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गोवर्धन पूजा का सन्देश

भारतीय जनमानस प्राचीन काल से उत्सवधर्मी रहा है। इसका कारण है कि यहां प्रकृति की बड़ी कृपा रही है। कृषि पशुपालन,बागवानी आदि से धन धान्य की कमी नहीं रही। नदियों की श्रृंखला में अविरल प्रवाह रहा। इस माहौल में दर्शन व साहित्य का विकास हुआ। अनुसंधान हुए। भारत विश्व गुरु बना। इसे सोने की चिड़िया कहा गया। उत्सव के उल्लास उसी समय से जीवन में सम्मलित हो गए।

भारतीय संस्कृति में प्रत्येक पर्वों का विशिष्ट सन्देश व सामाजिक पृष्ठिभूमि को महत्व दिया गया। इसमें व्यापक सामाजिक व आध्यात्मिक सन्देश समाहित है। इसे समझने व जीवन में उतारने की आवश्यकता है। यह विचार ब्रह्मकुमारी की राजयोग शिक्षिका बहन स्वर्णलता ने व्यक्त किये। वह गोमतीनगर में लायंस राजधानी अनिंद द्वारा आयोजित गोवर्धन पूजा समारोह में बोल रही थी। इस अवसर पर लायंस राजधानी अनिंद द्वारा करीब एक हजार गरीबों को भोजन वितरित किया गया। कार्यक्रम का संचालन राकेश अग्रवाल ने किया।

उनके द्वारा प्रस्तुत भजन व देशभक्ति गीत से कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। बहन स्वर्णलता ने पर्वों के अवसर पर ऐसे सामाजिक कार्यों को सराहनीय बताया। समाज के समर्थ लोगों का यह दायित्व है कि वह पर्वों की खुशी में गरीबों को भी सम्मलित करें। इस प्रकार का चिंतन व्यक्ति को सत्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करता है। भारतीय दर्शन में पुनर्जन्म व कर्मफल के महत्व का प्रतिपादन किया गया। व्यक्ति को अपने विवेक व अंतरात्मा की आवाज से सदैव नेक कर्म ही करने चाहिए। मन कर्म वचन से किसी को पीड़ित नहीं करना चाहिए।

उन्होंने कहा कि दीपावली और गोवर्धन पूजा का भी यही सन्देश है। प्रभु श्री राम ने रावण के अहंकार का नाश किया था। इसके बाद वह जब अयोध्या पहुंचे तब दीपोत्सव मनाया गया। श्री कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठा कर इंद्र का मानमर्दन किया था। प्रभु श्री राम व श्री कृष्ण के लिए कुछ भी असंभव नहीं था। इसके बाद भी उन्होंने जब अवतार लिया तब समाज को साथ लेकर चले। यह भी हमारे उत्सव का सन्देश है। बहन स्वर्णलता ने एक रोचक कथा बताई। एक गांव में सज्जन व दुर्जन दो मित्र थे। सज्जन अपने स्वभाव के अनुरूप सत्कर्म करता था। दुर्जन धन को सब कुछ मानता था। उसका सत्कर्मों पर विश्वास नहीं था। एक बार दोनों मित्र यात्रा पर जा रहे थे। जंगल में दुर्जन को एक छोटा बक्सा मिला। उसमें हीरे मोती भरे थे।

उसी समय सज्जन के पैर में कांटा चुभ गया। उसे पीड़ा हुई। दुर्जन को इससे कहने का मौका मिला। उसने कहा कि तुमने सत्कर्म किये। क्या मिला। यह पीड़ा। जबकि मुझे यह सम्पत्ति मिली है। इस समय पीड़ित व दुर्जन प्रसन्न था। उसी समय वहां एक त्रिकालदर्शी सन्यासी आये। उन्होने दुर्जन से कहा कि पिछले जन्म में तुमने सत्कर्म किये थे। उसके प्रतिफल में तुमको कुबेर जैसा खजाना मिलना था। लेकिन इस जन्म में तुमने सत्कर्म नहीं किये। इसलिए वह खजाना छोटे डिब्बे में बदल गया। यह सुनकर दुर्जन दुखी हो गया। वह सोचने लगा कि वह तो बहुत अधिक घाटे में रह गया।

सन्यासी ने सज्जन से कहा कि पूर्व जन्म में तुम ने सत्कर्म नहीं किये। तुम लोगों को पीड़ित करते थे। इसके प्रतिफल में तुमको सूली पर लटकाया जाता। लेकिन इस जन्म में तुमने सत्कर्म किये। इसलिए सूली की सजा एक कांटे में बदल गई। यह सुनकर सज्जन की पीड़ा दूर हो गई। उसने प्रभु का स्मरण किया। वह बड़ी सजा से बच गया। इस कहानी का सन्देश यह कि व्यक्ति को सदैव सत्कर्म ही करने चाहिए। हमारे पर्व उत्सव इसी की प्रेरणा देते है।

रिपोर्ट-डॉ दिलीप अग्निहोत्री

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