंत्री आवास का लाभ नहीं लिया)।

दिसंबर 2006 में श्रीवास्तव जी की धर्मपत्नी सुशीला दादी के देहांत से उबरे नहीं थे कि 8 जुलाई 2007 में उनके परम मित्र एवं पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर जी का भी देहांत हो गया। बतौर ओमप्रकाश तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने श्रीमती सोनिया गांधी को सुझाव दिया कि चंद्रशेखर जी (अध्यक्ष जी) का अंतिम संस्कार बलिया या भोंडसी (भारत यात्रा केंद्र) पर किया जाए (जैसे पूर्व पीएम नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं हुआ)। जब ये बात ओमप्रकाश को पता चला तो उन्होंने रामविलास पासवान और लालू से मिलकर उनसे कहा कि चंद्रशेखर जी आपके नेता है और उनके अंतिम संस्कार का इंतजाम सम्मान के साथ राजघाट पर कराएं। खैर, जैसे-तैसे सरकार तैयार हुई चंद्रशेखर जी का अंतिम संस्कार राजघाट पर किया गया।

चंद्रशेखर जी के मृत्यु उपरांत बलिया से नीरज शेखर के चुनाव जितने के बाद ओमप्रकश जी सक्रिय राजनीति से दूर से हो गए और अपना ज्यादातर समय जौनपुर, लखनऊ सहित कुछ अन्य जगहों पर पुराने साथियों द्वारा आयोजित कार्यकर्मों में देने लगे और बढ़ती उम्र में भी इनके पढ़ने-लिखने का शौक जारी रहा। इस दौरान मैं अपनी उम्र में समझने परखने के दौर में आ चुका था। घर में समाजसेवी पिता द्वारा अधिकतर ओमप्रकाश बाबा और चंदशेखर सहित अन्य नेताओं जैसे जार्ज फर्नाडीज (पूर्व केंद्रीय मंत्री), राम कृष्ण हेंगड़े (पूर्व मुख्यमंत्री, कर्नाटक) सहित अन्य कई पूर्व एवं वर्तमान नेताओं से मुलकात और संघर्ष के किस्से सुनता रहता था। लगभग ढाई से तीन दशक पहले मेरे पिता बीजेपी में आ गए (इसका एक कारण ये भी था कि परिवार के कुछ अन्य सदस्य जनसंघ से जुड़े थे) पर ओमप्रकाश बाबा, चंदशेखर जी सहित अन्य कई नेताओं के संघर्ष की कहानियों के साथ अपनी राजनितिक सफर का वाक्या मुझे सुनाते रहते थे और कहते कि “जब तुम छोटे थे तो चंदशेखर जी से मिले हो, भविष्य में तुम किसी भी क्षेत्र में रहना इनके जैसा सादगीपूर्ण जीवन उच्च विचार को अपनाते हुए लोगों के साथ अपने व्यक्तिगत सबंधों को हमेशा महत्त्व देना भले उस आदमी की परिस्थिति और हालात जैसे भी रहें।”

इन सभी के बीच मेरा दाखिला जौनपुर प्रसाद पॉलिटेक्निक में हुआ और घर से रोज के 80 किलोमीटर के सफर के साथ पढ़ाई का सफर भी चलता रहा। जब क्लास नहीं चलती और पता होता ओमप्रकाश बाबा (पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश) जौनपुर में हैं तो कॉलेज से कुछ किलोमीटर के दूर उनके आवास पर पहुँच जाता मिलने। उनके आशीर्वाद संग पुराने राजनितिक किस्सें भी सुनता। पहले भी मुलाकात होती थी पर इन तीन सालों में काफी करीब हो गया ओमप्रकाश बाबा के,मुझे मिलने पर कभी ये नहीं लगा कि मैं किसी राजनेता के घर आया हूँ लगता अपने दादा के पास बैठा हूँ (अपने दादा को मैंने नहीं देखा हैं, पिता जी के दो साल उम्र में,दादा जी का देहांत हो गया था)। पढाई ख़त्म कर नौकरी के सिलसिले में कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्रा के बाद वर्तमान में माँ शारदा की नगरी मैहर मध्य प्रदेश में अभियंता पद पर कार्यरत हूँ। जहाँ भी रहा ओमप्रकाश बाबा से बात होती रही मेरी और छुट्टियों दिनों में उनके जौनपुर में रहने पर मुलाकात भी। जहाँ भी रहा यदि वहाँ कोई ओमप्रकाश बाबा का परिचित होता तो उससे मिलने को कहते और आज भी उनमें से कइयों का स्नेह मुझे मिलता रहता हैं।

