पितृसत्तात्मक समाज औरत को स्वतंत्रता और फैसला लेने का अधिकार नहीं देता। यह समाज हमेशा ही महिलाओं को सामाजिक रोक-टोक से जकड़कर रखना चाहता है। हमारे समाज को महिला की प्रगति से डर लगता है। सामाजिक व्यवस्था महिला शोषण से चलती है और महिलाओं का उत्थान शोषण को खत्म करता है। महिलाओं को अपने अधिकारों को लागू करता देख यह समाज उन्हें रोकने के लिए बहुत से षड्यंत्र रचता है। इसका मूल आधार है हमारा रूढ़िवादी समाज, उसकी दमनकारी सोच, असमानता और लिंग के आधार पर भेदभाव ही है। इसी सोच को यह डर है वह जिन महिलाओं को चार दीवारी में बांध कर रखना चाहते हैं, जिसे वह खुद से कमतर आंकते हैं, क्या पता वो पुरुषों से बहुत आगे निकल जाए? इसी दमनकारी सोच के लोगों को महिलाओं का चहकना, खुलकर बातें करना, आर्थिक रूप से स्वतंत्र रहना रास नहीं आता। यह पुरुष प्रधान समाज चाहता है कि उनकी बेटी, पत्नी, बहनों को समान अधिकार मिलने की जगह घर के अंदर सीमित रखा जाए।
पितृसत्ता एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसमें प्रभुत्व और विशेषाधिकार के पदों पर मुख्य रूप से पुरुषों का वर्चस्व है। यह अनिवार्य रूप से जीवन के विभिन्न पहलुओं जैसे नैतिक अधिकार, सामाजिक विशेषाधिकार, निर्णय लेने, संपत्ति पर नियंत्रण और राजनीतिक नेतृत्व में पुरुष वर्चस्व की एक प्रणाली है। महिलाओं की अधीनता कई मायनों में स्पष्ट है, निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में, जहां महिलाओं को उन अधिकारों और उन चीजों तक पहुंच से वंचित रखा जाता है, जो पुरुषों के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। इसने अतीत की लंबी प्रथाओं और महिलाओं की अधीनता के कारण समकालीन समय में भारत में मध्यवर्गीय कामकाजी महिलाओं की स्थिति में बाधा उत्पन्न की है। भारतीय समाज में पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण के अस्तित्व के कारण देखें तो पहले, महिलाओं को एक पुरुष-प्रधान, पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था, पुरानी पारंपरिक मान्यताओं के पालन, और इसी तरह के परिणामस्वरूप कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। महिलाओं की जिम्मेदारियां बच्चे पैदा करने और बच्चों के पालन-पोषण जैसे पारंपरिक कार्यों तक ही सीमित थीं। उदाहरण के लिए: मनु स्मृति के अनुसार, विवाह को कभी भी तोड़ा नहीं जा सकता, तलाक की कल्पना नहीं की जा सकती थी और विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। जाति व्यवस्था ने भारत में, पितृसत्ता और जाति व्यवस्था के बीच गठजोड़ को ऐतिहासिक रूप से शोषक और परस्पर एक दूसरे के आहार के रूप में पाया गया है।
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समाजीकरण की प्रक्रिया में पितृसत्तात्मक मूल्यों और विचारों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण होता है। समाजीकरण, समाज के मानदंडों और विचारधाराओं को आत्मसात करने की प्रक्रिया है। समाजीकरण की यह प्रक्रिया समाज में पितृसत्ता के सामान्यीकरण का आधार बनाती है। परिवारों और विवाह में, पितृसत्ता सूक्ष्म रूप से परिलक्षित होती है, जैसे कि बहू पहली व्यक्ति होती है, जिससे घर के कामों में मदद की उम्मीद की जाती है। बहू को नौकरी पर रखना चाहिए या नहीं, इस पर नियंत्रण और यदि हां, तो पेशे के चयन अधिकार भी पति और ससुराल वालों के पास होता है। रूढ़िवादिता के अस्तित्व से भारत में बालिकाओं को अक्सर पारंपरिक मान्यताओं के कारण शिक्षा के अपने अधिकार से वंचित रखा जाता है, क्योंकि उनसे परिवार में भूमिका निभाने की उम्मीद की जाती है। चूंकि लड़कियां घरेलू कर्तव्यों का पालन करने में अधिक समय बिताती हैं और इससे भारत के ग्रामीण हिस्सों में महिला और पुरुष समानता के बीच की खाई बढ़ जाती है और यह मिथक कायम रहता है कि शिक्षा लड़की के लिए कोई आवश्यक नहीं है और उसका प्राथमिक काम घर के काम की देखभाल करना होगा, जल्दी शादी करो, बच्चे पैदा करो और फिर उनकी परवरिश करो।
