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स्वतंत्रता आन्दोलन में क्रातिकारियों का सशत्र विद्रोह

     दया शंकर चौधरी

आजादी के अमृत महोत्सव के दौरान ये याद करना अपने आप में सुखद अनुभूति है कि भारत को विदेशियों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र विद्रोह की एक अखण्ड परम्परा रही है। सोलहवीं शताब्दी में भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का आरम्भ हो गया था। इतिहास साक्षी है कि बंगाल में सैनिक-विद्रोह, चुआड़ विद्रोह, सन्यासी विद्रोह, संथाल विद्रोह अनेक सशस्त्र विद्रोहों की परिणति सन सत्तावन के विद्रोह के रूप में हुई। प्रथम स्वातन्त्र्य–संघर्ष के असफल हो जाने पर भी विद्रोह की अग्नि ठण्डी नहीं हुई थी शीघ्र ही दस-पन्द्रह वर्षों के बाद पंजाब में कूका विद्रोह व महाराष्ट्र में वासुदेव बलवन्त फड़के के छापामार युद्ध शुरू हो गए।

संयुक्त प्रान्त में पं. गेंदालाल दीक्षित ने शिवाजी समिति और मातृदेवी नामक संस्था की स्थापना की। बंगाल में क्रान्ति की अग्नि सतत जलती रही। सरदार अजीत सिंह ने सन सत्तावन के स्वतंत्रता–आन्दोलन की पुनरावृत्ति के प्रयत्न शुरू कर दिए। रासबिहारी बोस और शचीन्द्रनाथ सान्याल ने बंगाल, बिहार, दिल्ली, राजपुताना, संयुक्त प्रान्त व पंजाब से लेकर पेशावर तक की सभी छावनियों में प्रवेश कर 1915 में पुनः विद्रोह की सारी तैयारी कर ली थी। दुर्भाग्य से यह प्रयत्न भी असफल हो गया। इसके बाद भी नए-नए क्रान्तिकारी उभरते रहे। राजा महेन्द्र प्रताप और उनके साथियों ने तो अफगान प्रदेश में अस्थायी व समानान्तर सरकार स्थापित कर ली। सैन्य संगठन कर ब्रिटिश भारत से युद्ध भी किया। रासबिहारी बोस ने जापान में आज़ाद हिन्द फौज के लिए अनुकूल भूमिका बनाई।

मलाया व सिंगापुर में आज़ाद हिन्द फौज संगठित हुई। सुभाष चन्द्र बोस ने इसी कार्य को आगे बढ़ाया। उन्होंने भारतभूमि पर अपना झण्डा गाड़ा। आज़ाद हिन्द फौज का भारत में भव्य स्वागत हुआ, उसने भारत की ब्रिटिश फौज की आँखें खोल दीं। भारतीयों का नाविक विद्रोह तो ब्रिटिश शासन पर अन्तिम प्रहार था। बता दें कि अंग्रेज़, मुट्ठी-भर गोरे सैनिकों के बल पर नहीं, बल्कि भारतीयों की फौज के बल पर शासन कर रहे थे। आरम्भिक सशस्त्र विद्रोह में क्रान्तिकारियों को भारतीय जनता की सहानुभूति प्राप्त नहीं थी। वे अपने संगठन व कार्यक्रम गुप्त रखते थे। अंग्रेज़ी शासन द्वारा शोषित जनता में उनका प्रचार नहीं था। अंग्रेजों के क्रूर व अत्याचारपूर्ण अमानवीय व्यवहारों से ही उन्हें इनके विषय में जानकारी मिली।

