- Published by- @MrAnshulGaurav
- Thursday, August 11, 2022
बिधूना। सावन का महीना शुरू होते ही दिमाग में सबसे पहले आता है रिमझिम-रिमझिम बारिश, ठंडी-ठंडी हवा, सावन के गीत और पेड़ों पर झूला झूलती महिलाएं और बच्चे। मगर ये सब अब बीते जमाने की बात हो गई है। शहरों की तो बात छोड़िए, अब तो गांवों में भी सावन के महीने में ऐसे दृश्य दिखना दुर्लभ हो गए है।
श्री गजेन्द्र सिंह पब्लिक इंटर कालेज की विज्ञान शिक्षिका रंजना सिंह ने बताया कि सावन माह में जहां झूला झूलने व कजरी गीतों की परम्परा लगभग समाप्त सी हो गयी है, वहीं मौसम ने भी अपना मिजाज बदल लिया है। पहले माह की शुरूआत से लेकर रक्षाबंधन वाले दिन तक पानी की बरसता था। पानी की फुहारों के बीच घर के पुरूष व बच्चें को नदी व तालाबों के तट पर भुजरियां प्रवाहित करने जाना पड़ता था और अब तो सूखा जैसी स्थिति है। अब घंटो लगातार रिमझिम बारिश की झड़ी अब नहीं लगती। इसका प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है। अब बारिश थोड़ी देर के लिए होती है और फिर मौसम साफ हो जाता है। कहा कि इस बार मानसून की स्थिति अच्छी बतायी गयी थी, औसत से अधिक बारिश होने का पूर्वानुमान था मगर ऐसा हुआ नहीं।
कस्बा बिधूना के मोहल्ला किशोरगंज निवासी मंजू सेंगर ने कहा कि सावन मास खत्म होने को आया है। लेकिन अब पेड़ों पर ना तो कहीं सावन के झूले दिखते हैं और ना ही बाग-बगीचों में युवतियों की रौनक होती है। जबकि एक जमाने में सावन लगते ही बाग-बगीचों में झूलों का आनंद लिया जाता था। विवाहित बेटियों को ससुराल से बुलाया जाता था। वे मेहंदी लगाकर सावन के इस मौसम में सखियों के संग झूला झूलने और सावनी गीतों का आनंद लिया करती थी। वहीं, रिमझिम फुहारे मौसम का मजा दोगुना कर देती थी, लेकिन अब ये परंपरा खत्म होती जा रही है।
रुरूगंज की प्रधान अलका गुप्ता कहती है कि अब न तो झूले पड़ते हैं और न ही कजरी गीत सुनाई देते हैं। शादी के बाद पहला सावन मायके में ही मनाने की परंपरा रही है। अब तो घरो में बच्चों के लिए झूले डाल लिए जाते है। पुराने रीति रिवाज पीछे छूटते जा रहे हैं।
ऐली की आंगनबाड़ी कार्यकत्री सम्पूर्णा त्रिपाठी कहती है, कि वे अपने गांव के बड़े से पेड़ पर मोटी रस्सी से झूला डाल कर झूला झूलती थी और सारे गांव की बहन-बेटियां साथ में झूला झूलते हुए आनंदित होतीं थीं। अब ऐसी जगह नहीं हैं, जहां झूला डालें। ऐसे में सावन के झूले भी यादें बन गए हैं। केवल कृष्ण मंदिरों में सावन माह में भगवान को झूला झुलाने की परंपरा जरूर अभी भी निभाई जा रही है।
श्री गजेन्द्र सिंह पब्लिक इंटर कालेज की गृह विज्ञान शिक्षिका गरिमा सिंह सावन के झूलों और सावनी गीतों के लुप्त होने की प्रमुख वजह सुख सुविधा और मनोरंजन के साधनों में वृद्धि को मान रहीं हैं। उनका मानना है कि बरसात के मौसम और सावन के महीने का आनंद अब किताबों तक ही सीमित रह गया है। सावन की महिमा धार्मिक अनुष्ठान की दृष्टि से तो बढ़ रही है। मगर प्रकृति के संग जीने की परम्परा थमती जा रही है।
समूह संचालिका मामता गुप्ता ने कहा कि कुछ वर्ष पहले तक झूलों और मेंहदी के बिना सावन की कल्पना भी नही की जा सकती थी। पर आज के समय में सावन के झूले नजर ही नहीं आते हैं। त्योहार पर बेटियों को ससुराल से बुलाने की परम्परा आज भी चली आ रही है। लेकिन जगह के अभाव या बाग-बगीचों के खत्म हो जाने से न तो कोई झूला झूल पाता है और न ही अब मोर, पपीहा व कोयल की सुरीली आवाज ही सुनने को मिलती हैं, हम बहुत तेजी से आगे बढ़ रहे है।
रूरूकलां निवासी प्रतिभा सिंह का मानना है कि पहले संयुक्त परिवार में बड़े-बूढ़ों के सानिध्य में लोग एक दूसरे के घरों में एकत्रित होकर त्योहारों एवं कार्यक्रमों का आनंद उठाते थे पर आज के समय में बढ़ती एकल परिवार की प्रवृति ने आपसी स्नेह को खत्म कर दिया है। सावन के झूले और कजरी गीत तो छोडिए, अब तो पारम्परिक पहनावा भी आधुनिकता की भेंट चढ़ गया है।
बेला निवासी गुंजन अग्निहोत्री ने कहा कि आज के समय में पुरानी परंपराओं की जगह फेसबुक फ्रेंड्स ने ले ली है। सोशल मीडिया पर लोग इतने एक्टिव हो गए हैं की वह अपनी संस्कृति और पुरानी परंपराओं को भूलते जा रहे हैं। पुराने समय में मनोरंजन के सीमित साधन थे। इसलिए त्योहारों पर लोग आपसी भाईचारा बढ़ाने के साथ मनोरंजन भी करते थे। सावन का पूरा महीना त्योहार के रूप में मनाया जाता था। रक्षाबंधन पर शादीशुदा लडकियों को मायके बुलाया जाता था। जहां पर सहेलियों के साथ झूला झूलने के साथ कजरी गीत आदि गाया करतीं थी, अब सब पुराने जमाने की बात होती जा रही है।
रिपोर्ट- शिवप्रताप सिंह सेंगर