भारत में व्यापक गरीबी और आर्थिक कुप्रबंधन ने पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए वेतन और वेतनभोगी रोजगार के विस्तार को रोका है, लेकिन स्थिति विशेष रूप से महिलाओं के लिए गंभीर है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के लिए श्रम-बल भागीदारी दरों में स्पष्ट लैंगिक असमानता है। पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने के लिए आवश्यक नीतिगत सुधार करना जरूरी हो गया है, महिलाओं के पूर्ण विकास के लिए सकारात्मक आर्थिक और सामाजिक नीतियों के माध्यम से एक ऐसा वातावरण तैयार करना, जिससे वे अपनी पूरी क्षमता का उपयोग करने में सक्षम हो सकें। महिलाओं को अपने अधिकारों को समझने और अपने आत्म-सम्मान को महत्व देने के लिए प्रोत्साहित करना होगा। स्कूलों और गैर-सरकारी संगठनों को महिलाओं के अधिकारों के बारे में जागरूकता फैलाने और लिंग संबंधी रूढ़िवादिता को तोड़ने की जरूरत है। लड़कियों के खेल, फोटोग्राफी, पत्रकारिता और अन्य गैर-पारंपरिक गतिविधियों आदि को पढ़ाने वाले लड़कियों और लड़कों के क्लबों को सुविधाजनक बनाने जैसे अन्य उपायों पर भी विचार किया जाना चाहिए।
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बाल और कम उम्र में विवाह समाप्त करने के लिए उपाय करना, जैसे- पंचायतों को “बाल-विवाह मुक्त” बनाने में सहायता करना, और महिलाओं के विरुद्ध भेदभाव को समाप्त करने के लिए कानूनी और आपराधिक व्यवस्था को मजबूत करना। लैंगिक संवेदनशीलता समुदाय में महिलाओं और पुरुषों के विभिन्न अधिकारों, भूमिकाओं और जिम्मेदारियों और उनके बीच संबंधों को स्वीकार करने के लिए सामाजिक-सांस्कृतिक मानदंडों और भेदभावों को समझने और उन पर विचार करने को संदर्भित करता है। विकास प्रक्रिया में लैंगिक परिप्रेक्ष्य को मुख्यधारा में लाने की आवश्यकता है। सशक्तिकरण के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सभी स्तरों पर सत्ता की साझेदारी और निर्णय लेने में सक्रिय भागीदारी में महिलाओं की समानता को उचित महत्व दिया जाएगा। माता-पिता को अपने बच्चों को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि दुनिया उनके कार्यों के माध्यम से सभी के लिए है। उदाहरण के लिए, घर में काम करने वाला पुरुष, अपनी पत्नी के साथ कुछ समय के लिए खाना बनाना या उसके काम में मदद करना बच्चे के जीवन में बहुत बड़ा अंतर लाएगा। इससे बच्चे में यह भावना विकसित होती है कि कोई भी कार्य किसी के लिए प्रतिबंधित नहीं है और किसी को भी कोई भी कार्य करने से प्रतिबंधित नहीं किया जाता है।
भारत में व्यापक गरीबी और आर्थिक कुप्रबंधन ने पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए वेतन और वेतनभोगी रोजगार के विस्तार को रोका है, लेकिन स्थिति विशेष रूप से महिलाओं के लिए गंभीर है। ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के लिए श्रम-बल भागीदारी दरों में स्पष्ट लैंगिक असमानता है। पिछले तीन दशकों के दौरान शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और परिवार नियोजन, रोजगार के अवसर, निर्णय लेने और शासन में महिलाओं की पहुंच में सुधार हुआ है। इसके बावजूद, महिलाओं के लिए सच्ची मुक्ति हासिल करने के लिए भारत में और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है।पितृसत्तात्मक समाज की सोच को बदलने के लिए राजनीतिक दलों, सरकारों एवं सामाजिक संगठनों को मिलकर काम करना होगा। इस मानसिकता के नहीं बदलने तक महिलाओं की स्थिति में सुधार संभव नहीं है। आज भी स्वतंत्र स्त्री की पराधीनता में सबसे बड़ी बाधक बात यही है कि वह हमेशा किसी न किसी के साथ तुलना की शिकार हो जाती है, वह एक स्वतंत्र इकाई के रूप में स्वीकार्य ही नहीं की जाती है।
पितृसत्तात्मक समाज की सोच को बदलने के लिए राजनीतिक दलों, सरकारों एवं सामाजिक संगठनों को मिलकर काम करना होगा। इस मानसिकता के नहीं बदलने तक महिलाओं की स्थिति में सुधार संभव नहीं है। आज भी स्वतंत्र स्त्री की पराधीनता में सबसे बड़ी बाधक बात यही है कि वह हमेशा किसी न किसी के साथ तुलना की शिकार हो जाती है, वह एक स्वतंत्र इकाई के रूप में स्वीकार्य ही नहीं की जाती है। समाज के हर सदस्य को समान व्यवहार मिलना चाहिए फिर चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, उसकी तुलना मानवीय मूल्यों के साथ की जानी चाहिए।