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संघ प्रमुख के सार्थक विचार

हिंदुत्व की व्यापक अवधारणा है। यह वस्तुतः जीवन पद्धति है। जिसमें उपासना पद्धति से कोई अंतर नहीं पड़ता। अन्य पंथ के प्रति नफरत कट्टरता या आतंक का विचार स्वतः समाप्त हो जाता है। तब वसुधैव कुटुंबकम व सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव ही जागृत होता है। भारत जब विश्व गुरु था तब भी उसने किसी अन्य देश पर अपने विचार थोपने के प्रयास नहीं किये। भारत शक्तिशाली था तब भी तलवार के बल पर किसी को अपना मत त्यागने को विवश नहीं किया। दुनिया की अन्य सभ्यताओं से तुलना करें तो भारत बिल्कुल अलग दिखाई देता है। जिसने सभी पंथों को सम्मान दिया। सभी के बीच बंधुत्व का विचार दिया। ऐसे में भारत को शक्ति संम्पन्न बनाने की बात होती है तो उसमें विश्व के कल्याण का विचार ही समाहित होता है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ऐसे ही भारत को पुनः देखना चाहता है। इस दिशा में प्रयास कर रहा है।

सरसंघ चालक मोहन भागवत जी ने एक साक्षात्कार में इसी के अनुरूप विचार व्यक्त किये। उन्होंने भारत के पुनः विश्व गुरु होने आत्मनिर्भर भारत, जन्मभूमि पर राम मंदिर, शिक्षा नीति आदि अनेक सामयिक व ज्वलन्त विषयों पर विचार व्यक्त किया। संघ प्रमुख के विचार मार्ग दर्शक रूप में महत्वपूर्ण है। भारत की प्रकृति को समझना अपरिहार्य है। अन्य देशों फार्मूले यह चरितार्थ नहीं हो सकते। भारत की प्रकृति मूलतः एकात्म है और समग्र है। अर्थात भारत संपूर्ण विश्व में अस्तित्व की एकता को मानता है। इसलिए हम टुकड़ोंमें विचार नहीं करते। हम सभी का एक साथ विचार करते हैं। जन्म भूमि पर श्री राम मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त हुआ। निर्माण का यह विषय पूर्ण हुआ। लेकिन श्रीराम तो भारत के आत्मतत्व में है, शाश्वत है।

इसलिए श्रीराम का विषय कभी समाप्त नहीं हो सकता।श्रीराम भारत के बहुसंख्यक समाज के लिए भगवान हैं और जिनके लिए भगवान नहीं भी हैं, उनके लिए आचरण के मापदंड तो हैं। भगवान राम भारत के उस गौरवशाली भूतकाल का अभिन्न अंग हैं। राम थे, हैं,और रहेंगे। वास्तविकता यह है कि ये प्रमुख मंदिर इस देश के लोगों के नीति एवं धैर्य को समाप्त करने के लिए तोड़े गए थे। इसलिए हिंदू समाज की तब से ही यह इच्छा थी कि ये मंदिर फिर से बनें। “परमवैभव संपन्न विश्वगुरु भारत” बनाने के लिए भारत के प्रत्येक व्यक्ति को वैसा भारत निर्माण करने के योग्य बनना पड़ेगा। अत: मन की अयोध्या बनाना तुरंत शुरू कर देना चाहिए।

रामचरितमानस के दोहे स्मरण रखने चाहिए।

काम कोह मद मान न मोहा ! लोभ न छोभ न राग न द्रोहा !!
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया ! तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया !!
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राम में रमे हुए लोगों की अयोध्या ऐसी होती है। दूसरा दोहा है-

जाति पांति धनु धरमु बड़ाई, प्रिय परिवार सदन सुखदाई !
सब तजि तुम्हहि रहई उर लाई, तेहि के ह्रदयँ रहहु रघुराई !!

रामजी के उस आदर्श को,उस आचरण को, उन मूल्यों को अपने हृदय में धारण कर लें। ‘तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई’ ऐसा जीवन बनाना चाहिए। समाज का आचरण शुद्ध होना चाहिए। इसके लिए जो व्यवस्था है उसमें ही धर्म की भी व्यवस्था है। धर्म में सत्य,अहिंसा,अस्तेय, ब्रह्मचर्य,अपरिग्रह, शौच, स्वाध्याय,संतोष,तप को महत्व दिया गया। समरसता सद्भाव से देश का कल्याण होगा। हमारे संविधान के आधारभूत तत्व भी यही हैं। संविधान में उल्लिखित प्रस्तावना,नागरिक कर्तव्य,नागरिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व यही बताते हैं। जब भारत एवं भारत की संस्कृति के प्रति भक्ति जागती है व भारत के पूर्वजों की परंपरा के प्रति गौरव जागता है, तब सभी भेद तिरोहित हो जाते हैं। भारत ही एकमात्र देश है जहाँ पर सब के सब लोग बहुत समय से एक साथ रहते आए हैं। सबसे अधिक सुखी मुसलमान भारत देश के ही हैं। दुनिया में ऐसा कोई देश है जहाँ पर उस देश के वासियों की सत्ता में दूसरा संप्रदाय रहा हो।

हमारे यहाँ मुसलमान व इसाई हैं। उन्हें तो यहाँ सारे अधिकार मिले हुए है, पर पाकिस्तान ने तो अन्य मतावलंबियों को वे अधिकार नहीं दिए। बाबासाहेब आंबेडकर भी यह मानते थे कि जनसंख्या की अदला बदली होनी चाहिए। परंतु उन्होंने भी यहाँ जो लोग रह गए उन्हें स्थानांतरित करने का प्रावधान संविधान में नहीं किया। बल्कि उनके लिए भी एक जगह बनाई गई। यह हमारे देश का स्वभाव है और इस स्वभाव को हिंदू कहते हैं। हम हिंदू हैं और हम भारतीय हैं। हम मुसलमान हैं लेकिन हम अरबी अथवा तुर्की नहीं है। शिक्षा में आत्म भान व गौरव भाव होना चाहिए। गौरवान्वित करने वाली बातों को देने वाले संस्कार शिक्षा से, सामाजिक वातावरण से एवं पारिवारिक प्रबोधन से मिलना चाहिए।

आत्मनिर्भरता स्वावलंबी या विजयी भाव नहीं है। हम कभी भी अतिवादी नहीं हो सकते हैं। डॉ आंबेडकर साहब ने संसद में कहा स्वतंत्रता और समता एक साथ लाना है तो बंधु भाव चाहिए। विश्व की अर्थव्यवस्था में एक हजार वर्ष तक भारत नंबर वन पर रहा। उस समय विश्व के बहुत बड़े भूभाग पर हमारा प्रभाव तो था। हमारा साम्राज्य भी बहुत बड़ा था। लेकिन ऐसा सब होने के बावजूद भी हमने दुनिया में जाकर किसी भी देश को समाप्त नहीं किया।हमारी शिक्षा दुनिया के संघर्ष में खड़ा होकर अपना और अपने परिवार का जीवन चला सके इतनी कला और इतना विश्वास देने वाली होनी चाहिए।

डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

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