अमेरिका के डलास में बीते दिनों 2 हजार बच्चों ने नया कीर्तिमान स्थापित किया है। यहां उन्होंने एक साथ मिलकर भागवत गीता का पाठ किया। इसका वीडियो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। भारतीय संस्कृति का पूरी दुनिया में बोलबाला है। भारत के धार्मिक स्थलों को देखने के लिए विदेशों से हर साल लाखों टूरिस्ट आते हैं। मथुरा-वृंदावन और ऋषिकेश में तो विदेशी सैलानियों का तांता लगा रहता है।
वहीं अब भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भारतीय संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। हाल ही में दुनिया के ‘सबसे शक्तिशाली’ देश अमेरिका से एक वीडियो सामने आया है। इस वीडियो को देखने के बाद हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा। सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आए इस वीडियो में आप एक बड़ा इंडोर स्टेडियम देखेंगे। इस स्टेडियम के अंदर हजारों बच्चे एक साथ भागवत गीता का पाठ कर रहे हैं।
एक साल से कर रहे थे तैयारी
मिली जानकारी के अनुसार, ये वायरल वीडियो अमेरिका के डलास का है। यहां बच्चों ने एक साथ मिलकर भागवत कथा की। वीडियो पर दिए गए कैप्शन के मुताबिक, ये बच्चे पिछले एक साल से इसके लिए तैयारी कर रहे थे। वहीं अब उन्होंने भागवत का पाठ कर दुनियाभर में भारतीय संस्कृति का मान और बढ़ा दिया है।
गुजरात के स्कूलों में पढ़ाई जाएगी श्रीमद्भागवत गीता, बच्चों को समझाए जाएंगे गीता के सिद्धांत
शिक्षा मंत्री जीतू वघानी ने शिक्षा विभाग के लिए बजटीय आवंटन पर विधानसभा में एक चर्चा के दौरान यह घोषणा की है। गुजरात सरकार ने भगवद् गीता को अकादमिक वर्ष 2022-23 से पूरे राज्य में छठी से 12वीं कक्षाओं तक के स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल करने की विधानसभा में घोषणा की। शिक्षा मंत्री जीतू वघानी ने शिक्षा विभाग के लिए बजटीय आवंटन पर विधानसभा में एक चर्चा के दौरान यह घोषणा की।
मंत्री ने कहा कि भगवद् गीता में मौजूद नैतिक मूल्यों एवं सिद्धांतों को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल करने का निर्णय केंद्र की नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति की तर्ज पर लिया गया है। उन्होंने कहा कि एनईपी (NEP) आधुनिक और प्राचीन संस्कृति, परपंराओं एवं ज्ञान प्रणाली को शामिल करने की हिमायत करती है, ताकि छात्र भारत की समृद्ध और विविध संस्कृति पर गर्व महसूस कर सकें।बाद में, संवाददाताओं से बात करते हुए वघानी ने कहा कि सभी धर्मों के लोगों ने इस प्राचीन हिंदू ग्रंथ में रेखांकित किये गये नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों को स्वीकार किया है। उन्होंने कहा, ‘‘इसलिए, हमने छठी से 12वीं कक्षाओं तक के पाठ्यक्रमों में भगवद् गीता को शामिल करने का निर्णय लिया।
ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में शामिल भारतवंशी ऋषि सुनक ने गौपूजा करके मांगा आशीर्वाद
ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बनने की दौड़ अपने आखिरी दौर में है। भारतवंशी ऋषि सुनक ने अब गोपूजा करके प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद मांगा है। पत्नी अक्षता के साथ गोपूजा करते ऋषि सुनक का वीडियो भी खूब वायरल हो रहा है। भारतीय मूल के ऋषि सुनक ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में हैं। प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री रहे ऋषि अब जॉनसन के उत्तराधिकारी बनने की होड़ में शामिल हो गए हैं। उनका मुकाबला ब्रिटेन की विदेश मंत्री लिज ट्रस से है। सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी 5 सितंबर को अंतिम रूप से नए नेता का चुनाव करेगी। सुनक कंजर्वेटिव पार्टी के कार्यकर्ताओं के वोट पाने की मशक्कत में जुटे हैं।
सुनक को भारतवंशियों का भरपूर समर्थन भी मिल रहा है। सुनक ने जन्माष्टमी पर ब्रिटेन के एक मंदिर जाकर कृष्ण की पूजा का फोटो स्वयं ट्वीट किया था। उसके बाद अब सुनक के समर्थकों ने एक वीडियो सोशल मीडिया पर शेयर किया है, जिसमें वे अपनी पत्नी के साथ गाय की पूजा करते नजर आ रहे हैं। उनके समर्थकों ने लिखा है कि सुनक उस परंपरा का पालन कर रहे हैं, जिसमें गाय व बछड़े की पूजा करके मन्नत मांगी जाती है। वायरल वीडियो में सुनक अपनी पत्नी अक्षता के साथ गाय की आरती करते हुए दिख रहे हैं। वे गाय को जल अर्पित कर मंत्रोच्चार के बीच आशीर्वाद लेते हैं।
गीता का परिचय, रचनाकाल, श्लोक संख्या, अध्यायों का सार संक्षेप
गीता संस्कृत साहित्य काल में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व का अमूल्य ग्रन्थ है। यह भगवान श्री कृष्ण के मुखारबिन्द से निकली दिव्य वाणी है। इसमें 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। इसके संकलन कर्ता महर्षि वेद ब्यास को माना जाता है। आज गीता का विश्व की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। गीता में ज्ञान योग, कर्मयोग, और भक्ति योग का वर्णन किया गया है। प्रस्तावना के अन्तर्गत गीता के 18 अध्यायों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया गया है।
श्रीमद्भगवद्गीता का परिचय
भगवदगीता संस्कृत महाकाव्य का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में अत्यन्त समादर प्राप्त ग्रन्थ है। इसमें भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को कुरुक्षेत्र युद्ध में दिया गया दिव्य उपदेश है यह गीता वेदान्त दर्शन का सार है। यह ग्रन्थ महाभारत की एक घटना के रूप में प्राप्त होती है। महाभारत में वर्तमान कलियुग तक की घटनाओं का विवरण मिलता है। इसी युग के प्रारम्भ में आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व भगवान श्री कृष्ण ने अपने मित्र तथा भक्त अर्जुन को यह गीता सुनाई थी।
गीता का रचनाकाल
गीता के रचनाकाल के सम्बन्ध में डा0 रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने चर्तुव्यूह को आधार मानकर सिद्ध किया है कि भगवदगीता की रचना “सात्तवत या भागवत सम्प्रदाय” की सुव्यस्थित होने के पूर्व हुई है। उनके मत में इसका काल चौथी ई0पू0 का आरम्भ है तथा यह भक्ति सम्प्रदाय या ऐकान्तिक धर्म की प्राचीनतम व्याख्या है। यद्यपि गीता के काल निर्णय के बारे में भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिमत भी हैं और आज भी हो रही है। इसलिये गीता को महाभारत के भीष्म पर्व पर आधारित मानना उचित है “महाभारत के भीष्म पर्व” के 25 से 42 अध्याय के अन्तर्गत भगवदगीता आती है फिर शान्तिपर्व और अश्वमेधपर्व में भी गीता का कुछ प्रसंग उल्लिखित मिलता है।
