अंततः प्रधानमन्त्री मोदी ने कृषि कानूनों की वापसी का ऐलान कर दिया। सहसा इस खबर पर यकीन करना कठिन था। क्योंकि नरेंद्र मोदी की इमेज कठोर निर्णयों के लेने एवं उन पर अडिग रहने की है यदि यह निर्णय उनकी समझ में देश हित में हैं। किसी भी दबाब में मोदी अपने फैसले बदलने के लिए नहीं जाने जाते। शायद यही कारण है कि विपक्ष उन्हें तानाशाह एवं किसी की भी न सुनने वाले के विशेषणों से अलंकृत करता रहा है। कृषि कानूनों की वापसी अत्यधिक निराश जनक है। यह राजनीति की अर्थशास्त्र पर जीत है।
मोदी ने कृषि कानूनों की वापसी के समय अपने सम्बोधन में जैसा कहा कि यह कानून सच्ची नीयत से लाए गए और दिए की लौ की तरह सत्य थे परन्तु कुछ लोगों को हम समझा नहीं सके,अतः उनकी भावनाओं को देखते मैं इन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेता हूँ। यह सत्य है कि स्वतंत्रता के बाद पहली बार किसी सरकार ने कृषि क्षेत्र में मूलभूत सुधार लाने एवं किसानों को शोषण एवं बन्धनों से निजात दिलाने के लिए सही कदम उठाते हुए इन तीनों कृषि कानूनों के रूप में महत्वपूर्ण कदम उठाया था जो विपक्ष विशेष रूप से कांग्रेस एवं वामपंथियों के मोदी विरोध के एजेंडे एवं उनकी कुत्सित राजनीति की भेंट चढ़ गया।
निकट भविष्य में अब शायद ही कोई कृषि क्षेत्र एवं किसानों की माली हालत सुधारने के लिए कोई क्रान्तिकारी कदम उठाने के विषय में सोचेगा। अपने देश में कृषि क्षेत्र की उत्पादकता एवं आय का स्तर बहुत नीचा है और देश के चौरासी प्रतिशत किसान लघु एवं सीमान्त कृषक हैं जिनके पास दो हेक्टेअर या कम ही भूमि है। इन कृषि कानूनों का लक्ष्य इन छोटी जोत के किसानों का उद्धार ही था जिनके पास न तो निवेश के लिए पूंजी है और न ही इतना विपणन आधिक्य कि वे गरीबी के दुष्चक्र से बाहर आ सकें। सरकारी विपणन मंडियों में बिचौलियों के द्वारा एक लम्बे समय से इनका शोषण सर्वविदित है।
इन कृषि कानूनों के माध्यम से किसानों को अपनी फसल कहीं भी बेचने का अधिकार दिया गया और उनके विकल्पों को बढ़ाने के लिए कृषि उपज की खरीद के लिए निजी क्षेत्र को भी भागीदारी देने की व्यवस्था की गई। इन कृषि कानूनों की वापसी का मतलब है कि देश के किसानों को पुनः उन्हीं राज्य मंडियों में बिचौलियों के वर्चस्व के तहत अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर होना होगा। अब किसानों के लिए लाभदायक कीमत की कल्पना पुनः एक सपना हो जाएगी।
निजी निवेश को कृषि क्षेत्र में प्रोत्साहित करने के लिए इन कृषि कानूनों में एक संविदा खेती को बढ़ावा देने के लिए था जिसमें किसान फसल के पूर्व निजी उद्योगपतियों से संविदा कर सकते थे और अपनी फसल सीधे बेचकर अच्छी कीमत प्राप्त कर सकते थे। कानून में प्रावधान किए गए थे कि छोटे किसानों का किसी प्रकार से शोषण उद्योगपतियों द्वारा न किया जा सके। यह प्रावधान किए गए कि किसान जब चाहे संविदा से हट सकता है और इसके लिए उस पर कोई दण्ड या जुर्माना नहीं लगाया जा सकता। यह स्पष्ट तौर पर प्रावधान था कि संविदा केवल फसल के लिए होगा। किसानों की भूमि की खरीद बिक्री या पट्टे को संविदा खेती के दायरे से पूर्णतया प्रथक रखा गया था।
