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मुगल आक्रांताओं की क्रूरता ने बना दिया बंदा बहादुर

सिक्खों के प्रथम राजनितिक नेता और प्रथम सिक्ख साम्राज्य के संस्थापक बन्दा सिंह बहादुर के त्याग और बलिदान के किस्से बहुत ही दर्दनाक और ह्रदयविदारक हैं। शौर्य का परिचय देते हुए बन्दा बहादुर ने अपने राज्य के एक बड़े भाग पर फिर से अधिकार कर लिया और इसे उत्तर-पूर्व तथा पहाड़ी क्षेत्रों की ओर लाहौर और अमृतसर की सीमा तक विस्तृत किया। 1715 ई. के प्रारम्भ में बादशाह फ़र्रुख़सियर की शाही फ़ौज ने अब्दुल समद ख़ाँ के नेतृत्व में उन्हें गुरुदासपुर ज़िले के धारीवाल क्षेत्र के निकट गुरुदास नंगल गाँव में कई माह तक घेरे रखा। खाद्य सामग्री के अभाव के कारण उन्होंने 7 दिसम्बर को आत्मसमर्पण कर दिया। फ़रवरी 1716 को 794 सिक्खों के साथ वह दिल्ली लाये गए जहाँ 5 मार्च से 12 मार्च तक सात दिनों में 100 की संख्या में सिक्खों की बलि दी जाती रही । 16 जून को बादशाह फ़ार्रुख़शियार के आदेश से बन्दा सिंह तथा उनके मुख्य सैन्य-अधिकारियों के शरीर काटकर टुकड़े-टुकड़े कर दिये गये। इस बात के ऐतिहासिक साक्ष्य हैं कि इन्होंने सिक्ख राज्य की मुहर बनवाई और गुरु नानक देव जी तथा गुरु गोविंद सिंह जी के नाम के सिक्के चलवाए। इनके ज्योतिज्योत समाने के बाद सिक्ख राज्य 12 अलग अलग समूह में बंट गया, जिसे “मिसल” कहा जाता था। इनमे सबसे मजबूत मिसल भंगी मिसल था। 1748 ईस्वी मे कपूर सिंह के नेतृत्व में सारे मिसल एक हो गए। जिन्हें बाद में दल खालसा कहा गया। आइये समझते हैं कि इनका प्रारंभिक नाम और परिचय क्या था, सिक्ख परंपरा में इन्हें कैसे गुरूघर की शिक्षाएं और प्रेरणा मिली।

मुगल आक्रांताओं की क्रूरता ने बना दिया बंदा बहादुर

बन्दा सिंह बहादुर सिख सेनानायक थे। उन्होंने 15 साल की उम्र में तपस्वी बनने के लिए घर छोड़ दिया, और उन्हें माधो दास बैरागी नाम दिया गया। उन्होंने गोदावरी नदी के तट पर नांदेड़ में एक मठ की स्थापना की। बहादुर शाह के आमंत्रण पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1707 में जब प्रथम बार दक्षिण भारत में मिलने का निमंत्रण स्वीकार किया। तब उन्होंने 1708 में बंदा सिंह बहादुर से भी मुलाकात की। उन्हें बंदा बैरागी भी कहते हैं। बंदा सिंह ने गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रभाव में मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा उन्होंने गुरु गोबिन्द सिंह द्वारा संकल्पित प्रभुसत्ता ‘खालसा राज’ की स्थापना और साहबज़ादों की शहादत का बदला लिया। राजधानी लोहगढ़ में सिख राज्य की नींव रखी। यही नहीं, उन्होंने गुरु नानक देव जी और गुरु गोबिन्द सिंह जी के नाम से सिक्का और मोहरें भी जारी की, समाज में निम्न वर्ग कहलाये जाने वाले लोगों को उच्च पद दिलाया और हल वाहक जट्ट (शूद्रो) को ज़मीन का मालिक बनाया।

किशोरावस्था में ही बन गए बैरागी

बाबा बन्दा सिंह बैरागी का जन्म कश्मीर स्थित पुंछ जिले के तहसील राजौरी क्षेत्र में विक्रम संवत् 1727, कार्तिक शुक्ल 13 (तद्नुसार 1670 ई.) को हुआ था। उनका वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव था। जब वह 15 वर्ष की उम्र के थे तब उनके हाथों से एक गर्भवती हिरणी के शिकार ने उन्हें अत्यंत शोकाकुल कर दिया। इस घटना का उनके मन में गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने अपना घर का त्याग कर दिया।

