Breaking News

पीड़ा का यह चक्रव्यूह पार तो करना ही होगा

 वीरेन्द्र बहादुर सिंह

कोरोना और लाॅकडाउन की वजह से हर किसी के जीवन में समस्याएं ही समस्याएं पैदा हो गई हैं। एक छींक या जरा सी खांसी आ जाए, तो लोग डर जाते हैं। सुबह अखबार, फेसबुक या ह्वाटसएप खोलने में डर लगता है कि कहीं किसी स्वजन की मौत का समाचार या खबर तो नहीं है। कोरोना के साथ अनेक लोगों के साथ के अच्छे-खराब संबंधों की परख हो गई है। मदद के लिए आगे बढ़ा हाथ पीछे धकेलना प़ड़े, यह बड़ी ही दयनीय स्थिति मानी जाती है। धंधा-रोजगार, नौकरी सब कुछ खतरे में है। स्थिति कब सामान्य होगी, कुछ पता नहीं है। एक ओर मौत का खतरा तो दूसरी ओर जीवन की जरूरतों का संकट छाया हुआ है। स्वस्थ आदमी को बीमार, तो बीमार आदमी को पागल बना दे, इस स्थिति में महिलाओं की स्वस्थता-समता-सहनशीलता और समझ बहुत जरूरी है। इनका संघर्षशील मिजाज ही परिवार के लिए सहायक साबित हो सकता है। इस समय महिलाओं को पीड़ा झेलने, मुश्किलों से मुकाबला करने का रास्ता तलाशने की सूझबूझ कसौटी पर है।

पति कोविड की वजह से अस्पताल में हो, खुद पाॅजिटिव हो और छोटे-छोटे बच्चों को संभालने वाला घर में कोई न हो तो किसी भी महिला की हालत क्या होगी? पर तमाम महिलाओं ने इस स्थिति से अपने मजबूत मनोबल की बदौलत निपटा है। फिर भी पीड़ा, असुरक्षा और डर की भावना उनके जीवन में छा ही गई है। अपनों की जान बचाने के लिए किसी ने गहने बेच दिए तो किसी ने बेटी के ब्याह के लिए कराई एफडी तोड़वा डाली, तो किसी पर कर्ज हो गया है। इसका मानसिक और आर्थिक असर कितना लंबा चलेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता।

अनेक लोगों की नौकरियां चली गई हैं। अगर यही हाल रहा तो अभी और न जाने कितने लोगों की नौकरियां जाएंगीं। वेतन भी आधा आ रहा है। इसलिए जब तक सब कुछ ठीक नहीं हो जाता, अस्तित्व की लड़ाई लड़नी पड़ेगी। सामान्य रूप से पुरुष की असफलता या नौकरी जाने में महिलाओं में ताना मारने की आदत होती है। पर इस समय काम छूट जाने वाले व्यक्ति की योग्यता, स्वभाव या नसीब पर आक्षेप करने के बजाय उनकी पीड़ा में सहभागी होने की जरूरत है। अपने जख्म को संभाल कर स्वजनों के घाव का मलहम बनने की जरूरत है।

हो सके तो उनकी किसी भूतकाल की भूल के कारण उन्हें संस्था में सब से पहले निकाला गया हो और उनका मित्र शिखर पर पहुंच गया हो। आपका धंधा खराब हो गया हो और पड़ोसी का धंधा फलफूल रहा हो। इस समय भूलों का विश्लेषण उनके मनोबल को तोड़ देगा। दूसरे से बराबरी हीनभावना का शिकार बना देगी। अन्य की प्रशंसा करने और स्वजन की क्षमता पर शंका करने से उसकी जीतने, संघर्ष करने और जीने की इच्छाशक्ति खत्म कर देगी। ऐसे समय में एक महिला के रूप में, पत्नी के रूप में, एक मां के रूप में सिखाए नहीं, प्रेम और संयम का व्यवहार कर के उन्हें संभालें। स्थिति विपरीत जा रही हो तो धैर्य रखना आसान नहीं है, पर परिवार को संभालने में पुरुष की हिम्मत से ज्यादा महिला के धैर्य की जरूरत पड़ती है। एकाध गलत शब्द भी जीवन को विमुख करने के लिए पर्याप्त है।

तमाम पत्नियां, खास कर जो हाउसवाइफ हैं, जिन्हें मार्केट-बिजनेस और आफिस की जरा भी जानकारी नहीं होती, उन्हें अगल-बगल की सुनी अधकचरी बातों पर सलाह नहीं देनी चाहिए। अधूरा ज्ञान उनके पति के ईगो को हर्ट करेगा, जिससे दोनों में विवाद और झगड़ा होगा। मौजूदा समय में आदमी के पास खापी कर मात्र जीना ही हो तब ठीक, कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोगों को थोड़ा भी अधिक खर्च करना पड़ जाता है तो उनके लिए मुश्किल ही है। इसलिए उल्टी-सीधी डिमांड से बचना जरूरी है। बारबार यह नहीं है या वह नहीं है की शिकायत महंगी पड़ सकती है। इस समय तो जो है, उसी में खुश रहना सीखना होगा। अगर आदमी में जीने का उत्साह होगा तो नौकरी और पैसा फिर मिल जाएगा।

