ज्ञान का उद्देश्य जानकारी पाना ही नहीं होता। ज्ञान, विज्ञान और दर्शन से समस्त मानवता का हित होता है। भारत में लगभग 5000 वर्ष पहले से ही लोकमंगल हितैषी ज्ञान परंपरा है। ऋग्वेद के ज्ञान सूक्त (10.71) में कहते हैं, “प्रारंभिक दशा में पदार्थों के नाम रखे गये। यह ज्ञान का पहला चरण है। इनका दोष रहित ज्ञान पदार्थों का गुण, धर्म आदि अनुभूति की गुफा में छुपा रहता है और अंतःप्रेरणा से ही उदभूत होता है।” वैदिक काल ज्ञान दर्शन का अरुणोदय काल है। यही परंपरा ऋग्वेद सहित चार वैदिक संहिताओं में विश्व की पहली ज्ञान सारिणी बनती है। उत्तर वैदिक काल के उपनिषद दर्शन में खिलती है। फिर 6 प्राचीन दर्शनों में जिज्ञासा व तर्क के साथ प्रकट होती है। यही बुद्ध व जैन दर्शनों में अभिव्यक्त होती है। इसी परंपरा में पाणिनि दुनिया का पहला व्याकरण लिखते हैं।
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पतंजलि योगसूत्र व भाषा अनुशासन लिखते हैं। कौटिल्य दुनिया का पहला अर्थशास्त्र लिखते हैं। वात्स्यायन कामसूत्र लिखते हैं। भरतमुनि दुनिया का पहला नाट्यशास्त्र लिखते हैं। इसी परंपरा में चरक और सुश्रुत संहिताएं आयुर्विज्ञान के आधारभूत ग्रंथ बनती हैं। ऐसे सभी विद्वान अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का उल्लेख करते हैं। वे अपने कथन को प्राचीन ज्ञान परंपरा से जोड़ते हैं।
विज्ञान के विकास में गणित का विशेष महत्व होता है। एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में कहा गया है कि शून्य के अंक का अविष्कार संभवतः हिन्दुओं ने किया था। शून्य और शून्य के स्थानगत मूल्यों की जानकारी वैदिक काल में थी। प्राचीन काल में गीत, संगीत, चित्रकला और स्थापत्य सहित सभी ज्ञान अनुशासन फल फूल रहे थे। ब्रिटिश सत्ता के समय भारतीय ज्ञान परंपरा का सुनियोजित तिरस्कार हुआ। पश्चिमी ज्ञान और सभ्यता का प्रभाव बढ़ा। यहाँ के विद्यालयों में पश्चिम की प्रशंसा और भारतीय ज्ञान के प्रति हीन भाव पढ़ाया जाने लगा। इतिहास का विरूपण हुआ। समाज शास्त्र, राजनीति शास्त्र आदि सभी मानविकी पुस्तकों की शुरुआत लैटिन के उद्धरणों से होने लगी। वेदों क¨ चरवाहों के गीत कहा गया। भारतीय दर्शन को भाववादी कहा गया। ब्रिटिश विद्वानों व उनके समर्थक भारतवासी विद्वानों ने दावा किया कि अंग्रेजी राज के पहले भारत एक राष्ट्र नहीं था।
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भारत को अंग्रेजों ने ही राष्ट्र बनाया है। गाँधी जी ने इसका खंडन किया है। ब्रिटिश सत्ता भारत को असभ्य बता रही थी। उन्होंने ब्रिटिश संसद को विश्व संसदीय व्यवस्था की जननी बताया। इसके हजारों वर्ष पहले वैदिक काल में सभा थी। समितियां थीं। राजव्यवस्था थी। राजा का निर्वाचन होता था।
यूरोपीय विद्वानों ने भारतीय कला और सौंदर्यबोध का भी मजाक उड़ाया। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नाटक को विश्व के लिए उपयोगी बताया था, “यह नाट्य संसार में वेदों, विद्याओं और इतिहास की गाथाओं की परिकल्पना करने वाला लोगों के मनोविनोद का भी कर्ता होगा।” नाट्य में समस्त लोकों का अनुकीर्तन होता है। भरतमुनि ने नाटक के अभिनय पक्ष की प्रशंसा की। यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने नाटक के अभिनय पक्ष पर ध्यान नहीं दिया। भरतमुनि ने संगीत और नृत्य परंपरा का भी उल्लेख किया है। महाभारत और रामायण विश्व के प्रतिष्ठित महाकाव्य हैं। महाभारत में अर्जुन अज्ञातवास के समय गीत संगीत और नृत्य सीखते हैं। श्रीकृष्ण जैसा नाचता देवता दुनिया की किसी भी सभ्यता संस्कृति में नहीं मिलता। वाल्मीकि रामायण में किष्किंधा नगरी में नृत्य का उल्लेख है। उन्होंने कई आश्रमों में पेड़ पौधों को भी नाचते हुए बताया है।
