समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव तीन अप्रैल को रायबरेली में बसपा के संस्थापक कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण करने वाले हैं। इस कार्यक्रम का आयोजन स्वामी प्रसाद मौर्य ने किया है।
साफ दिख रहा है कि वोटों का नया समीकरण तैयार करने की कोशिश के तहत समाजवादी पार्टी नई सोशल इंजीनियरिंग करना चाहती है। इसके लिए एमवाई (मुस्लिम-यादव) फार्मूले पर तो फोकस बढ़ा ही है, बसपा के आधार वोट बैंक को लुभाने की कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।
अखिलेश, कांशीराम की प्रतिमा का अनावरण करने के साथ ही वहां एक बड़ी जनसभा को भी संबोधित करेंगे। बता दें कि उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का दो बार गठबंधन हो चुका है। पहली बार 1993 में तत्कालीन सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और बसपा अध्यक्ष कांशीराम ने समझौता करके बीजेपी को यूपी की सत्ता में दोबारा काबिज होने से रोक दिया।
यह गठबंधन ऐसे वक्त में हुआ था जब 1992 में अयोध्या में विवादास्पद ढांचा गिराए जाने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था। बीजेपी को पूरा भरोसा था कि राम लहर उसे आसानी से सत्ता में पहुंचा देगी लेकिन मुलायम सिंह ने कांशीराम के साथ हाथ मिलाकर बीजेपी को मात दी और फिर दूसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री बन गए।
दूसरी बार सपा-बसपा का गठबंधन 2019 के लोकसभा चुनाव में हुआ। लेकिन जातीय गणित के आधार पर बना यह गठबंधन इस बार अपना कमाल नहीं दिखा पाया। बीजेपी यूपी में भी अपनी जीत का परचम लहराने में पूरी तरह सफल रही। इस चुनाव में बीएसपी को 10 सीटें मिलीं तो काफी कोशिशों के बाद भी समाजवादी पार्टी को सिर्फ पांच सीटों पर संतोष करना पड़ा।
चुनाव के कुछ समय बाद ही सपा-बसपा अलग हो गए और तब से दोनों पार्टियां एक-दूसरे को बीजेपी की जीत के लिए जिम्मेदार ठहराने पर अमादा हैं। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट पर सिमट जाने के बाद बसपा ने इसके लिए मुस्लिम समाज के एकतरफा सपा की ओर चले जाने के चलते हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण को जिम्मेदार ठहराया तो सत्ता से काफी दूर रह गई सपा ने कहा कि मायावती जानबूझकर ऐसे उम्मीदवार खड़ा करती हैं जिससे बीजेपी को फायदा हो।
यही नहीं अखिलेश, अम्बेडकरवादी विचारधारा वाले नेताओं जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य, रामअचल राजभर, लालजी वर्मा, इंद्रजीत सरोज, डॉ.महेश वर्मा, त्रिभवन दत्त और आरके चौधरी को अपने साथ जोड़ने में कामयाब रहे हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इसके पीछे साफ तौर पर बसपा के वोटबैंक को अपने पाले में लाने की रणनीति है। रणनीति के तहत एक तरफ स्वामी प्रसाद मौर्य जैसे नेता मायावती पर डॉ.अंबेडकर और कांशीराम की विचारधारा से भटकने का आरोप लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ अखिलेश कांशीराम के बहाने दलित समाज से भावनात्मक रिश्ता बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
मायावती की नज़र समाजवादी पार्टी के मुस्लिम वोट बैंक पर है तो अखिलेश की बहुजन समाज पार्टी के दलित वोट बैंक पर। तीन अप्रैल को रायबरेली के दीन शाह गौरा ब्लॉक में स्थित कांशीराम महाविद्यालय में बसपा के संस्थापक कांशीराम की प्रतिमा के अनावरण कार्यक्रम को अखिलेश की इसी कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है।
सपा अब तक डा.राम मनोहर लोहिया की विचारधारा को लेकर चलती रही है, राजनीतिक जानकारों के मुताबिक इस कार्यक्रम के जरिए अखिलेश की कोशिश यह संदेश देने की है कि उन्होंने लोहिया के साथ-साथ अंबेडकर और कांशीराम की सियासत को भी अपना लिया है। इसी रणनीति के तहत पार्टी के कार्यक्रमों में अब अम्बेडकर की भी तस्वीरें दिखने लगी हैं।