
भारतीय सिनेमा में पहले महिलाओं के किरदार में भी पुरुष ही नजर आते थे। फिर धीरे-धीरे करके कई महिलाओं ने एंट्री। भारतीय सिनेमा में कदम रखने वाली शुरुआती चंद महिला में से एक देविका रानी थीं। इन्हें 1969 में प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला। भारतीय फिल्म उद्योग में उनका योगदान बहुत बड़ा था, और उनकी विरासत फिल्म निर्माताओं और अभिनेताओं की पीढ़ियों को प्रेरित करती है। चलिए जानते हैं देविका रानी के फिल्मी सफर और निजी जीवन के बारे में।
प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि
देविका रानी का जन्म 30 मार्च 1908 को आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम में एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता सुरेन्द्रनाथ चौधरी एक बैरिस्टर थे और उनकी मां सरला देवी एक प्रतिभाशाली लेखिका थीं। सांस्कृतिक रूप से समृद्ध वातावरण में पली-बढ़ी, देविका रानी को कम उम्र से ही साहित्य, कला और संगीत से परिचय हुआ, जिसने कला के प्रति उनके जुनून को जगाया। उन्होंने आयरलैंड में शैनन कॉलेज ऑफ होटल मैनेजमेंट में पढ़ाई की और बाद में लंदन में रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट (RADA) में अभिनय का प्रशिक्षण लिया। कला में उनकी प्रारंभिक शिक्षा ने एक अभिनेत्री के रूप में उनके करियर को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
भारतीय सिनेमा में अग्रणी भूमिका
देविका रानी की भारतीय सिनेमा में यात्रा 1930 के दशक में शुरू हुई, एक ऐसा समय जब उद्योग अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में था। उन्होंने 1933 की फिल्म ‘कर्मा’ से फिल्मी करियर की शुरुआत की, जो भारतीय सिनेमा की शुरुआती साउंड फिल्मों में से एक थी, जिसका निर्देशन उनके पति हिमांशु राय ने किया था। कर्मा में उनकी भूमिका ने एक प्रतिभाशाली और सुंदर अभिनेत्री के रूप में उनके भविष्य की दिशा तय की। 1934 में उनके पति द्वारा सह-स्थापित स्टूडियो बॉम्बे टॉकीज के साथ उनका जुड़ाव उनके करियर में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। उन्होंने न केवल स्टूडियो की कई फिल्मों में अभिनय किया, बल्कि पर्दे के पीछे भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिससे उद्योग के विकास में योगदान मिला।
दिखाई असाधारण प्रतिभा
इश्क-ए-दिल (1936) और अछूत कन्या (1936) जैसी शुरुआती फिल्मों में उनकी मजबूत उपस्थिति ने उन्हें अपने समय की सबसे लोकप्रिय अभिनेत्रियों में से एक बना दिया। 1930 और 1940 के दशक तक, देविका रानी ने खुद को भारत में सबसे अधिक भुगतान पाने वाली अभिनेत्रियों में से एक के रूप में स्थापित कर लिया था। उनके सुंदर अभिनय, जटिल भावनाओं को चित्रित करने की क्षमता और स्क्रीन पर नियंत्रण ने उन्हें भारतीय सिनेमा में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बना दिया। उनके अग्रणी काम ने एक ऐसे उद्योग में महिलाओं के लिए बाधाओं को तोड़ने में मदद की जो काफी हद तक पुरुष-प्रधान था। वह अपनी असाधारण प्रतिभा के लिए मान्यता प्राप्त करने वाली पहली अभिनेत्रियों में से एक थीं, जिन्होंने बॉलीवुड में महिलाओं की भावी पीढ़ियों के लिए मंच तैयार किया।
कैसी रही प्रेम कहानी
देविका रानी का निजी जीवन उनके पेशेवर सफर से गहराई से जुड़ा हुआ था। 1929 में उन्होंने एक प्रमुख फ़िल्म निर्माता और बॉम्बे टॉकीज के सह-संस्थापक हिमांशु राय से शादी की। उनका रिश्ता सिर्फ निजी ही नहीं बल्कि पेशेवर भी था, क्योंकि राय ने देविका रानी के फिल्म उद्योग में प्रवेश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। हालांकि साल 1940 में हिमांशु राय के निधन के बाद त्रासदी हुई। उनकी असामयिक मृत्यु ने देविका रानी को निजी और पेशेवर दोनों तरह से तबाह कर दिया। उन्होंने कुछ समय तक अभिनय करना जारी रखा, लेकिन इसके तुरंत बाद उन्होंने बॉम्बे टॉकीज से इस्तीफा दे दिया और लाइमलाइट से दूर हो गईं।
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साल 1940 के दशक में देविका रानी ने रूसी चित्रकार स्वेतोस्लाव रोरिक से दोबारा शादी की और फिल्म उद्योग से दूर चली गईं। दंपति ने सार्वजनिक नजरों से दूर बैंगलोर जैसे स्थानों पर एक शांत जीवन व्यतीत किया, जहां उन्होंने अपने निजी जीवन और रुचियों पर ध्यान केंद्रित किया। सिनेमा से दूर होने के बावजूद देविका रानी का उद्योग पर प्रभाव महत्वपूर्ण रहा।