मुगल आक्रांताओं की क्रूरता ने बना दिया बंदा बहादुर

वह जानकी दास नाम के एक साधु के शिष्य हो गए बाद में उन्होंने एक अन्य बाबा रामदास का शिष्यत्व ग्रहण किया और कुछ समय तक पंचवटी (नासिक) में रहे। वहाँ एक औघड़नाथ साधु से योग की शिक्षा प्राप्त कर वह पूर्व की ओर दक्षिण के नान्देड क्षेत्र को चले गए जहाँ गोदावरी नदी के तट पर उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की।

गुरु गोबिन्द सिंह जी से प्रेरणा

3 सितम्बर 1708 ई. को नान्देड में सिक्खों के दसवें गुरु गुरु गोबिन्द सिंह जी ने इस आश्रम में पहुंचकर माधोदास को उपदेश दिया और तभी से इनका नाम माधोदास से बंदा सिंह हो गया।उस समय मुगल आक्रांताओं जुल्म पंजाब और शेष भारत के वासियों पर कहर बन कर टूट रहा था। उसी समय गुरु गोबिन्द सिंह के पांच और नौ वर्ष के उन महान बच्चों की सरहिंद के नवाब वज़ीर ख़ान के द्वारा निर्मम हत्या करवा देने से बंदा बैरागी भी बेहद आहत थे। गुरु गोबिन्द सिंह जी के बताए उपदेश और मुगलों द्वारा यातना झेल रहे लोगों को अन्याय से छुटकारा दिलाने के लिए गुरु गोबिन्द सिंह के आदेश से ही वे पंजाब आये और सिक्खों के सहयोग से मुग़ल आक्रांताओं को पराजित करने में सफल हुए। मई, 1710 में उन्होंने सरहिंद को जीत लिया और सतलुज नदी के दक्षिण में सिक्ख राज्य की स्थापना की। उन्होंने ख़ालसा के नाम से शासन भी किया और गुरुओं के नाम के सिक्के चलवाये।

मुगल आक्रांताओं की क्रूरता ने बना दिया बंदा बहादुर

धन्य है केश के बदले खोपड़ी उतरवाने वाले भाई तारू सिंह जी

इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि सिख परम्परा का इतिहास शहीदों का इतिहास है। सिख शहादत के संकल्प का पहला पक्ष गुरु शहीदों का है और दूसरा पक्ष सिख शहीदों का। सिख शहीद परम्परा का आरंभ श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के साथ शहीद हुए तीन सिखों-भाई मतीदास जी, भाई सतीदास जी और भाई दियाला जी की शहादत से होता है। इस परम्परा को चार साहिबजादों ने और गहरा रंग दिया। इसी शृंखला में 18वीं सदी के इतिहास के शहीदों में से महान सिख शहीद भाई तारू सिंह जी ने भी योगदान डाला।

जकरिया खान के जुल्मों से जूझ रहे क्रांतिकारियों के बने सहायक

भाई तारू सिंह जी जिला श्री अमृतसर के गांव पूहला के निवासी थे। खेतों में हल चलाकर, मेहनत कर अन्न पैदा करना इनके जीवन-निर्वाह का साधन था। ये पंथ के सच्चे सेवक और पंथ के हितचिंतक थे। क्षेत्र के हिंदू-मुसलमान भी इनके उच्च एवं शुद्ध चरित्र का सम्मान करते थे। उस समय जकरिया खान के अत्याचारों की चरम सीमा का दौर था। इस अत्याचारी मुगल शासन को उखाड़ फेंकने के लिए सिक्ख क्रांतिकारी अभियान चला रहे थे। इस दौर में सिख सेनानियों को मुगल उत्पीड़कों के चंगुल से एक गरीब लड़की को बचाते हुए देखकर, भाई तारू सिंह ने खालसा में दीक्षित होने का फैसला किया। भाई तारू सिंह और उनकी बहन ने जंगलों में छिपे गुरसिखों (गुरु के भक्त सिख क्रांतिकारी) को भोजन और अन्य सहायता पहुंचाने का काम कर रहे थे। एक मुखबिर ने जकारिया खान को उनकी सूचना दी और दोनों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।

