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एक ऐसी क्रांतिकारी, जिसके “स्तनों” को काटने की नाकाम कोशिश की गई

दया शंकर चौधरी

अभी तक हम सुनते आये हैं, “दे दी हमें आजादी, बिना खडग बिना ढाल। साबरमती के संत, तूने कर दिया कमाल। लेकिन…. क्या यह पूरी तरह सत्य है? क्या केवल अहिंसा के बलबूते अंग्रेजों से आजादी मिल पाई थी। नहीं…! इस देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी “बिना खडग बिना ढाल के नहीं मिली थी।

इस देश पर जब अंग्रेज, गोली बंदूक और खडग से प्रहार कर रहे थे, तो आजादी के दी़वाने अपने दोनों हाथों की ढाल बना कर इस देश की रक्षा कर रहे थे। इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों से अंकित नीरा आर्या एक ऐसा ही नाम है, जिसे प्रताणित करते हुए जेलर ने उसके स्तनों को बिना धार की कैंची से काटने की नाकाम कोशिश की थी। नीरा आर्य इससे क्रोधित हो उठीं, और गुस्से में उसके मुँह पर थूक दिया था।

इन्होंने जीवन के अंतिम दिनों में फूल बेचकर गुजारा किया था, और फलकनुमा, हैदराबाद में एक झोंपड़ी में रह कर गुज़ारा किया। अंतिम समय में इनकी झोंपड़ी को भी तोड़ दिया गया था, क्योंकि वह सरकारी जमीन में बनी हुई थी। वृद्धावस्था में बीमारी की हालत में चारमीनार के पास उस्मानिया अस्पताल में इन्होंने रविवार 26 जुलाई, 1998 में एक गरीब, असहाय, निराश्रित, बीमार वृद्धा के रूप में मौत का आलिंगन कर लिया। स्थानीय दैनिक वार्ता के एक रिपोर्टर ने अपने साथियो संग मिलकर इनका अंतिम संस्कार किया।

रानी झांसी रेजिमेंट की जांबाज सिपाही

नीरा आर्य, आजाद हिन्द फौज में “रानी झांसी रेजिमेंट” की सिपाही थीं, जिन पर अंग्रेजी सरकार ने गुप्तचर होने का आरोप भी लगाया था। 1998 में इनका निधन हैदराबाद में हुआ। इन्हें नीरा ​नागिनी के नाम से भी जाना जाता है। इनके भाई बसंतकुमार भी आजाद हिन्द फौज में थे। नीरा नागिन और इनके भाई बसंतकुमार के जीवन पर कई लोक गायकों ने काव्य संग्रह एवं भजन भी लिखे हैं। नीरा नागिनी के नाम से इनके जीवन पर एक महाकाव्य भी है। इनके जीवन पर फिल्म का निर्माण भी होने की खबर है। यह एक महान देशभक्त, साहसी एवं स्वाभिवानी महिला थीं, जिन्हें गर्व और गौरव के साथ याद किया जाता है। हैदराबाद की महिलाएं इन्हें पेदम्मा कहकर पुकारती थीं। नीरा आर्य के नाम पर एक राष्ट्रीय पुरस्कार भी स्थापित किया गया है।

नीरा आर्य : जन्म एवं शिक्षा

नीरा आर्य का जन्म 5 मार्च 1902 को तत्कालीन संयुक्त प्रांत के खेकड़ा नगर में हुआ था। वर्तमान में खेकड़ा भारत के उत्तरप्रदेश राज्य में बागपत जिले का एक शहर हैं। इनके धर्मपिता सेठ छज्जूमल अपने समय के एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे, जिनका व्यापार देशभर में फैला हुआ था। खासकर कलकत्ता में इनके पिताजी के व्यापार का मुख्य केंद्र था, इसलिए इनकी शिक्षा-दीक्षा कलकत्ता में ही हुई।

नीरा आर्य हिन्दी, अंग्रेजी, बंगाली के साथ-साथ कई अन्य भाषाओं में भी प्रवीण थीं। इनकी शादी ब्रिटिश भारत में सीआईडी इंस्पेक्टर श्रीकांत जयरंजन दास के संग हुई थी।श्रीकांत जयरंजन दास अंग्रेज भक्त अधिकारी था। श्रीकांत जयरंजन दास को नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जासूसी करने और उन्हें मौत के घाट उतारने की जिम्मेदारी दी गई थी।