विशेषतः लखनऊ में काकोरी काण्ड के क्रांतिवीरों तथा भगतसिंह और उनके साथियों ने जनता का प्रेम व सहानुभूति अर्जित की थी। भगतसिंह ने अपना बलिदान क्रांति के उद्देश्य के प्रचार के लिए ही किया था। अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के लिए जनता में जागृति लाने का कार्य महात्मा गांधी के चुम्बकीय व्यक्तित्व ने किया। बंगाल की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी श्रीमती कमला दासगुप्त ने संदेश दिया कि क्रांतिकारी की निधि थी “कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान,” जबकि महात्मा गांधी की निधि थी “अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान”। सन् 42 के बाद उन्होंने अधिकतम व्यक्ति तथा अधिकतम बलिदान का मंत्र दिया। यह कहना प्रासंगिक होगा कि भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रांतिकारियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। भारतामाता के पैरों में बंधी जंजीर तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा रही है। देश की रक्षा के लिए कर्तव्य समझकर क्रांतिकारियों ने शस्त्र उठाए थे। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान वापस पाना चाहते थे। अनेक क्रान्तिकारियों के हृदय में क्रांति की ज्वाला थी, तो दूसरी ओर अध्यात्म का आकर्षण भी। हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वाले व मातृभूमि के लिए सरफरोशी की तमन्ना रखने वाले ये देशभक्त युवक भावुक ही नहीं, विचारवान भी थे। शोषणरहित समाजवादी प्रजातंत्र चाहते थे। बताया जाता है कि उन्होंने देश के संविधान की रचना भी की थी। सम्भवतः देश को स्वतंत्रता यदि सशस्त्र क्रांति के द्वारा मिली होती तो भारत का विभाजन नहीं हुआ होता, क्योंकि सत्ता उन हाथों में न आई होती, जिनके कारण देश में अनेक भीषण समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं।

लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल सका। अनेकों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि “उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया, जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन। जगमगा रहे हैं मकबरे उनके, बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।”

स्वतन्त्रता संग्राम सेनीना खुदीराम बोस – खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1889 को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के बहुवैनी नामक गाँव में कायस्थ परिवार में बाबू त्रैलोक्यनाथ बोस के यहाँ हुआ था। उनकी माता का नाम लक्ष्मीप्रिया देवी था। बालक खुदीराम के मन में देश को आजाद कराने की ऐसी लगन लगी कि उन्होंने नौवीं कक्षा के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और स्वदेशी आन्दोलन में कूद पड़े। छात्र जीवन से ही ऐसी लगन मन में लिये इस नौजवान ने हिन्दुस्तान पर अत्याचारी सत्ता चलाने वाले ब्रिटिश साम्राज्य को ध्वस्त करने के संकल्प में अलौकिक धैर्य का परिचय देते हुए पहला बम फेंका और मात्र 19 वें वर्ष में हाथ में भगवद गीता लेकर हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे पर चढ़कर इतिहास रच दिया।

हालांकि कुछ इतिहासकारों की यह धारणा है कि वे अपने देश के लिये फाँसी पर चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के ज्वलन्त तथा युवा क्रान्तिकारी देशभक्त थे। लेकिन खुदीराम से पूर्व 17 जनवरी 1872 को 68 कूकाओं के सार्वजनिक नरसंहार के समय 13 वर्ष का एक बालक भी शहीद हुआ था। उपलब्ध तथ्यानुसार उस बालक को, जिसका नंबर 50वाँ था, जैसे ही तोप के सामने लाया गया, उसने लुधियाना के तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर कावन की दाढ़ी कसकर पकड़ ली और तब तक नहीं छोड़ी जब तक उसके दोनों हाथ तलवार से काट नहीं दिये गए। बाद में उसे उसी तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया था।

जाट राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने अफगानिस्तान में बनाई थी भारत की अंतरिम सरकार

शायद कम लोग ही जानते होंगे कि आजादी से पहले ही भारत की अंतरिम सरकार का गठन कर दिया गया था। यह काम जाटों में शौर्य के प्रतीक राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने अफगानिस्तान में करके आजादी के दीवानों का हौसला बढ़ाया था। उन्होंने करीब ढाई साल तक अफगानिस्तान से भारत की अंतरिम सरकार चलाकर अंग्रेजों को चुनौती दी थी।
अभी तक राजा के नाम पर ऐसा कुछ भी नहीं है, जिससे उनकी शान में बढ़ोतरी हो।

हालांकि स्वतंत्रता सेनानी व शिक्षाविद राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम से अलीगढ़ में लोधा ब्लाक क्षेत्र के गांव मूसेपुर के पास
विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है। इसकी नींव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने रखी थी। अलीगढ़ में राजा महेंद्र प्रताप सिंह यूनिवर्सिटी शुरू करके उन्हें सम्मान प्रदान किया गया है। वहीं, अलीगढ़ के पड़ोसी जनपद हाथरस में कुछ उल्टा ही हो रहा है। हाथरस के मुरसान में राजा महेंद्र प्रताप सिंह की प्रतिमा झाड़ियों के पीछे धूल फांक रही है।