मुगल आक्रांताओं की क्रूरता ने बना दिया बंदा बहादुर

उस समय जकरिया खान के अत्याचारों की चरम सीमा का दौर था। जंगलों में रह रहे सिखों को पकड़ कर खत्म करना उसके लिए मुश्किल हो गया। वह अपनी असफलता छिपाने के लिए निर्दोष सिखों पर अत्याचार करने लगा। भाई तारू सिंह जी का स्वभाव मिल-बांटकर खाने और जरूरतमंदों की सहायता करने वाला था। सिखी आचरण के अनुसार अतिथियों को भोजन-पानी देना यह अपना धर्म समझते थे। बेघर हुए सिखों को जंगलों में लंगर पहुंचाने में इनके माता जी एवं बहन जी भी इनकी मदद किया करते थे। यह वह समय था जब मुगल सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर रहे सिखों की मदद करना अपनी जान जोखिम में डालने के समान था।

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भाई तारू सिंह जी अपनी जान हथेली पर रखकर बेघर हुए सिंहों को गुप्त मार्ग द्वारा अन्न-पानी पहुंचाने की सेवा किया करते थे। इसी क्षेत्र में इनके एक विरोधी ने भाई तारू सिंह जी के विरुद्ध जकरिया खान के कान भरने शुरू कर दिए कि भाई तारू सिंह जी सिंक्खों को पनाह और भोजन देते हैं। बिना किसी पड़ताल के भाई तारू सिंह जी को गिरफ्तार करने के हुक्म जारी हो गए। भाई तारू सिंह जी को छुड़वाने के लिए यत्न किए गए लेकिन भाई तारू सिंह जी ने कहा, चिंता मत करो क्योंकि उनका अटल विश्वास था कि कुर्बानी देकर ही शाही तख्त को हिलाया जा सकता है।

तारू सिंह जी को केश कटवा कर इस्लाम कबूल करने की दी गई सजा

सजा के तौर पर भाई तारू सिंह जी को *केश कटवा कर इस्लाम कबूल करने* के लिए कहा गया तो इन्होंने उत्तर में कहा, मैं सीस कटवा सकता हूं, मगर परमात्मा की दी प्यारी व पवित्र दात ‘केश’ नहीं कटवा सकता। इन्हें दुनिया भर की खुशियां देने का लालच दिया गया, मगर ये किसी भी कीमत पर अपने केशों को शरीर से अलग करने के लिए तैयार नहीं हुए। इतिहास बताता है कि शाही फरमान पाकर जल्लाद एक तेजधार हथियार द्वारा भाई तारू सिंह जी की खोपड़ी उतार रहा था और भाई जी जपुजी साहिब का पाठ कर रहे थे। सारा शरीर लहू-लुहान हो गया मगर उनके मुंह से उफ तक न निकली। खोपड़ी उतारने के बाद भाई जी को खाई में फेंक दिया गया। भाई जी इस हालत में भी गुरू की बाणी पढ़ते रहे।

मुगल आक्रांताओं की क्रूरता ने बना दिया बंदा बहादुर

इतिहासकार लिखते हैं कि जिस दिन भाई जी की खोपड़ी उतारी गई उसी दिन जकरिया खान की हालत बहुत खराब हो गई और वह तड़पने लगा। भाई सुबेग सिंह की मदद से जकरिया खान क्षमा मांगने के लिए भाई तारू सिंह जी के पास पहुंचा। भाई तारू सिंह जी ने कहा कि यह सब परमात्मा की लीला है। जकरिया खान की मृत्यु के बाद भाई जी बिना खोपड़ी की हालत में भी 22 दिनों तक वाहेगुरु का नाम सिमरन करते रहे और तत्पश्चात शहादत प्राप्त कर गए।

भाई तारू सिंह जी की शहीदी ने सिखी सिदक का संबंध केशों से और भी पक्की तरह से जोड़ दिया। केश हमारे धैर्य, हिम्मत, शानो-शौकत का चिन्ह बन गए। मुगल अत्याचारियों से शीश (खोपड़ी) उतरवाने वाले सिख भाई तारू सिंह जी की यह धन्य कमाई सदा के लिए अमर हो गई। इनकी महान कुर्बानी को सिख पंथ की रोजाना की अरदास द्वारा नमस्कार एवं सम्मान प्रदान किया जाता है। (बलिदानियों की अगली कड़ी में गौवंशों को बचाने और सामाजिक कुरीतियों से जूझने वाले नामधारी सिक्खों की शहादत)

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