नेता जी ने दिया था इन्हें “नागिन” उपनाम

इन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जान बचाने के लिए अंग्रेजी सेना में अफसर अपने पति श्रीकांत जयरंजन दास की हत्या कर दी थी। अवसर पाकर श्रीकांत जयरंजन दास ने नेताजी को मारने के लिए गोलियां दागी तो वे गोलियां नेताजी के ड्राइवर को जा लगी। लेकिन इस दौरान नीरा आर्य ने श्रीकांत जयरंजन दास के पेट में संगीन घोंपकर उसे परलोक पहुंचा दिया था। श्रीकांत जयरंजन दास नीरा आर्य के पति थे, इसलिए पति को मारने के कारण ही नेताजी ने उन्हें नागिनी कहा था। आजाद हिन्द फौज के समर्पण के बाद जब दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चला तो सभी बंदी सैनिकों को छोड़ दिया गया, लेकिन इन्हें पति की हत्या के आरोप में काले पानी की सजा हुई थी। जहां इन्हें घोर यातनाएं दी गई।

नीरा आर्य : आत्मकथा का ह्रदय विदारक अंश

‘‘मुझे गिरफ्तार करने के बाद पहले कलकत्ता जेल में भेजा गया। यह घटना कलकत्ता जेल की है, जहां हमारे रहने का स्थान वे ही कोठरियाँ थीं, जिनमें अन्य महिला राजनैतिक अपराधी रही थी अथवा रहती थी। हमें रात के 10 बजे कोठरियों में बंद कर दिया गया और चटाई, कंबल आदि का नाम भी नहीं सुनाई पड़ा। मन में चिंता होती थी कि जहां हमें भेजा जाना था, वहां गहरे समुद्र में अज्ञात द्वीप में रहते स्वतंत्रता कैसे मिलेगी, अभी तो ओढ़ने बिछाने का ध्यान छोड़ने की आवश्यकता आ पड़ी है?

जैसे-तैसे जमीन पर ही लोट लगाई और नींद भी आ गई। लगभग 12 बजे एक पहरेदार दो कम्बल लेकर आया और बिना बोले-चाले ही ऊपर फेंककर चला गया। कंबलों का गिरना और नींद का टूटना भी एक साथ ही हुआ। बुरा तो लगा, परंतु कंबलों को पाकर संतोष भी आ ही गया। अब केवल वही एक लोहे के बंधन का कष्ट, और रह-रहकर भारत माता से जुदा होने का ध्यान साथ में था।

‘‘सूर्य निकलते ही मुझको खिचड़ी मिली और लुहार भी आ गया। हाथ की सांकल काटते समय थोड़ा-सा चमड़ा भी काटा, परंतु पैरों में से आड़ी बेड़ी काटते समय, केवल दो-तीन बार हथौड़ी से पैरों की हड्डी को ठोंक कर जाँचा कि कितनी मजबूत है। “मैंने एक बार दुःखी होकर कहा, ‘‘क्या अंधा है, जो पैर में मारता है?’’ उसने कहा, ‘‘पैर क्या हम तो दिल में भी मार देंगे, क्या कर लोगी?’’ ‘बंधन में हूँ तुम्हारे, कर भी क्या सकती हूँ…फिर मैंने उसके ऊपर थूकते हुए कहा, ‘‘औरतों की इज्जत करना सीखो?’’ जेलर भी साथ था, उसने कड़क आवाज में कहा, ‘‘तुम्हें छोड़ दिया जाएगा, यदि तुम बता दोगी कि तुम्हारे नेताजी सुभाष कहाँ हैं?’’ वे तो हवाई दुर्घटना में चल बसे, मैंने जवाब दिया, सारी दुनिया जानती है। नेताजी जिंदा हैं….झूठ बोलती हो तुम कि वे हवाई दुर्घटना में मर गए?’’ जेलर ने कहा।

हाँ नेताजी जिंदा हैं, मेरे दिल में जिंदा हैं

जैसे ही मैंने कहा तो जेलर को गुस्सा आ गया था और बोला, ‘‘तो तुम्हारे दिल से हम नेताजी को निकाल देंगे ’’ और फिर उसने मेरे आँचल पर ही हाथ डाल दिया और मेरी आँगी को फाड़ते हुए फिर लुहार की ओर संकेत किया…लुहार ने एक बड़ा सा जंबूड़ औजार जैसा फुलवारी में इधर-उधर बढ़ी हुई पत्तियाँ काटने के काम आता है, उस ब्रेस्ट रिपर को उठा लिया और मेरे दाएँ स्तन को उसमें दबाकर काटने चला था…लेकिन उसमें धार नहीं थी, ठूँठा था और उरोजों (स्तनों) को दबाकर असहनीय पीड़ा देने लगा। दूसरी तरफ से जेलर ने मेरी गर्दन पकड़ते हुए कहा, ‘अगर फिर जबान लड़ाई तो तुम्हारे ये दोनों गुब्बारे छाती से अलग कर दिए जाएँगे…’’ उसने फिर चिमटानुमा हथियार मेरी नाक पर मारते हुए कहा, ‘‘शुक्र मानो हमारी महारानी विक्टोरिया का, कि इसे आग से नहीं तपाया, आग से तपाया होता तो तुम्हारे दोनों स्तन पूरी तरह उखड़ जाते।’’