परंतु घर में कोई मर गया हो, इस तरह रोजाना मुंह लटका कर घूमने से जीवनसाथी में डिप्रेशन आ सकता है। इतना ही नहीं, संबंधों में भी दरार आ सकती है। घर का वातावरण नार्मल रहे, यह देखना महिलाओं की जिम्मेदारी है। दूसरी ओर पुरुष खुद को घर का मालिक समझता है और परिवार के सुखदुख के लिए खुद को जिम्मेदार मानता है। बुरे समय में जब वह अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाता, तो ग्लानि का अनुभव करता है। ऐसे समय में परिवार की जिम्मेदारी बनती है कि उन्हें ज्यादा गिल्टी न महसूस होने दें और न बढ़ने दें। बच्चों की फीस भरने में देर हो, लोन का हफ्ता या अन्य जरूरी अदायगी में देर होती है और इसकी वजह से कोई समस्या पैदा होती है तो इसके लिए परिवार के मालिक को कोसने की कोशिश न करें।

बाहर की दुनिया का थकाहारा व्यक्ति कभी-कभार घर वालों पर गुस्सा हो जाता है, उल्टासीधा बोलता है। ऐसे में जवाब देने के बजाय मौन रहने में ही भलाई है। कभी न बोलने वाला व्यक्ति अगर कभी चिल्लाए तो उसे खुद भी खराब लगता होगा। इसलिए समय की नजाकतता को देख कर टकराव कर के लहूलुहान होने के बदले कोई अन्य रास्ता खोजें। लाॅकडाउन में घरेलू हिंसा और सेक्सुअल हैरेसमेंट के मामले बढ़े हैं।समस्याओं के कारण सभी को असुरक्षा महसूस हो रही है, जिससे लोगों की मानसिक हालत बिगड़ी है। अगर यह समस्या अभी जल्दी खड़ी हुई है तो इसे बल से नहीं, समझ से हल किया जा सकता है।

ऐसा नहीं है कि इस बुरे समय में मात्र आर्थिक-मानसिक संघर्ष खड़ा हुआ है। जहां स्वजन की विदाई हुई है, वहां भावनात्मक शून्यावकाश भी आया है। अचानक आया खालीपन, अकेलापन, जिम्मेदारी और चुनौती की पीड़ा एक चक्रव्यूह जैसी है। एक समस्या के जाते ही दूसरी सामने आ कर खड़ी हो जाती है। जो शब्दों के आश्वासन से हल नहीं हो सकती। ये दिन भी एक दिन बीत जाएंगे, यही उम्मीद इसका उपाय है। किसी दार्शनिक के अनुसार जब आप के आसपास भयानक हत्याकांड हो रहा हो तो उस समय खिलते फूल का सौंदर्य देखने से न चूकें। वही जीवन का प्रेरणा बन सकता है।

कोरोना ने हम से बहुत कुछ छीन लिया है। पर हर दुखद स्थिति जीवन को एक नया पाठ दे जाती है। जैसे कि स्वास्थ्य के प्रति लापरवाही भारी पड़ सकती है। जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी थी, वही बच गए और जिनके पास पैसा था, वही इलाज करा सके। बचत और कंजूसी के बीच का अंतर समझ कर उड़ाऊपन छोड़ कर वापस आने की समझ हम सभी को आ गई है। आज भी तमाम महिलाओं का मेडिक्लेम नहीं है। आज कपड़े और गहने के बिना तो चल जाएगा, पर मेडिक्लेम के बिना आम आदमी को बीमार होने का हक नहीं है।

हर महिला को व्हीकल या कार चलाना सीखना जरूरी है। जिससे जरूरत पड़ने पर वह इमरजेंसी में स्वजन को अस्पताल तो पहुंचा सके। कोरोना में लोग गाड़ी तो देने को तैयार हो जाते हैं, पर साथ जाने को कोई तैयार नहीं होता। शहर में किसी डाक्टर से अच्छे संबंध बनाना जरूरी है, जिससे वह उचित सलाह दे सके। अंत में संबंध बहुत बड़ी पूंजी है। आपके एक फोन पर किसी भी परिस्थिति में आपके साथ खड़ा रहे। ‘मैं हूं न’ कहने वाला कोई हो, इस तरह का संबंध होना जरूरी है, इसके बिना जीवन अधूरा है। काल बन चुके कोरोना का यही ब्रह्मज्ञान है।

About Aditya Jaiswal

Check Also

अयोध्या के सिद्ध पीठ हनुमत निवास में चल रहा है संगीतमयी श्री राम चरित मानस पाठ

अयोध्या। सिद्ध पीठ हनुमत निवास में भगवान श्रीराम और हनुमान के पूजन के साथ राम ...