राजा महेंद्र प्रताप का जन्म एक सितंबर 1886 को हाथरस के कस्बा मुरसान में हुआ था। वे राजा घनश्याम सिंह के तीसरे पुत्र थे। घनश्याम सिंह के मोहम्मडन एंग्लो कालेज के संस्थापक सर सैयद अहमद खां से अच्छे संबंध थे। सर सैयद के आग्रह पर ही महेंद्र प्रताप को कालेज पढऩे भेजा गया। पिता की मौत के कारण राजा को रियासत संभालनी पड़ी और 12वीं के बाद 1907 में कालेज छोडऩा पड़ा। फिर आजादी की लड़ाई में वे शामिल लोगों की मदद करने लगे। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वे अफगानिस्तान चले गए। एक दिसंबर 1915 में काबुल से भारत के लिए अंतरिम सरकार की घोषणा की, जिसके राष्ट्रपति वे स्वयं तथा प्रधानमंत्री मौलाना बरकतुल्ला खां बने। 1946 में वह भारत लौटे। बाद में वह मथुरा से सांसद भी चुने गये। 29 अप्रैल 1979 में उनका निधन हो गया। राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने अपनी आत्मकथा ‘माई लाइफ स्टोरी’ में लिखा है कि उन्हेंं गुल्ली डंडा के साथ टेनिस व चेस का शौक था। कालेज की छुट्टियों में अपना समय मुरसान व वृंदावन में बिताते थे।

राजा महेंद्र प्रताप ने अपना पूरा जीवन देश सेवा में लगाया। बहुत सारी सपंत्ति भी दान कर दी। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) को भी राजा ने जमीन दी थी। एएमयू का सिटी स्कूल राजा की 3.8 एकड़ जमीन पर बना हुआ है। यह जमीन 1929 में 90 साल के लिए लीज पर दी गई थी। राजा के प्रपौत्र चरत प्रताप सिंह ने यूनिवॢसटी को प्रस्ताव दिया था कि जिस जमीन पर स्कूल बना है, उसे राजा का नाम दिया जाए। इस पर कुलपति ने एक कमेटी बनाई थी। कमेटी ने स्कूल का नाम राजा के नाम पर करने की रिपोर्ट दी थी। हालांकि अभी इस पर कोई निर्णय होना बाकी है।

योगी ने दो साल पहले की थी घोषणा – राजा महेंद्र प्रताप सिंह के नाम पर यूनिवॢसटी की घोषणा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जाट बहुल क्षेत्र जिले की इगलास विधानसभा सीट के लिए 2019 में हुए उपचुनाव के दौरान की थी। मुख्यमंत्री ने कई बार अपने भाषणों में राजा द्वारा एएमयू को जमीन तो दान करने का जिक्र भी किया। हालांकि एएमयू में राजा के नाम पर किसी इमारत या हाल का नाम अभी तक नहीं है।

आजादी के बाद ये चिंताजनक है कि अनेक क्रांतिकारियों की अस्थियाँ विदेशों में हैं। अनेक क्रांतिकारियों के घर भग्नावशेष हैं। उनके घरों के स्थान पर आलीशान होटल बन गए हैं। क्रांतिकारियों की बची हुई पीढ़ी भी समाप्त हो चुकी है। निराशा में आशा की किरण यही है कि सामान्य जनता में उनके प्रति सम्मान की थोड़ी-बहुत भावना अभी भी शेष है। उस आगामी पीढ़ी तक इनकी गाथाएँ पहुँचाना हमारा दायित्व है।

क्रान्तिकारियों पर लिखने के कुछ प्रयत्न किये गये हैं। शचीन्द्रनाथ सान्याल, शिव वर्मा, मन्मथनाथ गुप्त व रामकृष्ण खत्री आदि ने पुस्तकें लिखकर हमें जानकारी देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। अन्य लेखकों ने भी इस दिशा में काम किया है।

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