यदि कृषि कानून लागू होते तो इस निजी निवेश का फायदा किसानों को मिलता परन्तु कानूनों की वापसी ने छोटे किसानों को इस अवसर से वंचित कर दिया। देश में पंजाब, महाराष्ट्र, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश जैसे दस से अधिक राज्यों में संविदा खेती लागू है परन्तु इनके नियम कानूनों में एकरुपता नहीं है और किसानों के हित भी संरक्षित नहीं हैं। मोदी जी द्वारा लाए गए कानून का उद्देश्य था कि एक ही नियम कानून के तहत देश के सभी किसानों को इसका लाभ मिले परन्तु कृषि कानूनों के विरोधी वामपंथियों एवं कांग्रेस के किसान संगठनों ने झूठा दुष्प्रचार किया कि मोदी किसानों की जमीन अडानी अम्बानी के हाथ देने के लिए यह कानून लाए हैं। इनमें से कोई यह बता सकता है कि जिन राज्यों में दशकों से संविदा खेती है, वहाँ कितनी किसानों की जमीन निजी उद्योगपतियों ने हड़प ली।
इन कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के समय नरेंद्र मोदी ने जो तर्क दिया कि हमारी तपस्या में ही शायद कोई कमी रही कि हम कुछ लोगों को अपनी बात समझा नहीं सके। एक लोकतंत्र में आप किसी भी नीति या कानून के लिए शत प्रतिशत समर्थन की उम्मीद नहीं कर सकते।यदि कोई कानून अधिकतर लोगों के हित में है और वह चौरासी प्रतिशत किसानों को फसल बेचने के विकल्प देने के साथ साथ उन्हें निजी निवेश के माध्यम से आय बढ़ाने का अवसर भी प्रदान करता है तो कुछ विपक्षी दलों की किसान संगठनों द्वारा प्रायोजित धरना प्रदर्शन एवं विरोध के समक्ष समर्पण की नीति एक तरह से उन लोगों के लिए मायूस करने वाला कदम है जो प्रधानमन्त्री के द्वारा लाए इन कानूनों से कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन आने एवं लघु सीमान्त कृषकों के अच्छे दिन आने की उम्मीद कर रहे थे। यह भी सही है कि कृषि कानूनों के विषय में विपक्ष का दुष्प्रचार इतना अधिक था और इस विषय को एक चुनावी मुदा बनाकर जिस तरह सभी राजनीतिक दल भाजपा एवं मोदी को किसान विरोधी साबित करने में लगे थे उससे सरकार के लिए भी चुनौती खड़ी हो गई थी कि वह किस तरह इस दुष्प्रचार से बचे कि उसके लिए किसानों के हितों से अधिक अपनी जिद एवं हठधर्मिता है।
अधिकांश किसान इन कानूनों की बारीकियों एवं प्रावधानों को समझते नहीं ,अतः आन्दोलन करने वाले नेताओं एवं विपक्ष के लिए किसानों को झूठे दुष्प्रचार से भी समझाना आसान रहा कि यदि नए कानूनों को लागू किया गया तो किसानों की जमीन चली जाएगी एवं सरकारी मण्डियाँ समाप्त हो जाएगी। किसान निजी उद्योगपतियों की कृपा पर निर्भर हो जाएगा जिनका कृषि उपज की खरीददारी में अहम भूमिका होगी। निकट भविष्य में उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड सहित पांच राज्यों के चुनाव ने सरकार को ऐसा आत्मघाती एवं अदूरदर्शी कदम उठाने के लिए मजबूर किया। ऐसा मैं इस कारण से कह रहा हूँ कि इन कानूनों की वापसी से प्रधानमन्त्री की देश एवं कमजोर व्यक्ति के साथ खड़ा रहने की छवि कमजोर हुई है। इसके