भगवदगीता भागवत धर्म पर आधारित द्विव्य ग्रन्थ है इसकी रचनाकाल और सन्देश के विषय में विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्य विद्वानों का मानना है कि गीता में परस्पर विरोध विचारों का सामन्जस्य है। जो यह सिद्ध करता है कि एक व्यक्ति द्वारा रचित होना सम्भव नहीं है। बल्कि विभिन्न व्यक्तियों ने विभिन्न समयों में लिखा होगा। परन्तु भारतीय विचारक एवं चिन्तक मानतें है कि भागवत धर्म का अभ्युदयकाल ई0सन् के 1400 वर्ष पहले रहा होगा और गीता कुछ शताब्दियों के बाद प्रकाश में आयी होगी। मूल भागवत धर्म भी निष्काम कर्म प्रधान होते हुये भी आगे चलकर भक्ति प्रधान स्वरूप धारण कर “विशिष्टाद्वैत” का समावेश कर लिया तथा प्रचलित हुआ।
गीता महाभारत का ही अंश है और यदि महाभारत काल निर्धारण है तो गीता का अनुमान भी उसी आधार पर सहज ही लगाया जा सकता है। महाभारत लक्ष श्लोकात्मक ग्रन्थ है और शक् के लगभग 500 पूर्व अस्तित्व में था- गार्वे के अनुसार ‘‘मूल गीता की रचना 200 ई0पू0 के लगभग हुई होगी जब विष्णु और कृष्ण का तादात्म्य स्थापित किया जा चुका था।
हाँपकिन्स, कीथ, डाउसन और फर्कुआर आदि विदेशी विद्वान इसे श्वेताश्वतर उपनिशद् से मिलता जुलता मानते हैं। लेकिन समयानुसार कुछ बाद का उपनिशद मानतें है। ओटो और याकोबी मूलगीता ग्रन्थ को दार्शनिक या धार्मिक ग्रन्थ नहीं मानतें है’’। इन लोगों का मानना है कि यह मूलत: महाकाव्य का सुन्दर अंश है जिसे बाद में दार्शनिकों ने वर्तमान कलेवर में सुसज्जित कर नया रूप प्रदान किया।
गीता की श्लोक संख्या
गीता की श्लोक संख्या को लेकर विद्वानों में प्राचीन काल से लेकर आज तक मतभेद विद्यमान है। आचार्य शंकर ने गीता पर अपना श्रीमदभगवद गीता शांकरभाश्य लिखा है और साथ ही श्लोकों की संख्या 700 मानकर गीता भाष्य की रचना की थी। परवर्ती भाष्यकार, टीकाकार और व्याख्याकारों ने शंकराचार्य के ही मत को स्वीकार किया है। महाभारत के भीष्मपर्व के 43 अध्याय के चौथे और पांचवें श्लोकों में वैषम्पायन ने भगवदगीता की प्रशंसा करते हुये कहा है-
‘‘शट्षतानि सविंषानि श्लोकानां प्राह केषव:।
अर्जुन: सप्तपंचाषं सप्तशश्ठि च संजय:।।
धृतराष्ट्र: श्लोकमेकं गीताया: मानमुच्यते।’’
अर्थात् गीता में श्री कृष्ण के द्वारा कथित श्लोंकों की संख्या 620 है, अर्जुन कथित 56 श्लोक है तथा संजय कथित 67 और धृतराश्ट्र कथित एक श्लोक है। इस प्रकार उपर्युक्त यदि सभी श्लोकों की संख्या परिगणित की जाय तो 745 हो जायेगी। आधुनिक विद्वानों में भी श्लोक संख्या को लेकर मतभेद उपस्थित है और आधुनिक लोग गीता के आकार को अपूर्ण मानते है। इस प्रकार कुछ लोग तो गीता की श्लोक संख्या 745 ही मानते किन्तु वर्तमान मे प्रचलित गीता की श्लोक संख्या 700 ही मानी जा रही है।
महाभारत के भीष्मपर्व के 25 से 42 अध्याय की भगवदगीता भी 700 श्लोकों में पूर्ण है। कहीं-कहीं पर *श्री भगवानुवाच, संजयउवाच, अर्जुनउवाच, धृतराश्ट्रउवाच* आदि कुल 58 उक्तियों में श्लोक संख्या नहीं दी गयी हैं इसी प्रकार दुर्गा सप्तशती भी 700 श्लोंको में पूर्ण है। उसमे मार्कण्डेयउवाच, वैश्यउवाच इत्यादि 56 उवाचात्मक वाक्यों को भी क्रमिक श्लोक संख्या के रूप में चण्डी के 700 श्लोंकों के अन्तर्गत लिया गया है।
