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ऋषि परंपरा का निर्वाह

@डॉ दिलीप अग्निहोत्री जगतगुरु राम भद्राचार्य ऋषि परंपरा का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। उसको आगे बढ़ा रहे हैं। उन्होंने अयोध्या श्रीराम जन्मभूमि पर मंदिर के संबन्ध में चार सौ से अधिक प्रमाण सुप्रीम कोर्ट को दिए गए थे। उन्होंने प्राचीन ग्रंथों के प्रमाणिक उद्धरण प्रस्तुत किये थे। रामभद्राचार्य जी ने दावे के साथ कहा था कि वाल्मीकि रामायण के बाल खंड के आठवें श्लोक से श्रीराम जन्म के बारे में जानकारी शुरू होती है। यह सटीक प्रमाण है। इसके बाद स्कंद पुराण में राम जन्म स्थान के बारे में बताया गया है। राम जन्म स्थान से तीन सौ धनुष की दूरी पर सरयू माता बह रही हैं। एक धनुष चार हाथ का होता है।

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आज भी यदि नापा जाए तो जन्म स्थान से सरयू नदी उतनी ही दूरी पर बहती दिखेगी। इसके पूर्व अथर्व वेद के दशम कांड के इकतीसवें अनु वाक्य के द्वितीय मंत्र में स्पष्ट कहा गया है कि आठ चक्रों व नौ प्रमुख द्वार वाली श्री अयोध्या देवताओं की पुरी है। उसी अयोध्या में मंदिर महल है। उसमें परमात्मा स्वर्ग लोक से अवतरित हुए थे। ऋग्वेद के दशम मंडल में भी इसका प्रमाण है। तुलसी शतक में कहा है कि बाबर के सेनापति व दुष्ट यवनों ने राम जन्मभूमि के मंदिर को तोड़कर मस्जिद का ढांचा बनाया और बहुत से हिंदुओं को मार डाला।तुलसीदास ने तुलसी शतक में इस पर दुख भी प्रकट किया था। मंदिर तोड़े जाने के बाद भी हिंदू साधु रामलला की सेवा करते थे।

ऋषि परंपरा का निर्वाह

इस पूरे प्रसंग से रामभद्राचार्य जी की विलक्षण प्रतिभा का अनुमान लगाया जा सकता है। उनका अध्ययन अद्भुत है। इसी के साथ वह समाज के कल्याण में भी समर्पित है। जिस शिशु की दो माह बाद ही नेत्र ज्योति चली जाए,उसके लिए जीवन अंधकार मय हो जाता है। लेकिन ऐसे अनेक विलक्षण लोग है,जिन्होंने इस अभाव को बाधक नहीं बनने दिया। प्रबल इच्छाशक्ति के साथ उन्होंने अभाव को प्रभाव में बदल दिया।

आंखे ना होने के बाबजूद अपना जीवन प्रकाशित किया,साथ में समाज को भी रोशनी दिखाई।रामभद्राचार्य जी ऐसी ही विभूति है। वह जब मात्र दो माह के थे,उनकी नेत्र ज्योति चली गई थी। तब उनके परिवार में चिंता व निराशा थी। शिशु के भविष्य को लेकर बड़ी आशंका थी। तब किसी ने यह कल्पना नहीं की होगी कि एक दिन यह बालक समाज को मार्ग दिखायेगा। श्रीराम भूमि पर उनके तर्क अकाट्य थे। सभी लोग उनके अध्ययन व ज्ञान को देखकर हतप्रभ थे।

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भारतीय दर्शन व प्रज्ञा का चमत्कार प्रभावित करने वाला था। ज्ञान चक्षु जीवन आलोकित हो जाता है। इसे प्रत्यक्ष देखा जा रहा था। अति विशाल भारतीय वैदिक वांग्मय के अलावा अन्य सभी ग्रन्थों की पृष्ठ संख्या तक उनकी स्मृति में थी।उन्होंने इस विलक्षण ज्ञान को अपने तक सीमित नहीं रखा,बल्कि समाज का भी वह अनवरत मार्ग दर्शन कर रहे है, विद्या का सतत दान कर रहे है। वह विश्वविद्यालय के कुलाधिपति है। इस रूप में वह विद्यार्थियों को शिक्षित करते है। वह प्रभावी व ज्ञानवर्धक राम कथा के वाचक है। इस रूप में समाज को प्रभु राम की मर्यादा का संदेश देते है। वह तुलसीपीठ के संस्थापक व पीठाधीश्वर है।

चित्रकूट स्थित इस संस्थान के माध्यम से केवल धार्मिक ही नहीं सामाजिक सेवा के कार्यक्रमों का संचालन किया जाता है। वह चित्रकूट में जगद्गुरु रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलाधिपति हैं। जबकि अभाव के कारण सत्रह वर्ष की आयु तक उनको औपचारिक शिक्षा का अवसर नहीं मिला था। उन्होंने कभी भी ब्रेल लिपि का उपयोग नहीं किया। सत्रह वर्ष की उम्र में ही उनके अनेक ग्रन्थ कंठस्थ हो गए थे। उनका बाइस भाषाओं पर अधिकार है। अभी तक सौ से अधिक पुस्तकें लिख चुके है। संस्कृत,व्याकरण,न्याय वेदांत,रामायण आदि के विशेषज्ञ है।

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कुछ समय पहले चित्रकूट में प्रधानमंत्री ने तुलसी पीठ के जगद्गुरु रामानंदाचार्य की तीन पुस्तकों अष्टाध्यायी भाष्य’,रामानंदाचार्य चरितम’ और ‘भगवान श्री कृष्ण की राष्ट्रलीला’ का विमोचन किया था। ऐसे साहित्य से भारत की ज्ञान परंपराएं और मजबूत होती हैं संस्कृत शाश्वत है। समय ने संस्कृत को परिष्कृत किया। लेकिन इसे कभी प्रदूषित नहीं किया जा सका। संस्कृत का परिपक्व व्याकरण निहित है। मात्र चौदह महेश्वर सूत्रों पर आधारित यह भाषा शास्त्र और सहस्त्र की जननी रही है। भारत के सभी राष्ट्रीय आयाम में संस्कृत का योगदान है। हजारों साल पुराने गुलामी के दौर में भारत की संस्कृति और विरासत को नष्ट करने प्रयास किया गया। गुलामी की मानसिकता वालों का संस्कृत के प्रति वैर-भाव था। जबकि संस्कृत परंपराओं की भाषा है।

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