भारत में सभी ज्ञान अनुशासनों का विस्तार वैदिक काल में हो चुका था। नाट्यशास्त्र में नारद व स्वाति के नाम हैं। स्वाति के विषय में लिखा है कि, “कमलपत्रों पर वर्षा की बूंदों से होने वाली धुन को सुन कर उनके मन में वाद्य निर्माण का विचार आया था।” ऋग्वेद में नाट्य और संगीत से जुड़े तमाम यंत्रों का उल्लेख है। गीत संगीत की चर्चा है। यह सब यूनानी दर्शन में नहीं मिलता। चित्रकला का सम्बंध देखने से है। ऋषि सूर्योदय के पहले ऊषा देखते हैं। कहते हैं, “ऊषाएं शोभा और सौन्दर्य प्रकट करती हैं।” भारतीय दर्शन में जो सुन्दर है वह सत्य है और जो सत्य है वह शिव है। सुकरात ने सुन्दर और शिव को एक बताया था। प्लेटो ने कहा कि सुन्दर परम और पूर्ण है। सुन्दर का नैतिक होना आवश्यक है। योगी अरविन्द ने यूरोपीय और भारतीय कला का भेद बताते हुए लिखा था, “पश्चिमी मानस रूप के आकर्षण जाल में है। वह रूप सौंदर्य के कारण उसके प्रति आसक्त रहता है। भारतीय दृष्टि में रूप आत्मा का सृजन है।” सौंदर्य की भावना एकाग्रता लाती है। अभिनव गुप्त ने इसे बीत विघ्ना प्रतीति कहा। प्राचीन भारतीय कला के साक्ष्य ऋग्वेद में है। संगीत के सात सुरों की चर्चा है। सामवेद ज्ञान गान है। यजुर्वेद में भी छंद विधान है। अथर्ववेद में भरा पूरा संसार है। सौंदर्यशास्त्री केएस रामास्वामी ने ‘इंडियन एस्थेटिक्स‘ में लिखा था, “भारत में सौंदर्य शास्त्र की हजारों वर्ष पुरानी ज्ञान परंपरा है।”
ब्रिटिश राज में आदर्श मनुष्य की रचना का काम बाधित हुआ। विद्वान भी अपनी बात कहने के लिए पश्चिमी विद्वानों के संदर्भ देने लगे। ब्रिटिश सत्ता ने पूरा पाठ्यक्रम बदला। शिक्षा का उद्देश्य ब्रिटिश प्रभुवर्ग के आज्ञाकारी सेवक तैयार करना हो गया। भारतीय ज्ञान परंपरा पृष्ठभूमि में धकेल दी गई। स्वतंत्र भारत में भी निरुपयोगी पाठ्यक्रम चलता रहा। ऐसी पढ़ाई का जीवन में कोई उपयोग नहीं। गाँधी जी ने लिखा है, “अब ऊंची शिक्षा को लें। मैंने भूगोल सीखा। खगोल सीखा। बीजगणित भी मुझे आ गया। मैंने रेखागणित का ज्ञान भी हासिल किया, भूगर्भ-विद्या को भी पा गया। लेकिन उससे मैंने अपने आस पास के लोगों का क्या भला किया? अगर यही सच्ची शिक्षा हो तो मैं कसम खा कर कहूंगा कि जो शास्त्र मैंने गिनाएं हैं उनका उपयोग मेरे शरीर या मेरी इन्द्रियों को वश में करने के लिए मुझे नहीं करना पड़ा। प्राइमरी-प्राथमिक शिक्षा को लीजिये या ऊंची शिक्षा को लीजिये, उसका उपयोग मुख्य बात में नहीं होता। उससे हम मनुष्य नहीं बनते। उससे हम अपना कर्तव्य नहीं जान सकते।” ज्ञान परंपरा के अनुसरण में पूरा पाठ्यक्रम बदलने की जरूरत है।
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सम्प्रति नई शिक्षा नीति के अंतर्गत भारतीय ज्ञान परंपरा के प्रशिक्षण का कार्यक्रम बनाया गया है। कहा गया है कि शिक्षक अपने विषय पढ़ाते समय छात्रों को भारतीय ज्ञान से जुड़े उदाहरण ही दें। छात्रों के साथ विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थाओं के शिक्षकों को ज्ञान परंपरा की जड़ों से जोड़ने की पहल की गई है। जड़ों से उखड़े वृक्षों पर फूल नहीं खिलते। पक्षी ऐसे वृक्षों पर गीत नहीं गाते। भारत की ज्ञान परंपरा विश्व में अनूठी और प्रथम है। समय और परिस्थितियों के कारण इस ज्ञान परंपरा के प्रवाह में बाधाएं आयीं। गीता (अध्याय 4.1-3) में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान परंपरा बताई, “यह प्राचीन ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था। विवस्वान ने मनु को। मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था। परंपरा से यही ज्ञान ऋषि जानते आए हैं। काल प्रवाह में यह ज्ञान नष्ट हो गया। हे अर्जुन वही पुरातन ज्ञान मैं तुमको बता रहा हूँ।” श्रीकृष्ण प्राचीन ज्ञान परंपरा को पुनर्जीवित करने की बातें कर रहे थे। सम्प्रति यही काम नरेन्द्र मोदी की सरकार कर रही है। यह स्वागत योग्य है।