महाभारत में वैशम्पायन की उक्ति के अनुसार गीता की श्लोक संख्या 745 होती है। और वह भी धृतराश्ट्रउवाच 9, अर्जुनउवाच-20, श्री भगवानुवाच-28 ऎसी कुल 58 उक्तियों को महाभारत के 700 श्लोंको के अन्तर्गत नहीं किया गया है, और इसी कारण गीता की श्लोक संख्या में कुछ भेद परिलछित होता है। यथार्थ में भी जो मूल महाभारत है उसमें भी 700 श्लोक ही प्राप्त होते हैं और मूल महाभारत श्लोकों के अवलम्बन से ही आचार्य शंकर ने अपने भाष्य की रचना की थी।
श्रीमद्भगवद्गीता का प्रमुख टीकाकार
गीता हिन्दू धर्म का प्राचीन ग्रन्थ है और यह प्रस्थानत्रयी के अन्तर्गत समावेशित है। इसकी प्रमाणिकता उपनिषदों और ‘ब्रम्हसूत्र‘ के बराबर मानी गयी है। विद्वानों का मानना है कि भारत में जब बौद्ध धर्म का ह्रास हो गया था उस समय विभिन्न धर्म और उसके धर्मावलम्बी अपने-अपने मत को उत्कृष्ट रूप प्रदान करने के लिए उठ खडे हुये जिनमें से प्रमुख-अद्वैत वाद, द्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद आदि प्रमुख थे। गीता की विभिन्न टिकायें आचार्यों द्वारा एक ओर अपने मत के समर्थन, प्रोत्साहन और वृद्धि के लिए लिखी गयी तथा दूसरी ओर दूसरे सम्प्रदायों के खण्डन के लिए लिखी गई है।
शंकराचार्य की टीका (ई0 सन् 788-820) इस समय विद्यमान टीकाओं में सबसे प्राचीन है इससे भी पूरानी अन्य टीकायें की जिनका नाम निर्देश शंकराचार्य ने अपनी भूमिका में किया है। परन्तु वे इस समय प्राप्त नहीं होती है। शंकराचार्य के दृष्टिकोण का विकास आनन्दगिरि ने जो सम्भवत: 13 वीं शताब्दी में हुये तथा इनके बाद श्रीधर (1400ई0सन्) ने और मधुसूदन (16वीं शताब्दी) ने तथा अन्य परवर्ती लेखकों ने किया। रामानुज ने (11वीं शताब्दी ई0) ने अपनी टीका में संसार की अवास्तविकता और कर्म त्याग के मार्ग के सिद्धान्त का खण्डन किया उसमें यमुनाचार्य द्वारा अपने ‘गीतार्थ संग्रह’ में प्रतिपादित व्याख्या का अनुसरण किया रामानुज ने गीता पर अपनी टीका में एक प्रकार का वैयक्तिक रहस्यवाद विकसित किया है और ये भगवान विष्णु को ही एक मात्र सच्चा देवता स्वीकार करते हैं।
मध्व ने (ई0सन् 1199-1276) तक भगवदगीता पर दो ग्रन्थ ‘गीताभाश्य’ और ‘गीतातात्पर्य’ लिखें उसमें गीता में से द्वैतवाद के सिद्धान्त को ढूंढ निकालने का प्रयास किया है। यह मानते हैं कि आत्मा और परमात्मा को एक तरह से तदनुरूप न मानकर भिन्न मानना चाहियें। ‘वह तू है’ अर्थात् ‘तत्वमसि’ का अर्थ करते हुये कहते हैं कि हमें मेरे तेरे के भेदभाव को त्याग देना चाहिये और समझना चाहिये कि प्रत्येक वस्तु भगवान के नियन्त्रण के अधीन है।
नीम्बार्क (1162ई0सन्) में द्वैताद्वैत के सिद्धान्त को अपनाया और ब्रम्हसूत्र पर टीका लिखी इनके शिष्य केशव कश्मीरी ने गीता पर एक टीका लिखी जिसका नाम ‘‘तत्वप्रकाशिका’’ है। गीता पर अनेक टीका कारों ने अपने-अपने समय में बाल गंगाधर तिलक और अरविन्द, गांधी की टीकायें मुख्य है और सबके अपने-अपने विचार हैं।
डा0 राधाकृष्णन लिखते हैं कि उपदेश देते समय कृष्ण के लिए युद्ध क्षेत्र में 700 श्लोकों को पढ़ना सम्भव नहीं हुआ होगा उन्होनें कुछ थोडी सी बातें कहीं होगी जिन्हें बाद के लेखको नें विस्तारित कर दिया। ‘‘भगवदगीता उस महान आन्दोलन के बाद की, जिसका प्रतिनिधित्व प्रारम्भिक उपनिशद् करते हैं और दार्शनिक प्रणालियों के विकास और उनके सूत्रों में बंध जाने के काल से पहले की रचना है। इसकी प्राचीन वाक्य रचना और आन्तरिक निर्देशों से हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि यह निश्चित रूप से ई0पू0 काल की रचना है इसका काल ई0पू0 5वीं शताब्दी कहा जा सकता है, हालांकि बाद में भी इसके मूल पाठ में अनेक हेर-फेर हुये हैं।’’