साथ ही इन कानूनों की वापसी से एक गलत संदेश यह भी गया कि देश में किसी भी झूठे दुष्प्रचार के सहारे भीड़तंत्र जुटाकर इस सरकार को किसी भी देशहित एवं बहुजन हिताय निर्णय को वापस लेने के लिए मजबूर किया जा सकता है। यदि निकट भविष्य में अनुच्छेद 370 समर्थक एवं सीएए विरोधी पुनः सक्रिय हों तो कोई ताज्जुब नहीं। मेरा तो कहना है कि मोदी जी को अनुच्छेद 370 को बहाल कर देना चाहिए क्योंकि वहाँ भी आप एक वर्ग को समझाने में विफल रहे और वह आज भी आन्दोलित है। यही बात सीएए पर भी लागू होती है। सीएए पर अब तक नियमों का भी न बनना किसी न किसी सीमा तक सरकार की इस विषय में उदासीनता तो दर्शाता ही है।
मेरा मानना है कि मोदी जी की छवि देश के जनमानस में यह है कि वह जो भी निर्णय लेंगे वह देशहित में ही होगा। इस स्थिति में मोदी जी द्वारा राकेश टिकैत, हन्नान मुल्ला, योगेन्द्र यादव जैसे तथाकथित किसान नेताओं के दबाव में ऐसा निर्णय लेना समझ से परे है। यदि कानूनों की वापसी का निर्णय पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को साधने या उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड में चुनाव में सम्भावित नुकसान को सीमित रखने के लिए लिया गया तो यह सही है कि राजनीति ने अर्थशास्त्र ही नहीं देशहित को भी किनारे कर दिया। सरकार वस्तुतः असमंजस की स्थिति में रही। सामान्य किसानों के हितों से बेपरवाह इस तथाकथित किसान आन्दोलन का प्रारम्भ से ही मक़सद किसानों की आड़ में मोदी को घेरना एवं देश में अराजकता फैलाना था जिसका सबसे बड़ा सबूत गणतंत्र दिवस पर सामने आया जब अराजक तत्वों की मदद से इन नेताओं ने दिल्ली में लाल किले तक ट्रैक्टर रैली एवं लाल किले का झण्डा उतारने से लेकर पुलिस पर हमला भी किया।
गणतंत्र दिवस पर जो नंगा नाच किया गया वह देश का किसान करने की सोच भी नहीं सकता परंतु अफसोस है कि कानून वापसी के साथ ही घटना के लिए जिम्मेदार लोग मुखर होकर दर्ज मुकदमों की वापसी की मांग उठा रहे हैं। हकीकत यह है कि यह आन्दोलनकारी अब भी सरकार पर ही सभी घटनाओं की जिम्मेदारी डाल रहे हैं और अब भी आन्दोलन समाप्त कर घर वापसी को तैयार नहीं हैं। अब भी वह चुनाव तक किसी न किसी बहाने आन्दोलन जीवित रखना चाहते हैं और सरकार पर उन्हें आन्दोलनजीवी, खालिस्तानी एवं न जाने क्या क्या कहे जाने का आरोप लगा रहे हैं।
सात सौ से अधिक किसानों की आन्दोलन के दौरान शहादत के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा करने के साथ साथ उनके परिवारों की मदद के लिए भी दबाव बना रहे हैं। एम एस पी के लिए अनिवार्य कानून बनाने को अब वो अपनी मुख्य मांग बताने लगे हैं। अब जब सरकार ने पहल की है और आन्दोलन को समाप्त करने के लिए कृषि क्षेत्र के लिए उठाए गए अपने महत्वपूर्ण कदम पीछे खींच लिए है तो उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि अब आन्दोलन शीघ्रातिशीघ्र खत्म हो। किसान नेताओं को भी प्रधानमन्त्री मोदी के इस कदम की सार्थकता के लिए आन्दोलन को समाप्त करने के विषय में सोचना चाहिए।
(लेखक अर्थशास्त्री है)