आजाद हिंद फौज की पहली जासूस

वैसे तो पवित्र मोहन रॉय आजाद हिंद फौज के गुप्तचर विभाग के अध्यक्ष थे, जिसके अंतर्गत महिलाएं एवं पुरुष दोनों ही गुप्तचर विभाग आते थे। लेकिन नीरा आर्य को आजाद हिंद फौज की प्रथम जासूस होने का गौरव प्राप्त है। नीरा को यह जिम्मेदारी इन्हें स्वयं नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने दी थी। अपनी साथी मानवती आर्या , सरस्वती राजामणि और दुर्गा मल्ल गोरखा एवं युवक डेनियल काले संग इन्होंने नेताजी के लिए अंग्रेजों की जासूसी भी की।

जासूसी से संबंधित इनकी आत्मकथा का एक अंश

“मेरे साथ एक और लड़की थी, सरस्वती राजामणि। वह उम्र में मुझसे छोटी थी, जो मूलतः बर्मा की रहने वाली थी और वहीं जन्मी थी। उसे और मुझे एक बार अंग्रेजी अफसरों की जासूसी का काम सौंपा गया। हम लड़कियों ने लड़कों की वेशभूषा अपना ली और अंग्रेज अफसरों के घरों और मिलिट्री कैम्पों में काम करना शुरू किया। हमने आजाद हिंद फौज के लिए बहुत सूचनाएँ इकट्ठी की। हमारा काम होता था अपने कान खुले रखना, हासिल जानकारी को साथियों से डिस्कस करना, फिर उसे नेताजी तक पहुँचाना। कभी-कभार हमारे हाथ महत्वपूर्ण दस्तावेज भी लग जाया करते थे। जब सारी लड़कियों को जासूसी के लिए भेजा गया था, तब हमें साफ तौर से बताया गया था कि पकड़े जाने पर हमें खुद को गोली मार लेनी है। एक लड़की ऐसा करने से चूक गई और जिंदा गिरफ्तार हो गई। इससे तमाम साथियों और आर्गेनाइजेशन पर खतरा मंडराने लगा। मैंने और राजामणि ने फैसला किया कि हम अपनी साथी को छुड़ा लाएँगी। हमने हिजड़े नर्तकी की वेशभूषा बना लिया और पहुँच गये उस जगह, जहाँ हमारी साथी दुर्गा को बंदी बना के रखा हुआ था।

हमने अफसरों को नशीली दवा खिला दी और अपनी साथी को लेकर भाग निकल। यहां तक तो सब ठीक रहा लेकिन भागते वक्त एक दुर्घटना घट ही गई, जो सिपाही पहरे पर थे, उनमें से एक की बंदूक से निकली गोली राजामणि की दाई टांग में धंस गई, खून का फव्वारा छूटा। किसी तरह लंगडाती हुई वो मेरे और दुर्गा के साथ एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गई। नीचे सर्च आॅपरेशन चलता रहा, जिसकी वजह से तीन दिन तक हमें पेड़ पर ही भूखे-प्यासे रहना पड़ा। तीन दिन बाद ही हमने हिम्मत की और सकुशल अपनी साथी के साथ आजाद हिंद फौज के बेस पर लौट आई। तीन दिन तक टांग में रही गोली ने राजमणि को हमेशा के लिए लंगड़ाहट बख्श दी। राजामणि की इस बहादुरी से नेताजी बहुत खुश हुए और उन्हें आईएनए की रानी झांसी ब्रिगेड में लेफ्टिनेंट का पद दिया और मैं कैप्टन बना दी गई। मैंने एक दिन राजामणि को मजाक में कहा, “तू तो लंगडी हो गई, अब तेरे से शादी कौन करेगा?” तो बोली, “आजाद हिन्द में हजारों छोरे हैं, उनमें से कोई एक, जो जंग में सीने पर और दोनों पैरों पर गोलियां खाएगा और दुश्मनों को ढेर करेगा उसी से कर लूंगी, बराबर की जोड़ी हो जाएगी।” उसके इस जवाब से मेरी बोलती बंद!

जीवन के अंतिम दिन

इन्होंने जीवन के अंतिम दिनों में फूल बेचकर गुजारा किया और फलकनुमा, हैदराबाद में एक झोंपड़ी में रही। अंतिम समय में इनकी झोंपड़ी को भी तोड़ दिया गया था, क्योंकि वह सरकारी जमीन में बनी हुई थी। वृद्धावस्था में बीमारी की हालत में चारमीनार के पास उस्मानिया अस्पताल में इन्होंने रविवार 26 जुलाई, 1998 में एक गरीब, असहाय, निराश्रित, बीमार वृद्धा के रूप में मौत का आलिंगन कर लिया। स्थानीय दैनिक वार्ता के एक रिपोर्टर ने अपने साथियो संग मिलकर इनका अंतिम संस्कार किया।

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