हमें गीता के रचयिता का नाम मालूम नहीं है। भारत के प्रारम्भिक साहित्य की लगभग सभी पुस्तकों के लेखकों का नाम अज्ञात हैं यद्यपि गीता की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है, जो महाभारत का पौराणिक संकलन कर्ता है। गीता के 18 अध्याय महाभारत के भीष्मपर्व के 23-40 तक के अध्याय हैं।
कुछ विद्वान मानतें है कि गीता पहले सांख्य योग सम्बन्धी ग्रन्थ था। जिसमें बाद में कृष्ण वसुदेव पूजापद्धति आ मिली और ई0पू0 तीसरी शताब्दी में इसका मेल-मिलाप कृष्ण को विश्णु का रूप मानकर वैदिक परम्परा के साथ बिठा दिया गया। मूल रचना ई0ूप0 200 में लिखी गयी थी और इसका वर्तमान रूप ई0 की दूसरी शताब्दी में किसी वेदान्त के अनुयायी द्वारा प्रस्तुत किया गया है। हालांकि इस सिद्धान्त को दार्शनिक लोग समान्यतया अस्वीकार करते हैं। अपने प्रयोजन के लिये हम गीता के उस मूलपाठ को अपना सकते है जिस पर शंकराचार्य की टीकाएं एवं भाष्य उपलब्ध हैं। क्योंकि गीता की सबसे पुरानी टीका शंकरभाष्य ही अत्यन्त प्राचीन रूप में उपलब्ध है।
विद्वानों ने एक साम्प्रदायिक श्लोक के अधार पर श्री शंकराचार्य का जन्मकाल 845 विक्रमीसंवत (शक् 710) निश्चत किया है। अत: आचार्य शंकर के जन्म से दो-तीन सौ वर्ष पूर्व ही गीता लगभग शक् 400 तक प्रकाश में आ चुकी थी। पाश्चात्य विद्वान तैलंग ने कालिदास और बाणभट्ट को गीता से परिचित बतलाया है। कालिदास कृत रघुवंश में (10-39) विष्णु की स्तुति में ‘‘अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किंचन विद्यते्’’ इस श्लोक को गीता के (3.22) नान-वाप्तवाप्तव्यं’’ श्लोक से संभवत: ग्रहण किया गया होगा और बाणभट्ट के ‘‘महाभारतमिवावानन्तगीताकर्णना नन्दितरं’’ इस “लेष प्रधान वाक्य में गीता की झलक दिखलाई पड़ती है। यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो जाता है जब एक 691 संवत (शक 556) के शिलालेख में कालिदास और भारवि का नाम उल्लिखित प्राप्त होता है। और बाणभट्ट हर्ष के समकालिन माने जातें है। इन प्रमाणो से गीता का शक् 400, 500 से कम से कम 200 वर्ष पहले ही महाभारत में भीष्मपर्व में होना निश्चित होता है।
भारतीय विद्वान यह मानते हैं कि गीता में परस्पर विरोधी लगनेवाली विचारधाराओं का विवेचन अवश्य किया गया है। परन्तु समस्त तत्व बिखरे न होकर आबद्ध हैं। इससे सिद्ध होता है कि गीता की रचना एक बार ही हुई होगी। गीताकार में भागवत धर्म के प्रभाव को बढ़ता देखकर उपनिशदों के सिद्धान्तों का नये भक्ति आन्दोलन के साथ समन्वित करने का प्रयास किया है। इसी कारण गीता में विभिन्न विचार धारायें मिलती हैं। डा0 राधाकृष्णन ने इसे 5वीं शताब्दी ई0पू0 की रचना माना है। जो सत्य के निकट सिद्ध होता है। गीता का प्रारम्भिक उपनिशदों “ईश, केन, कठ” से सम्बन्ध था और वेदों के प्रति भी दृष्टिकोण उपनिशदों के समान ही था। गीता में बौद्ध धर्म का परिचय न मिलना यह सिद्ध करता है कि उस समय प्रचार प्रसार नहीं रहा होगा। षड्दर्शनों में से केवल सांख्य और योग का ही विशद वर्णन मिलता है इससे यह स्पष्ट होता है कि गीता की रचना दार्शनिक सम्प्रदायों के अभ्युदय़ पूर्व ही हो चुकी थी।