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पेगासस, सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच सुप्रीम कोर्ट

         प्रेम शर्मा

पेगासस और कुछ अन्य मुद्दों को लेकर, संसद के मॉनसून सत्र में शुरू से ही दोनों सदनों में गतिरोध बना हुआ है। 19 जुलाई से यह सत्र आरंभ हुआ था, लेकिन अब तक दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित रही है। खास बाॅत यह कि इस बीच पेगासस मामले में याचिका स्वीकार होने के बाद यह मामला गम्भीर हो गया हैं। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट क्या निर्णय लेगा इस पर सरकार और विपक्ष दोनों की आॅखें टिकी है।सुप्रीम कोर्ट ने पेगासस कांड पर कहा कि अगर आरोप सही हैं तो काफी गंभीर हैं। कोर्ट ने इस मामले की स्वतंत्र जांच की मांग वाली याचिका पर पर सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की थी। दरअसल, इजरायली कंपनी एनएसओ के स्पाईवेयर पेगासस के जरिए पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं समेत कई लोगों की कथित तौर पर जासूसी की गई थी। शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं से केंद्र सरकार को अपनी याचिका की प्रतियां देने के लिए कहा है। शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ताओं से सवाल किया कि जासूसी से प्रभावित व्यक्तियों द्वारा इस अदालत का दरवाजा खटखटाने से पहले पुलिस के पास आपराधिक शिकायत दर्ज करने का कोई प्रयास नहीं किया गया।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने फिलहाल इस मामले में केंद्र सरकार को औपचारिक नोटिस जारी नहीं किया है। सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने कहा, श्अगर मीडिया में रिपोर्ट सही है तो आरोप गंभीर प्रकृति के हैं। मैं यह भी नहीं कहना चाहता कि दलीलों में कुछ भी नहीं है। हम यह भी नहीं कह रहे हैं कि कुछ याचिकाकर्ता इससे प्रभावित नहीं हुए हैं। कुछ का दावा है कि उनके फोन हैक हो गए हैं। लेकिन सवाल यह है कि उन्होंने आपराधिक शिकायत दर्ज करने का प्रयास क्यों नहीं किया।श् शीर्ष अदालत पेगासस जासूसी मामले की जांच की मांग वाली नौ याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी।

याचिकाकर्ता वरिष्ठ पत्रकार एन राम की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने पेगासस को एक ‘‘ दुष्ट तकनीक ’’ बताते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय हित को भेद करने तकनीक है। इसके जरिए हमारी जानकारी के बिना हमारे जीवन में घुसपैठ की गई है। फोन के जरिए हमारे जीवन में प्रवेश किया गया। यह गोपनीयता, मानवीय गरिमा और हमारे गणराज्य पर हमला है।चीफ जस्टिस ने सभी याचिकाकर्ताओं से यह भी सवाल किया कि यह मुद्दा 2019 में सामने आया था लेकिन तब कोई गंभीर चिंता क्यों नहीं जताई गई थी ? चीफ जस्टिस ने यह भी कहा, श्जिन लोगों को रिट याचिकाएं दायर की हैं वे अधिक जानकार और साधन संपन्न हैं। उन्हें अधिक इस मामले में सामग्री जुटाने के लिए और अधिक मेहनत करनी चाहिए थी।

पेगासस जासूसी कांड मामले में वरिष्ठ पत्रकार एनराम और शशिकुमार, सीपीएम के राज्यसभा सांसद जॉन ब्रिटास और वकील एमएल शर्मा ने याचिकाएं दाखिल की हैं। पेगासस जासूसी मामले पर आज सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं का पक्ष सुनने के बाद सभी याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे अपनी याचिका की प्रति केंद्र को दें। 10 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट मामले की दोबारा सुनवाई करेगा। एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया संघ ने एक खबर में दावा किया कि पेगासस स्पाईवेयर के जरिये जासूसी के संभावित निशाने वाली सूची में 300 भारतीय मोबाइल फोन नंबर शामिल थे।पेरिस स्थित एक मीडिया नॉन प्रॉफिट फॉरबिडेन स्टोरीज और ऐमनेस्टी इंटरनैशनल को विभिन्न देशों के ऐसे 50,000 फोन नंबरों की सूची मिली, जिनके बारे में संदेह है कि पेगासस स्पाईवेयर के जरिए उनकी हैकिंग कराई गई। इन नंबरों में भारत के 40 पत्रकारों सहित केंद्रीय मंत्रियों, विपक्ष के नेताओं, सुरक्षा संगठनों के मौजूदा और पूर्व प्रमुखों, वैज्ञानिकों आदि के भी शामिल होने की बात कही जा रही है। इस्राइली कंपनी एनएसओ ग्रुप के पेगासस स्पाईवेयर से जुड़ा विवाद दो साल पहले भी उठा था। सरकार ने तब भी इस बात से इनकार किया था कि किसी तरह की अवैध निगरानी कराई जा रही है। इस बार भी केंद्रीय सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री ने संसद में साफ-साफ कहा कि भारत में चेक एंड बैलेंस की जितनी पक्की कानूनी व्यवस्था है, उसमें यह संभव ही नहीं कि सरकार के स्तर पर किसी तरह से अवैध जासूसी कराई जा सके। लेकिन जब इस तरह के सवाल उठ जाते हैं तो सिर्फ खंडन से बात नहीं बनती। कोई ऐसा रास्ता तलाशना पड़ता है, जिससे सवालों के विश्वसनीय जवाब मिल सकें। जब तक ऐसी कोई राह नहीं निकलती, तब तक हंगामा और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता रहेगा।

इस बीच सरकार और विपक्ष को यह देखना भी जरूरी था कि शोर-शराबे में इस मुद्दे से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पहलू दब न जाएं। पहली बात यह कि सवाल पेगासस या ऐसे किसी अन्य टूल का नहीं बल्कि उसके उपयोग और दुरुपयोग का है। जो देश पेगासस की लिस्ट में नहीं हैं, वे भी कोई दूध के धुले नहीं हैं। पिछले साल ही अमेरिका की एक अदालत ने वहां की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी द्वारा देश के अंदर बड़े पैमाने पर कराई गई फोन सर्वेलांस को असंवैधानिक करार दिया था। दूसरी बात यह कि जब फोन सर्वेलांस के ऐसे साधन उपलब्ध नहीं थे, तब भी सत्ता पक्ष द्वारा इस तरह की निगरानी कराई जाती थी। इसी आधार पर इसे सत्ता का स्वभाव करार देते हुए स्वाभाविक बताने की भी कोशिश कुछ हलकों से हो रही है। लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि सत्ता के ऐसे स्वभाव पर अंकुश लगाने की कोशिशों से ही लोकतंत्र का जन्म और विकास हुआ है।

प्राइवेसी लोकतंत्र की ओर से हर नागरिक को मिला एक ऐसा उपहार है, जिसे सत्ता के स्वभाव की भेंट नहीं चढ़ाया जा सकता। वैसे, अभी तो यह देखना होगा कि आरोपों में कितनी सचाई है, लेकिन अगर यह सच है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक अधिकारों के हनन की इस कोशिश को हलके में लेना वैश्विक लोकतंत्र को खतरे में डालना होगा। इसलिए सरकारों की कोई सीधी भूमिका हो या न हो, इसकी विश्वसनीय जांच से कतराने की कोई वजह नहीं है। इसके बावजूद इस मसले को लेकर सदन में हंगामा करने वाले दलों को यह भी सोचना चाहिए था जब मामला देश की सर्वोच्च अदालता में पहुंचा चुका है तो उसे सदन में इस मसले को लेकर हंगामा करने की जगह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए था।

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