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एमआयटी-वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी के अध्ययन में पुणे की ड्रैगनफ़्लाई आबादी में समय के साथ आए बदलावों का पता चला

भारत। एमआयटी-वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी पुणे के शोधकर्ताओं ने पुणे में ड्रैगनफ़्लाई प्रजातियों की आबादी में हुए बदलावों के बारे में अब तक के सबसे शानदार अध्ययन को पूरा किया, जिसके लिए बीते और मौजूदा दौर के डेटा की मदद ली गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि, बीते दौर के डेटा में दर्ज की गई आठ प्रजातियां अब मौजूद नहीं हैं। इससे पता चलता है कि, अनियोजित तरीके से शहरीकरण, बढ़ते जल प्रदूषण और मौसम के पैटर्न में बदलाव की वजह से अब ये प्रजातियां उस इलाके से गायब हो चुकी हैं।

एमआयटी-वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी के अध्ययन में पुणे की ड्रैगनफ़्लाई आबादी में समय के साथ आए बदलावों का पता चला

इस स्टडी में पिछले डेटा की तुलना में 27 प्रजातियों के जुड़ने का भी ज़िक्र किया गया है। यह संख्या काफी बड़ी है, जो सिटीजन साइंस और अलग-अलग तरह के कीटों को दस्तावेजों में दर्ज करने के बारे में बढ़ती जागरूकता की वजह से संभव हो पाया है। इस स्टडी में जमीन के उपयोग में बदलाव, तेज गति से शहरीकरण और डेटा की कमी जैसे घटकों के कारण ड्रैगनफ़्लाई की आबादी में बदलाव का पता लगाया गया है।

इस स्टडी में पश्चिमी घाट के इलाके में पाए जाने वाले 5 प्रजातियों की मौजूदगी भी दर्ज की गई, जिससे ओडोनेट्स की स्टडी के लिए पुणे की इकोलॉजिकल अहमियत और बढ़ गई। पुणे जिले में ओडोनेट्स (ड्रैगनफ़्लाई और डैमसेल्फ़लाई) के लंबे समय से इलाके में मौजूदगी का पता लगाने के लिए पहली बार इस तरह की स्टडी की गई है, जिसमें लगभग दो सदियों में इनकी प्रजातियों के लुप्त होने और नई प्रजातियों के जुड़ने को उजागर किया गया है।

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डॉ पंकज कोपार्डे (फैकल्टी, डिपार्टमेंट ऑफ़ एनवायरमेंटल स्टडीज, एमआयटी-वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी, पुणे) की अगुवाई में अराजुश पायरा (पीएचडी स्कॉलर) एवं अमेय देशपांडे (पूर्व छात्र) के साथ मिलकर किए गए इस रिसर्च में बीते और मौजूदा दौर के रिकॉर्ड का विस्तार से विश्लेषण किया गया है। साल 2019 से 2022 के बीच पुणे जिले के 52 इलाकों से प्राथमिक डेटा एकत्र किया गया था, जबकि 19वीं सदी के बीच के पुराने रिकॉर्ड पर अच्छी तरह गौर करने के लिए 25 प्रकाशित लेखों और सिटीजन साइंस डेटा की मदद ली गई।

एमआयटी-वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने “ओडोनेटा डाइवर्सिटी इन टाइमस्केप ऑफ पुणे डिस्ट्रिक्ट एडज्वाइनिंग द वेस्टर्न घाट बायोडायवर्सिटी हॉटस्पॉट” के नाम से इस बेमिसाल अध्ययन को इंटरनेशनल जर्नल ऑफ ट्रॉपिकल इन्सेक्ट साइंस (स्प्रिंगर नेचर पब्लिशिंग) में प्रकाशित किया है।

इस अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता, डॉ पंकज कोपार्डे ने कहा, “ड्रैगनफ़्लाइज़ शिकार करने वाले बेहद अहम कीट होते हैं, जो शहरी इलाकों में मच्छरों और कीटों की आबादी को काबू में रखना में मदद करते हैं। उनकी भूमिका जंगल में रहने वाले बाघों की तरह होती है। पर्यावरण की सेहत का अंदाजा लगाने के लिए उनकी आबादी पर नज़र रखना ज़रूरी है।”

पुराने दौर के रिकॉर्ड की तुलना में, आज शोधकर्ताओं के लिए डेटा कलेक्शन की अत्याधुनिक तकनीक आसानी से उपलब्ध है, साथ ही सिटीजन साइंस पहल के अलावा लोगों के बीच जागरूकता भी बढ़ी है, जिससे बायोडायवर्सिटी के ट्रेंड को और बेहतर ढंग से समझना आसान हो जाता है। एमआयटी-वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी के शोधकर्ता अब इन निष्कर्षों के आधार पर मुला नदी के किनारे ड्रैगनफ़्लाई पर शहरीकरण और जल प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। उन्होंने लंबे समय के मॉनिटरिंग प्रोजेक्ट्स की भी शुरुआत की है, ताकि समय के साथ विविधता में होने वाले बदलावों की निगरानी की जा सके।

अध्ययन करने वाली रिसर्च टीम में शामिल, अराजुश पायरा ने कहा, हमें पहाड़ियों, घास के मैदानों, नदियों और झीलों के साथ-साथ शहरों में मौजूद इसी तरह के हरे-भरे इलाकों की हिफाजत को सबसे ज्यादा अहमियत देनी चाहिए। शहरों के तेजी से हो रहे विस्तार के बीच कुदरती इकोसिस्टम को बचाए रखने के लिए सस्टेनेबल डेवलपमेंट प्लानिंग बेहद जरूरी है। यह अध्ययन पश्चिमी घाटों में अलग-अलग तरह के ड्रैगनफ़्लाई पर रिसर्च के लिए शुरू की गई एक बड़ी पहल का हिस्सा है, जिसे भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST) की ओर से फंडिंग दी गई है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि उनके इस निष्कर्ष से अलग-अलग वर्गों में बायोडायवर्सिटी में बदलाव पर और अधिक अध्ययनों को प्रेरणा मिलेगी, साथ ही इनकी हिफाजत के लिए लंबे समय के मॉनिटरिंग प्रोजेक्ट्स की स्थापना को भी बढ़ावा मिलेगा।

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