फरवरी 2020 में पूर्व चंद्रशेखर जी के करीबी रहे और भारत यात्रा ट्रस्ट के ट्रस्टी पयागीपुर, जिला बाराइच के सूर्य कुमार सिंह (जिन्हें चाचा कह के सम्बोधित करता हूँ) के बेटी के शादी में लखनऊ आना हुआ। देश के बड़े-बड़े राजनीतिक हस्ती भी इस शादी के साक्षी रहे । अगले दिन जब जानकारी हुई की ओमप्रकाश बाबा (पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश) लखनऊ में हैं तब मैंने उनसे मिलने की इच्छा बताई और उनके लखनऊ आवास का पता पूछा। उम्र के 80 साल के पड़ाव पर पहुंच रहे ओमप्रकाश जी के शब्द फोन पर स्पष्ट सुनाई नहीं पड़ रहे थे।

जैसे-तैसे उनके आवास पर पहुंचा, वहां जाकरआचर्यचकित हुआ लखनऊ का आवास तो जौनपुर आवास से भी साधारण, बिजली की वायरिंग, मकान की बनावट सब पुराने ज़माने की तरह। बाबा शरीर से काफी दुबले हो चुके थे पर स्मरण शक्ति आज भी पहले जैसी थी। उन्होंने कहा खाना खा लो मैंने कहा कि खाकर आया हूं तभी अंदर से उनकी बेटी (बुआ) की आवाज आई बाबू जी भी नहीं खाए हैं बोल रहे थे अंकुर आ रहा तो उसके साथ में खाएंगे। इतना सुनते ही मेरे आखों में आँसू आ गए की देश की इतनी बड़ी पहचान, उत्तर प्रदेश के कई मुख्यमंत्री के विश्वासपात्र और देश के तीन प्रधानमंत्री के सहयोगी एक मामूली अंकुर का इन्तजार कर रहा। मैंने भी तुरंत खाने कि हामी भर दी और कुछ समय तक हाल-चाल, पुराने किस्से सुनने के बाद उनका आशीर्वाद लेकर विदा हुआ।

अगस्त 2021 में मैहर से गाँव आया था छुट्टियों में। उसी समय इनके पुत्र मनोज चाचा से जानकारी हुई कि कुछ दिन से बाबा जौनपुर में हैं फिर मैंने कहा कि कल बाबा से मिलने आ रहा हूं। लेकिन, कुछ पारिवारिक विवादों के कारण उस दिन नहीं जा सका। 01 सितम्बर को सुबह फिर फ़ोन किया कि दोपहर का खाना बाबा के साथ खाऊंगा। इसकी सुचना गृह जनपद के साहित्यकार रंगनाथ भैया को भी दिया कि आज आपके घर भी आऊंगा। सुबह के लगभग साढ़े सात बजे होंगे और अपने बाजार चंदवक पहुंचते ही रंगनाथ भैया का फ़ोन आया कि नेता जी (ओमप्रकाश जी) नहीं रहें। भरोसा ही नहीं हुआ कि दो घंटे पहले तक चलता फिरता इंसान अचानक से…..!!

सच कहूं तो उस दिन मुझे एक दिन के देरी का महत्व समझ में आया जिसके कारण बाबा से मेरी आखिरी मुलाकात जीवन भर के लिए अधूरी ही रह गयी।

खैर, इसकी पुष्टि मनोज चाचा से होने के बाद इसकी जानकारी मैंने कुछ अन्य परिचितों को भी दे दी और भारतीय राजनीति के संत पूर्व मंत्री, उत्तर प्रदेश ओमप्रकाश श्रीवास्तव (बाबा) के पार्थिव शरीर के दर्शन को उनके आश्रम की ओर चल पड़ा। बाबा के अंतिम दर्शन के साथ मैंने उस आश्रम को भी प्रणाम किया जो एक पूर्व मंत्री के आवास के साथ आज भी भौतिकता से काफी परे था। बाबा को नमन करने के साथ भगवान से विनती करूँगा कि सादगी और विशाल हृदय वाले ओमप्रकाश श्रीवास्तव जी के आत्मा को अपने श्री चरणों में जगह दें।

 

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