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मुंशी प्रेमचंद : सामाजिक कुरीतियों की आग में तप के कलम को हाथ में पकड़ा

कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद का जन्म उप्र. के वाराणसी जिला के लमही गाँव में जुलाई 1880 को कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायब राय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा फारसी भाषा में हुई। इनके माता का निधन जन्म के सात साल के बाद तथा पिता का निधन सोलह साल के थे, तभी हो गया। जिसके कारण उनका प्रारम्भिक जीवन काफी संघर्षमय बीता।

प्रेमचंद गरीबी की आग में इतना झुलसे की तप के कुदंन हो गये। औऱ इन्हें कम उम्र में ही बहुत कुछ सीखने को मिला- सौतेली माँ का व्यवहार, बचपन में शादी, पण्डे-पुरोहित का कर्मकाण्ड, किसानों और क्लर्कों का दुखी जीवन। इसीलिए उनके ये अनुभव एक जबर्दस्त सचाई लिए हुए उनके कथा-साहित्य में झलक उठे थे। इन्हें बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। 13 वर्ष की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के कई मशहूर रचनाकारों- रतननाथ ‘शरसार’, मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों को पढा और लिखना शुरु किया।

शुरु के दिनों में वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में 1895 में हुआ था औऱ इनका दूसरा विवाह वाल बिधवा शिवरानी देवी से 1906 में हुआ जो वे एक सुशिक्षित महिला थीं जिन्होंने कुछ कहानियाँ और प्रेमचंद घर में शीर्षक पुस्तक भी लिखी। उनकी तीन सन्ताने हुईं-श्रीपत राय, अमृत राय और कमला देवी श्रीवास्तव। 1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी। सन 1910 में इंटर किया औऱ 1919 में अंग्रैजी,फारसी और इतिहास से बी.ए.. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए।

1921 ई. में असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी के सरकारी नौकरी छोड़ने के आह्वान पर स्कूल इंस्पेक्टर पद से 23 जून 1921को त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद उन्होंने लेखन को अपना व्यवसाय बना लिया। मर्यादा, माधुरी आदि पत्रिकाओं में वे संपादक पद पर कार्यरत रहे। इसी दौरान उन्होंने प्रवासीलाल के साथ मिलकर सरस्वती प्रेस भी खरीदा तथा हंस और जागरण निकाला। प्रेस उनके लिए व्यावसायिक रूप से घाटे का सौदा सिद्ध हुआ। 1933 ई. में अपने ऋण को उतारने के लिए उन्होंने मोहनलाल भवनानी के सिनेटोन कम्पनी में कहानी लेखक के रूप में काम करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। फिल्म नगरी प्रेमचंद को रास नहीं आई। लेकिन इनके कई कहानियों पर फिल्में भी बनी है।

इनके के साहित्यिक जीवन का आरंभ 1901 से हो चुका था, आरम्भ में वे नवाब राय के नाम से उर्दू में लिखते थे। पर इनका पहला कहानी संग्रह 1908 में सोजे वतन प्रकाशित हुआ जो देश भक्ति की भावना से ओतप्रोत था जिस कारण सरकार ने इसे बैन कर दिया और इन्हें लिखने पर भी रोक लगा दिया तब ये प्रेमचंद के नाम से लिखना शुरु किया। उनका यह नाम दयानारायन निगम ने रखा था। ‘प्रेमचंद’ नाम से उनकी पहली कहानी बडे घऱ की बेटी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर 1910 के अंक में प्रकाशित हुई। 1915 ई. में उस समय की प्रसिद्ध हिंदी मासिक पत्रिका सरस्वती के दिसम्बर अंक में पहली बार उनकी कहानी सौत नाम से प्रकाशित हुई। फिर 1918 ई. में उनका पहला हिंदी उपन्यास सेवा सदन प्रकाशित हुआ। इसकी अत्यधिक लोकप्रियता ने प्रेमचंद को उर्दू से हिंदी का कथाकार बना दिया। हालाँकि उनकी लगभग सभी रचनाएँ हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित होती रहीं।

वो हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय रचनाकार (उपन्यासकार, कहानीकार) एवं विचारक थे। उन्होंने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास तथा कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा आदि सहित तीन सौ से अधिक कहानियाँ तथा डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। प्रेमचंद फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई आए और लगभग तीन वर्ष तक रहे। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अन्तिम व्याख्यान, कफन अन्तिम कहानी, गोदान अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।

1906 से 1936 के बीच लिखा गया प्रेमचंद का साहित्य इन तीस वर्षों का सामाजिक सांस्कृतिक दस्तावेज है। इसमें उस दौर के समाज सुधार आन्दोलनों, स्वाधीनता संग्राम तथा प्रगतिवादी आन्दोलनों के सामाजिक प्रभावों का स्पष्ट चित्रण है। उनमें दहेज, अनमेल विवाह, पराधीनता, लगान, छूआछूत, जाति भेद, विधवा विवाह, आधुनिकता, स्त्री-पुरुष समानता, आदि उस दौर की सभी प्रमुख समस्याओं का चित्रण मिलता है। जो आज भी समाज में विद्यमान है और इनके साहित्य की मुख्य विशेषता है। हिन्दी कहानी तथा उपन्यास के क्षेत्र में 1918 से 1936 तक के कालखण्ड को ‘प्रेमचंद युग’ कहा जाता है। उनका स्वास्थ्य निरन्तर बिगड़ता गया और जलोदकृर की बीमारी के कारण 56 वर्ष की आयु में 8 अक्टूबर 1936 को उनका निधन हो गया।

लाल बिहारी लाल
लाल बिहारी लाल

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